विशेष :

यक़ीनन किसी भी व्यक्ति को अपनी आलोचना, तनाव, निराशा, और दुःख को जन्म देती है। लेकिन यदि हम आलोचनाओं से निपटने की रणनीति सीख लें तो हम आलोचना को एक अवसर में बदल सकते हैं। आलोचना का मतलब है किसी के द्वारा बिना किसी वाजिब कारण के कोई दोषारोपण करते हुए अप्रिय टिप्पणी करना। अकसर हम आलोचना को व्यक्तिगत हमला मान लेते हैं। ऐसे में या तो हम उसके प्रतिरोध के बारे में सोचते है या उसे पूरी तरह खारिच कर देते हैं, इस तथ्य को स्वीकारें कि आलोचना हमेशा होती रहेगी। यह हमारी जिन्दगी का एक हिस्सा है। आप इससे पलायन नहीं कर सकते, पर आप नकारात्मक आलोचनाओं से किसी भी हानि से बचने का रास्ता जरूर निकाल सकते हैं।

क्या आप जानते हैं कि आलोचना हमारे व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण है? दरअसल, यह इस बात पर निर्भर है कि हम आलोचना को किस रूप में लेते हैं। आलोचना हमें संबंधों, अध्ययन और नौकरी में प्रदर्शन के बारे में समझ बनाने में मदद करती है। इससे हम अपने जीवन में सुधार कर सकते हैं। यह ध्यान देने की बात है कि आलोचना अच्छे उद्देश्य से हो या बुरे उद्देश्य से, हमें उससे लाभ लेने का विचार करना चाहिए। कुछ लोग विनाशकारी प्रवृत्ति के होते हैं और वे आपको अपमानित करने के लिए आपकी आलोचना कर सकते हैं। 'आप मुर्ख हैं' या 'आप बदसूरत हैं' जैसी टिप्पणी कर सकते हैं। ऐसी आलोचना करने वाले आमतौर पर असुरक्षित होते हैं और उनमे आत्मसम्मान कम होता है। ऐसी आलोचना करने वालों का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं होता। वे स्वयं में खुश रहने के लिए दूसरों को काबू करने के लिए अपमानित करें की कोशिश करते हैं।

आप ऐसे सकीर्ण मनोवृति के लोगों की बातों पर ध्यान न दें। जब कोई आपकी आलोचना करे तो अपनी भावनाओं पर सयंम रखें। प्रतिक्रिया देने से बचें। यदि लगे कि आप प्रतिक्रिया करना चाहते हैं, तो गहरी सांस लें। फिर आलोचक को सुनते हुए यह सोचना शुरू करें कि क्या इसमें कुछ ऐसा है, जिससे आप सीख सकते हैं। वास्तव में आलोचना सुनना एक महत्वपूर्ण जीवन कौशल है, जिसका अभ्यास करना हमें बेहतरी की ओर ले जाता है। आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता आपके आत्मिक बल का मापदंड है। उदासीन बने रहें और परिस्थिति को पुर तरह से नजर अंदाज कर दें।

महान संत कबीरदास जी ने कहा है कि जो तुम्हारी आलोचना करते हैं उन्हे अपने निकट रखों, यह तुम्हारे घर, और तुम्हारे मन को स्वच्छ रखेगा - साबुन और पानी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। यदि तुम्हारे आसपास सभी तुम्हारी प्रशंसा करते रहें तो तुम्हें तुम्हारी कमियाँ नहीं दिखेंगी। अगर आप एक कठोर आलोचना के बाद तुरंत प्रतिक्रिया देंगे, तो सबसे अधिक संभावना है कि आप दूसरे पक्ष के प्रति क्रोध और प्रचंडता से प्रतिक्रिया दें। बाद में यकीनन आप आने शब्दों पर पछताएँगे, क्योंकि अपने अपना आपा खो दिया है। यदि आप धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें और कुछ गहरी साँसें लें तो आपका मस्तिष्क निर्मल हो जाएगा और आपका जवाब आपके वास्तविक स्वभाव के हिसाब से संतुलित होगा। एक नकली मुस्कराहट भी आपको एक कठोर आलोचना के बाद, ज्यादा विश्रांत बनाने में मददगार हो सकती है। मुस्कुराना हमारे शरीर में एक सकारात्मक संकुचन पैदा करता है और उस विशेष क्षण में जो आप गुस्सा महसूस कर रहे है होते हैं, उसको शांत कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में ये आपकी मनस्थिति को प्रोत्साहित करता है, जबकि उसी समय ये उस व्यक्ति को परेशान क्र देगा जो आपकी आलोचना कर रहा होगा।

कोई आलोचना हमारे द्वारा विचारणीय है या नहीं, यह तय करने के लिए अच्छे निर्णय का उपयोग करना हम पर निर्भर करता है। यह अपनी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए, खुले दिमाग और अनुभव रखने से आता है। किसी के द्वारा आलोचना होने पर हम किसी विश्वसनीय मित्र या सहकर्मी के साथ परामर्श भी कर सकते हैं, सोशल मिडिया के मौजूदा युग में, यह सीखना अहम है कि आलोचना को सकारात्मक तरीके से कैसे संचालित किया जाए। यह हमेशा याद रखें कि हमें सीखने और आगे बढ़ने के लिए आलोचना की आवश्यकता है। नकारात्मक टिप्पणीयाँ आपको अपने दोष और खामियों को देखने और उनको स्वीकारने में मदद करती हैं। साथ ही साथ उनके सुधार के प्रयत्न में मदद करती है। आलोचना आपके अपने बारे में अनसुलझे प्रश्नों को खोजने में मदद करती है। निश्चित रूप से आलोचना, संभावानाओं और विचरों को जन्म देती है, जो आपने अब तक नहीं विचारे थे। आप अपनी समस्या को सुलझाने के कौशल को बढ़ा सकते हैं, विशेष रूप से तब, जब बुरी आलोचना आपकी किसी समस्या के बारे में हो, जिसको आपको सुलझाने की जरुरत हो। आलोचना आपको एक अवसर देती है अपने आपको बेहतर तरीके से समझने का और आगे बढ़ने का। निश्चित रूप से आलोचना को अवसर बनाकर ऊँची सफलताएँ भी प्राप्त की जा सकती हैं।

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, फल भोगने में परतंत्र है। गीता में कहा गया है - 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' अर्थात् कर्म करने में अधिकार है, फल पाने में नहीं। ईश्वर न्यायकारी है, जो जैसा कर्म करता है उसको अपनी न्यायव्यवस्था से वैसा ही फल देता है। ईश्वर हमें हर पल, हर घड़ी देख, सुन और जान रहा है। मनुष्य के शरीर, वाणी तथा मन से दो प्रकार के कर्म किये जाते हैं। एक - अशुभ, दूसरा - शुभ। शरीर से किए जाने वाले कर्मों को ईश्वर देख रहा होता है, वाणी से किये जाने वाले कर्मों को सुन रहा होता है तथा मन से किये जाने वाले कर्मों को हर समय जान रहा होता है।

शरीर से किये जाने वाले शुभ कर्म-दान, रक्षा, सेवा तथा अशुभ कर्म-चोरी, हिंसा, जारी। वाणी से किये जाने वाले शुभ कर्म-सत्य, प्रिय, हितकारक, स्वाध्याय तथा अशुभ-झूट, कठोर, चुगली करना, व्यर्थ वार्तालाप और मन से किये जाने वाले शुभ कर्म-दया, अस्पृहा (लोभ का त्याग), श्रद्धा तथा अशुभ-परद्रोह, लोभ, नास्तिक्य।

इस प्रकार शरीर से तीन, वाणी से चार तथा मन से तीन, ये दस शुभ व दस अशुभ कर्म हुये। शुभ कर्मों का फल सुख रूप में मिलता है तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख रूप में मिलता है। एक कवी ने कितना अच्छा कहा है- शुभ-अशुभ कर्म का फल, निश्चय ही मिलना है कल, नहीं होगी फेरबदल, प्रभु इंसाफ करेंगे, नहीं माफ़ करेंगे।

जब हम ईश्वर को न्यायकारी मानते हैं और जानते हैं कि वह कर्मों का फल अवश्य देगा। अतः हमें शरीर, वाणी तथा मन से शुभ-अशुभ कर्म ही करने चाहिएं, अशुभ नहीं। तब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं तो ये कर्म भी दो प्रकार के होते हैं। एक-सकाम कर्म, दूसरा-निष्काम कर्म। जो मनुष्य फल की इच्छा रखकर सांसारिक सुख चाहता है, वह सकामकर्म करता और और मानव मात्र के अंतिम लक्ष्य की इच्छा रखता है और अर्थात् कर्त्तव्य भावना से प्रेरित होकर और फल की इच्छा का परित्याग करके कर्म करता है तो वह निष्काम कर्म कहलाता है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य केवल मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूटना है। वह तभी प्राप्त हो सकता है जब केवल शुभ व निष्काम कर्म ही किये जायें। अतः हमें सदैव शुभ व निष्काम कर्म ही करने चाहिएं।

अगर आपको लगता है कि आपके घुटने दुखते हैं या कमर दर्द करती है तो जल तत्व की शरण में जाइए, एक बाल्टी पानी गरम कीजिये, एक बाल्टी ठंडा पानी भी रखिए और जो भाग दर्द करता है, उसे तीन मिनट पहले गरम पानी में रखिए और फिर तीन मिनट ठंडे पानी में रखिए । पाँच बार इस क्रिया को दोहराए । गरम-ठंडे पानी के साहचर्य से नसों में रुका हुआ खून फिर ठीक से चलने लगेगा और शरीर का दर्द शनैः शनैः ठीक हो जाएगा । हम स्नान क्यों करते है? जल तत्व के संपर्क में रहने के लिए । प्रतिदिन साबुन भी न लगाएं, सप्ताह में एक या दो बार ही साबुन का प्रयोग करें । गीले तौलिये से शरीर को थोड़ा रगड़ते हुए पोंछिए। एक तो इससे रक्तप्रवाह अच्छी तरह से होगा। दूसरा जो रोम-छिद्र धुल और परोसने से अवरुद्ध हो गए है, वे खुल जाएंगे। पसीना तो निकलना ही चाहिए, तभी तो दूषित तत्व बाहर निकलेंगे। स्नान करने से ताजगी आती है और शरीर की उत्तेजनाएँ, विकार तथा दोष अपने आप शांत हो जाते हैं ।

सरोवर में स्नान करने बजाय, बहते पानी में स्नान करना अधिक लाभदायक है। पानी के वेग से विद्युत उत्पन्न की जा सकती है, तो ऐसा वेगवान पानी जब हमारे शरीर से टकराता है तो ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा हमारे शरीर को ऊर्जास्वित करती है। दस बाल्टी पानी से स्नान करने की अपेक्षा नदी में एक बार डुबकी लगाना ज्यादा लाभदायक है। शरीर के शैल्स को चार्ज करने के लिए जल-तत्व आवश्यक है ।

हमारे शरीर में तीसरा तत्व हैं : अग्नि। अग्नि-तत्व को अपने शरीर के साथ जोड़ने का सबसे बेहतरीन माध्यम सूर्य है। हममें से प्रत्येक को प्रभातकालीन सूर्य के समक्ष कम-से-कम पंद्रह मिनट तक अवश्य बैठना चाहिए। अपने देखा है कि हमारे देश में सूर्य को अधर्य दिया जाता है, क्यों? इसीलिए कि इस बहाने ही सही, कम-से-कम तीन मिनट तो सूर्य के सामने खड़े रह सकेंगे। सौर ऊर्जा से तो आज चूल्हे जल रहे हैं, गाड़ियाँ चल रही है, पवनचक्कियाँ अपना काम कर रही है । यानि सूर्य अग्नि का पिंड है। अग्नि ही खाना पकाती है, इंजन चलाती है। शरीर में ग्रहण किया गया भोजन भी जठराग्नि में ही चलता है। आप भी शारीर की जकड़न और शरीर के दोषों को दूर करने के लिए सूर्य या ऊष्णताप्रधान तत्वों का उपयोग कर सकते हैं । कई दफा ऐसे भी प्रयोग देखने को मिलते है कि कमर, पीठ या गर्दन में दर्द होने जाने पर, चानक पड़ जाने पर या लचक पड़ जाने पर बिस्तर को तेज धुप में रख दिया जाता है और फिर से उस पर आधे घंटा लेट जाने की सलाह दी जाती है। धूप में बिस्तर की रुई गर्म हो जाती है और उस पर सोने से शरीर की सिकाई हो जाती है।

आपने देखा कि मैग्नीफाइंग ग्लास द्वारा सूर्य की रोशनी को फोकस कर कागज पर डाला जाता है तो वह कागज जल उठता है । हमारी देह तो उसे अपने संपूर्ण रप में ग्रहण करने में सक्षम है । एक गुजराती भाई है। उनके शरीर का तो सूर्य की किरणों के साथ ऐसा तालमेल है कि वे मात्र सूर्य की आधे घंटा आतपना लेकर चौबीस घंटे निराहार रहते हैं और ऐसा वे पूरे सालभर कर सकते हैं । वे जब मुझसे मिले तो मुझे बताया गया कि उन्होंने पिछले दो साल से सूर्य रश्मियों के आलावा अन्य किसी भी प्रकार के अन्न-जल का उपयोग नहीं किया है।

हिमालय में भी संत लोग नियमित सूर्य-आतपना लिया करते हैं । एक संत हुए है : स्वामी विशुद्धानंदजी। वे अपनी कुटिया के बाहर बैठे हुए थे। तभी देखा एक घायल चिड़ियाँ जमीन पर गिरी है। उन्होंने उस चिड़िया को अपने पास मंगवाया। उनके पास तरह-तरह के मैग्नीफाइंग ग्लास थे। उन्होंने उन विभिन्न ग्लासों से चिड़िया के विभिन्न अंगों पर सूर्य की रोशनी को फोकस किया। थोड़ी देर में वह चिड़िया फड़फड़ाने लगी और जब उसकी चोंच में दो बूंद पानी डाला तो चिड़िया में जान आ गई और वह फुर्र से उड़ गई।

अपने विदेशियों को देखा होगा। वे हमारे यहाँ आते हैं और गोवा में समुद्रतट पर धूप में पड़े रहते हैं, 'सन-बाथ' लेते हैं। वे प्रतिदिन चार-छः घंटे धूप में बिताते हैं। इससे उनकी त्वचा संबंधी रोग ठीक हो जाते हैं। पृथ्वी और अग्नि तत्व एक साहचर्य से व्यक्ति का लकवा रोग भी ठीक किया जा सकता है। राजस्थान के रेगिस्तान में जो घरेलू रेत पाई जाती है उसके आठ-दस बोरे मंगवा लीजिए। उसे धूप में तीन-चार घंटे रखिए, फिर लकवाग्रस्त व्यक्ति को वही धूप में दो घंटे तक उस रेत पर लिटा दीजिए। करवटें बदलते रहिए। उम्मीद है कि वह लकवे से मुक्त हो जाएगा। यह धूप और मिट्टी की सिकाई का परिणाम है।

आपको पता होगा की नवजात शिशु अगर पीलियाग्रस्त हो जाता है तो डॉक्टर उस बच्चे को सूर्योदय की धूप में पंद्रह-पंद्रह मिनट रखने की सलाह देते हैं, क्योंकि उस समय सूर्य से जो किरणें निकलती हैं वे पीलिया को दूर करने मे सक्षम होती है। हमारे देश में योगियों ने 'सूर्य-नमस्कार' करके योग विधि स्थापित की है। उसमें बारह प्रकार की योगमुद्राएँ और योगासन होते हैं, जिन्हे बारह मंत्रों के साथ समर्पित किया जाता है। इन सबका संबंध सूर्य की ऊर्जा, उसके अग्नि तत्व को अपने जीवन के साथ जोड़ने के लिए हैं। मैं तो सूर्य का उपासक हूँ, इसलिये सूर्यास्त के साथ ही मौन ले लेता हूँ और सूर्योदय होने पर वाणी का उपयोग करता हूँ।

सूर्य तो पृथ्वी का जीता-जगाता देव है। दुनिया में या तो कोई देव है नहीं या फिर धर्मशास्त्र कहते हैं, सूरज और चंद्रमा देवता हैं। अन्य कोई भी देव, जिन्हें इस प्रतिदिन स्मरण करते हैं, शीश नमाते हैं कभी दर्शन नहीं देते, पर सूरज को तो जब चाहे सामने देखों; सूर्य और चन्द्र चौबीस घंटों में हर बार प्रकट होते हैं। उनसे मुलाकात कीजिए, संबन्ध जोड़िए। आप पायेंगे कि सूर्य और चन्द्र से आपको सुकून मिलने लगा है। सूरज और चाँद आपको बहुत सी समस्याओं का समाधान कर देंगे। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियाँ केवल चाँद सितारों को देखकर ही की गई है। लोग साधना करें, सर्वज्ञ बनते हैं, लेकिन नास्त्रेदमस ने तारों से अपनी अंतरंगता स्थापित की और उनसे जो भविष्यवाणियाँ की हैं, वे आज भी सत्यता के पैमाने पर खरी उतर रही हैं।

वायु हमारे जीवन का चौथा तत्व है। हम सभी वायु की शक्ति से परिचित है। एक भरा हुआ ट्रक चार पहियों में भरी हुई हवा के कारण चलता है। साईकिल जिसमें बमुश्किल सौ ग्राम हवा भरी जाती हैं, लेकिन वह हमारा सत्तर किलो वजन उठाने में सक्षम हो जाती है। जिन्हें तैरना नहीं आता, वे पानी में डूब सकते हैं, लेकिन ट्यूब में हवा भरकर उसके सहारे तैरने पर कदापि नहीं डूब सकते। वायु की साधना का बेहतरीन तरीका 'प्राणायाम' हैं। हमारे शरीर में विशुद्ध रूप से प्राणवायु का संचार करने के लिए, अधिक से अधिक ऑक्सीजन लेने के लिए और कार्बन-डाई-ऑक्साइड अर्थात् नेगेटिव ऊर्जा का रेचन करने के लिए 'प्राणायाम' श्रेष्ठ उपाय है । प्रतिदिन सुबह-शाम दस-दस मिनट किया जाने वाला प्राणायाम आपके सत्तर प्रतिशत रोगो को काट देगा। प्राणायाम करने से शरीर में शुद्ध रक्त का संचार होता है, अस्थि, मज्जा मजबूत बनती है और मस्तिष्क को शुद्ध रक्त मिलने से एनर्जी बढती है और पूरा शरीर सक्रिय हो जाता है।

मृत्यु होने पर सबसे पहले सांस ही जाती है और पैदा होने पर सबसे पहले सांस ही मिलती है। माँ का दूध तो बाद में मिलता है, पर प्राणवायु पहले मिलती हैं। जो वायु वृक्षों को उखाड़ देती हैं, वही वायु डूबते जहाजों को भी पार लगा देती हैं। एक वायु हजार रूप! लेकिन जब हम इसका सही ढंग से उपयोग करते है तो यह हमारे रोगों को मिटाने में भी सहायक हो जाती है। इसीलिए कहा जाता है : एक हवा सौ दवा। आखिर जीने के लिए क्या चाहिए? वायु और आयु। यदि दो हैं, तो जीवन की हर बाधा से पार पाया जा सकता है ।

यक़ीनन प्रकृति ने हमें दुनिया में खुश रहने के लिए ही भेजा है, लेकिन हम खुश कैसे रहें, यह एक बड़ा सवाल बन गया है । चूँकि हम बेकार की चिंताओं से घिरे रहते हैं, इसलिए हम दुखी रहते हैं । दुनिया को हमारे ज्ञान से अधिक हमारे हँसमुख स्वभाव की जरुरत है । हम दूसरों को ज्ञान तो बहुत देते हैं, पर उन्हें खुश करने की कोशिश नहीं करते । जितना खुश करते हैं, वे हमारे उतना करीब हो जाते हैं तथा उतने ही चाव से वे हमें सुनते हैं । वास्तव में हँसमुख व्यक्ति वह फुहार है, जिसके छीटें दुखी मन को राहत देते हैं । लेकिन जब हम फालतू तनाव लेने लगते हैं तो अवसाद और नकारात्मक ऊर्जा हमें घेर लेती है । जीने का यह तरीका पूरी तरह अप्राकृतिक हो जाता है ।

हम उच्चरक्तचाप, ख़राब पाचन-तंत्र, असहजता, अनिद्रा, बात-बात पर गुस्सा आना और चिढ़चिढ़ापन जैसी समस्याओं से परेशान रहने लगे हैं । शरीर और मस्तिष्क को ठीक रखने के लिए दवाइयों की जरुरत पड़ने लग जाती है । ऐसी स्थिति में बचने के लिए हमें खुश रहने के मंत्रों को मुठ्ठियों में लेना होगा । हमें खुश रहने के लिए सबसे पहले सभी धर्मों में कहे गए इस संदेश को ध्यान में रखना होगा कि हमारा जन्म प्रेम से रहने, खुश रहने और आनंद की अनुभूति के लिए हुआ है । इसलिए खुद को हमेशा याद दिलाएं कि हम अपने खुश रहने के सपनों को पूरा करने में सक्षम हैं । हमेशा मन को इस विश्वास से भरते रहें कि हम द्वेष के ऊपर प्रेम, अवसद के ऊपर शांति और दुख के ऊपर हर्ष का चुनाव करते हैं और हमेशा करते रहेंगे । हम सोचते है कि हमारे आसपास की दुनिया हमारे व्यवहार और मूड को प्रभावित करती है, जबकि सच तो यह है कि दुनिया तो हमेशा से ऐसी ही है । बस उसे देखने का नजरिया हर इंसान का अलग होता है । नकारात्मक विचार हमें आगे बढ़ने से रोकते हैं, खुशियों में बाधा डालते हैं ।

वस्तुतः हमारी सोच, हमारी ऊर्जा का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है, क्योंकि जब हम किसी काम को करने की ठान लेते हैं तो कोई बाधा बड़ी नहीं लगाती । यह बल हमें अपनी सोच से मिलता है । लेकिन जब कभी हमें यह लगता है कि जीवन में कुछ अच्छा नहीं है या मैं अपनी स्थति को नहीं बदल सकता, तो आगे बढ़ने की सारी संभावनाओं को हम खुद ही ख़त्म कर रहे होते हैं । ऐसे में हमारी सोच का दायरा बहुत सीमित हो जाता है । हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुश रहना हमारा हक है, जिसे हर कीमत पर हम पाकर रहेंगे । जब हम सिर्फ उन विचारों पर ध्यान केंद्रीत करते हैं, जो आपको ख़ुशी देते हैं तो जिंदगी खूबसूरत लगने लगती है । इस पर ध्यान देने के बजाय कि दुनिया क्या कर रही है या क्या कहेगी, इस बात पर ध्यान दें कि हमें किस चीज से खुशी मिलती है । हमारा चुनाव भीड़ से अलग हो सकता है । हमारी खुशी का जरिया एक आलीशान गाड़ी के बजाय अपने किसी प्रियजन एक साथ समय अच्छा बिताना हो सकता है । हम किसी के दबाव में आकर कोई फैसला न लें । अगर अपने किसी कार्य से हमें खुशी मिलती है और किसी दूसरे का अहित नहीं हो रहा है, तो उसे जरूर चुनें।

हमेशा आप अपने आप से एक सवाल पूछिये कि क्या इस वक्त मैं खुश हूँ? यदि जवाब ना में मिले तो अपने मन में इन सूत्रों को दोहराएँ । अगर मुझे प्रसन्न रहना है, खुशियाँ हासिल करनी हैं और जीवन को खूबसूरती से जीना है तो मुझे अपनी नकारात्मक भावनाओं पर काबू रखना होगा । आपको हमेशा यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि छोटी-छोटी बातों पर तनाव लेना छोड़ दें । जीवन में जो अनुभव हुए, आपकी वर्तमान की यह प्रवृति उन अनुभवों के निष्कर्षों के तौर पर बनी हो सकती है । हो सकता है कि आपको बड़ी जिम्मेदारियों को संभालने का हवाला देते हुए आगे बढ़ाया गया हो, लेकिन हो सकता है आप इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में कम सफल हुए हों । इसके लिए जीवन की कई ऐसी स्थितियाँ आपके नियंत्रण से बाहर की होगी उनके प्रति भी आप खुद को जिम्मेदार मानने लगते हैं और आगे चलकर आप यह भी मानने लगते है की लोग आपको आपकी उपलब्धियों से ही स्वीकारेंगे । इतना ही नहीं जहाँ कहीं जो कुछ गलत होने लगे, आप उसे खुद से जोड़ने लगते हैं । वास्तव में ऐसी स्थिति से बचना चाहिए । हर काम सही या आपके मुताबिक नहीं हो सकता । इसलिए अगर कभी त्रुटिवश आप कोई गलती कर दें या परिस्थितिजन्य कोई गलती कर दें तो आत्मग्लानि में डूबने के बजाय खुद को माफ करना सीखें । ऐसा करेंगे, तभी आप खुश रह सकेगें और आगे बढ़ सकेगें। यदि आप खुश रहने के इन मंत्रों को हमेशा मुठ्ठियों में रखेंगे तो आप हमेशा खुश रहेंगे अरु सभी को भी खुश रख सकेंगे । आप हमेशा यह भी ध्यान रखें कि खुश रहने से सफलता की डगर पर आप तेजी से आगे बढ़ेंगे और सफलता की ऊँचाइयाँ आपका स्वागत करने के लिए तैयार खड़ी रहेंगी ।

प्रेम इस संसार का मूल है। सभी प्रेम चाहते हैं पर यह जानते तक नहीं की प्रेम आखिर है क्या? इसीलिए तो जितनी परिभाषाएं प्रेम की है उतने तो तत्व विज्ञानं में नहीं होंगे। किसी के लिए प्रेम समर्पण है तो कोई पाने को प्रेम कहता है। कोई खोने को प्रेम का नाम दे रहा है तो कोई लुटाने को। वैसे प्रेम लुटाने वाले भी कम नहीं है। हर बंबईयां फिल्म में प्रेम की परिणित शादी होती है लेकिन हीर रांझा, शिरी फरयाद, लैला मजनू, ससि पुन्नु आदि, आदि की प्रेम कहानी सब जानते है और मानते हैं पर इनमे से किसी का भी प्रेम स्थाई मिलन तक नहीं पहुंचा। वैसे प्रेम के अनेक रूप है। हर जीव का प्रथम प्रेम अपनी माँ से होता है। फिर बहन, भाभी, भतीजी, भानजी। जिस संबंध को प्रेम का एकमात्र पर्याय मान लिया गया है उसका नम्बर तो बहुत बाद में आता है। वैसे उस तथाकथित प्रेम को पाने से निभाने तक जितने विवाद हैं उतने शायद ही किसी रिश्तें में है। अब प्रश्न है कि क्या प्रेम 'रिश्ता' है? यदि हाँ तो जरुरी नहीं कि रिश्तों में केवल प्रेम ही हो। रिश्तों में तो नफरत भी होती है। सबसे नफरत के रिश्ते से ज्यादा टिकाऊ होते हैं। इस स्वार्थी संसार में प्रेम कब चूक जाये कहना मुश्किल है। पर नफरत का घड़ा बहुत बड़ा है, खाली होना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। अब जीवन है तो प्रेम भी होगा और नफरत भी। तृष्णा भी और वासना भी। दिव्य प्रेम की बहुत सी कहानियां सामने आती रहती है लेकिन क्या दिव्य प्रेम वाले ये बतायेगे कि विपरीत लिंग के बिच जो आकर्षण है वह दिव्यता कब और कैसे प्राप्त कर सकता है। प्रेम के विभिन्न्न रूपों की चर्चा दैहिक प्रेम को सबसे निकृष्ट करार दिया जाता है। ऐसे में यह स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या प्रेम और काम एक साथ नहीं रह सकते? इन दोनों को एक दूर के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि जिससे प्रेम करो उससे दैहिक संबंध नहीं होना चाहिए और जिससे दैहिक संबंध हो उससे प्रेम नहीं करो। यानि प्रेम में संबंध वर्जित है। ऐसा करते ही फार्मूले के अनुसार तुम पतित हो गए।

'काम' में अंधे होकर तुमने एक प्रेम की हत्या कर दी। अतः तुम पापी हो गए। अगर इस फार्मूले को माने तो दुनियां का कोई भी वैवाहिक जोड़ा प्रेम कर ही नहीं सकता। क्या यही कारण नहीं कि इधर प्रेम रहित विवाहित जोड़ों की बाढ़ सी आ गई है। जहां देखों - साथ तो रहते हैं पर प्रेम नहीं। प्रेम का मुखौटा लगाये बस ढो रहे हैं संबंधो को। ऐसे प्रेम रहित लोगों की संतान से फिर आप प्रेम की अपेक्षा क्यों करते हैं। क्या बिना प्रेम के ही सांसारिक चक्करों के उलझे बच्चे आ गए? ध्यान देना आप अगर मानते हो तो पति-पत्नी में प्रेम हो ही नहीं सकता तो क्या विवाहित लोग व्यभिचार हैं? क्या पत्नी गुलाम है या पति? नहीं प्रेम की यह परिभाषा स्वीकार्य नहीं हो सकती। कुछ अपवाद छोड़ दे तो भारतीय दम्पति प्रेम और समर्पण के प्रतीक है। सात जन्म न सही, इस जन्म के हर दुख-सुख यहां तक कि एक देहावसना के बाद भी उसकी याद से जुड़े रहने को आप प्रेम रहित कैसे कह सकते हैं? वैसे प्रेम के अनेक रूप है। एक मित्र के अनुसार, 'यह सत्य है कि कोई भी किसी से प्रेम तभी करता है, जब कोई एक भाव प्रभावित हो। वह रूप हो, गुण हो, व्यवहार हो, वाणी हो, या सेवाभाव हो। लेकिन मैं किसी से प्रभावित नहीं होता इसलिए मैंने कभी किसी से प्रेम नहीं किया।' उनसे विनम्र असहमित है। क्योंकि प्रेम रहित होना लगभग असंभव है। आपको अपने कर्त्तव्य, अपने सिद्धान्त, मानवता से नहीं तो अपने मिथ्याभिमान से प्रेम अवश्य होगा।

कर दे शराब खाना खराब चेहरा बेआब जैसे मुर्दा लाश हो। शराब मनुष्य को चोर, जार, जुवारी, मांसाहारी, कामी, क्रोधी, कुकर्मी, कायर, क्रूर, निर्लज्ज बना सर्वनाश के रास्ते पर ले जाकर छोड़ देती है। फिर ऐसा कौन सा पाप है जो शराबी नहीं करता, यह पापिन शराब मनुष्य के लोक परलोक को बिगड़कर मिट्टी में मिला देती है। नशे तो सारे ही मनुष्य के जीवन को बर्बाद कर देते हैं। आज का नौजवान नाना प्रकार के नशों में ग्रस्त हो रह है। वह माता पिता की सुनता ही नहीं। यह अपने लफंगे यार दोस्तों में बैठकर बीड़ी, सिगरेट, सुलफा, गांजा, स्मैक, सिगार, तम्बाखू, गुटका, नाना प्रकार की नशीली गोलियां खाता-पीता रहता है। न पढता है और नहीं कोई काम करता है। सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है और वह मूर्ख उसी को सुख का साधन मनाता है।

जिन्हें अपने माता पिता की शर्म नहीं है, न अपने परिवार की मान मर्यादा की शर्म है, किसी बड़े छोटे की शर्म है ऐसे बेशर्म नौजवान क्या तो अपना भला करेंगे और क्या देश जाति का भला करेंगे? ऐसे जवानों का क्या हश्र होगा, किसी ने ठीक ही कहा है, ''जिंदगी बिताई महफिलों में और मौत आई मेडिकलों में''। यह हालत है आज के नौजवानों के, माता पिता सोचते थे बड़े दुःखों कष्टों से पाला है लाड़ला, यह हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, पर आज का नौजवान माता पिता पर भार बन रहा है। इन सभी उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए माता पिता अपनी संतानों की सुशिक्षा दें या दिलाया करें और उन पर निगरानी व्यभिचारी हैं। बुरी संगत में बैठने से ही मनुष्य जीवन बर्बाद होता है। व्यसनों की लत लगी फिर वह जिंदगीभर नहीं छूटती। आपकी खून-पसीने की कमी धन, धरती, घरबार, चल अचल संपत्ति बर्बाद कर देगा और शादी के बाद एक दो बच्चे भी हो जायेंगे। घर में रोजाना लड़ाई झगड़ा मारपीट, गाली गलोच का सिलसिला चलता रहता है। आप कुछ कमाता नहीं चोरी, ठगी में नियत रखेगा और घरवाली के पैसे, जेवर, कपडे सभी को बेच देगा और अपनी अंगूठी अलमारी तक भी बेचकर शराब पी जावेगा।

फिर घर में कंगाली आ जावेगी और घरवाली से पैसे मांगता रहता है और फिर यह मजबूर होकर किसी के बर्तन साफ करती है तो किसी के कपड़े साफ करती है तभी बच्चों का पेट भरती है। पर उस बेशर्म को तो शर्म आती ही नहीं क्योंकि वह शराबी है, नशेड़ी है। इसलिए उसके घर में गरीबी, कंगाली, बरबादी, बीमारी डेरा डाले रहती है और अंत में बच्चे भूखे गलियों में नंगे पाव घूमते रहते हैं उन्हें कोई अपने पास बैठने नहीं देता, अपने बच्चों के साथ खेलने नहीं देता, ऐसी हालत बना दी शराब ने। आखिर में एक कफन का भी मोहताज हो जाता है। इसलिये सभी नशों को छोड़ और विद्वानों के बताये गये सत्यमार्ग पर चलो तभी जीवन सफल होगा। तभी जीवन सुखी होगा। दुष्ट कर्मों को छोड़ अपने आप को सुधार ले नहीं तो नर्क वही लोग भोगते हैं जो उलटे मार्ग पर चलते हैं। मानव का तन निर्बल की तन मन धन से सहायता करो, यही मनुष्य धर्म है। यही श्रेष्ठ कर्म है। तभी जीवन सफल होगा।

गरीबी, अभाव के साथ-साथ दूसरों की उपेक्षा से दुखी एक व्यक्ति ने एक दिन एक संत से कहा, 'महाराज, आप तो कहते है कि मनुष्य का जन्म बहुत दुर्लभ है। लेकिन इतने कष्ट, तनाव, उपेक्षा अपमान के रहते मेरी नजर में तो यह कथन अतिश्योक्ति जैसा है। आप ही बताये आखिर जीवन का मोल क्या है?' उसकी बात सुन वह विद्वान संत मन ही मन मुस्कुराये और अपनी झोली में निकालकर उसे एक चमकीला पत्थर देते हुए बोले, 'जीवन के मोल की चर्चा फिर कभी पहले तू इस पत्थर का मोल मालूम कर। लेकिन ध्यान रहे, कोई कितना भी धन दे तुम्हें यह पत्थर किसी को देना नहीं है। केवल मोल लगाना है।' उस पत्थर को लिए वह व्यक्ति बाजार पहुंचा। उसकी नजर सबसे पहले एक रहेड़ी पर संतरे बेचने वाले पड़ी। उसने वह पत्थर उसे दिखाया तो संतरे वाले ने उसे खूब उल्ट पलट कर देखने के बाद कहा, 'बड़ा होता तो कहीं दीवार में लग जाता। छोटा तो खेलने के बाद ही आ सकता है। मेरे घर में कोई बच्चा नहीं है इसलिए मेरे लिए तो एक पैसे का भी नहीं। अगर फिर भी कुछ दाम लगाना ही पड़े तो ज्याद से ज्यादा एक संतरा ही इसके बदले दे सकता हूं।

उसने संतरे वाले को धन्यवाद किया और आगे बढ़ गया जहां एक गन्ना बेचने वाला था। उसने पत्थर को देखते ही एक झटके में उसे दूर फेंकते हुए कहा, 'अभी बोहनी भी नहीं हुई कि तू पत्थर लेकर आ गया। जाता है या यही पत्थर मार तेरा सिर फोंडू।'

उस व्यक्ति ने पत्थर उठाया और आगे बढ़ गया। आगे एक पंसारी की दुकान भी। उसने वह पत्थर उसे दिया तो उसे खूब ध्यान से देखने के बाद उसके बदले पांच किलो गुड़ देना स्वीकार किया। वह व्यक्ति कुछ आगे बढ़ा तो एक वैद्य के पास जा पहुंचा। वैद्य जी उस पत्थर की चमक से प्रभावित हुए और बोले, इसमें कोई औषधीय गुण तो मालूम नहीं पड़ता पर चमकदार कठोर पत्थर है। जड़ी बूटी को कूटने पीसने में काम आ सकता है। अगर चाहों तो इसका एक रुपया दे सकता हूं। आगे बढ़ा तो एक फलवाले के पास जा पहुंचा। उसने एक बार किसी धनवान को चमकदार हीरे की अंगुठी पहने देखता था। आज उसे लगा कि हीरा न सही चमकदार पत्थर ही सही। इसकी चमक देखकर कौन समझेगा कि हीरा है या साधारण पत्थर। यह सब सोच कर उसने पत्थर के बदले फलों का एक टोकरा या पचास रुपये देने की पेशकश की।

पत्थर लिए वह व्यक्ति चला जा रहा था कि सामने उसे सर्राफा बाजार दिखाई दिया। तो वह एक सुनार के पास जा पहुंचा। सुनार ने पत्थर को देखते ही पहचान लिया कि वह बहुमूल्य हीरा है जिसकी कीमत करोड़ों में है। परंतु वह उसे सस्ते में लेना चाहता था। पांच से शुरू कर वह उसकी कीमत धीरे-धीरे उसका मोल एक लाख तक ले गया पर जब वह किसी कीमत पर नहीं माना तो उसने तत्काल पुलिस को बुलाकर उस व्यक्ति को चोर बेईमान बताते हुए उनके हवाले कर दिया।

पुलिस अधिकारी उसे थाने ले गये और पूछताछ करने लगे कि उस जैसे साधारण आदमी वह हो नहीं सकता अतः उसने चुराया है। बात राजा तक पहुंची। उस व्यक्ति ने सारी सच्चाई उसके सामने रख दी तो राजा उस व्यक्ति और हीरे को लिए स्वयं उस विद्वान संत के पास जा पहुंचा। क्योंकि राजा समझ चुका था कि इसके पीछे जरूर बात हीरे से भी ज्यादा कीमती है। रास्ते में राजा ने उसे चेतावनी दी कि वह उसके राजा होने की बात संत को नहीं बताएगा। खैर वहां पहुंचकर उस व्यक्ति ने अभिवादन के बाद पूरी दांस्ता उस विद्वान् संत के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा, ''आज तो आपके लिए पत्थर ने मुझे फंसवा ही दिया होता। पर मुझे पत्थर नहीं जीवन का मोल जानना है। कृपया वह बताओं।' इस पत्थर और जीवन में बहुत समानता है। जो नहीं जानता कि यह हीरा वह इसका मोल कुछ भी लगा सकता है। पर जो जानता है उसके लिए यह बहुमूल्य है। पर कीमत सब अपनी अपनी समझ के अनुसार लगाते हैं। पर सत्य कोई-कोई जानता है। जो जान जाता है वह उसका सम्मान, सदुपयोग करता है।' राजा भी मर्म को समझ गया।

जीवन में सुखी रहने का एक ही सर्वोत्तम उपाय है कि शुभ काम व परोपकार काम करना और उनको निश्चित भाव से ईश्वर की न्याय-व्यवस्था के भरोसे छोड़ देना इससे बढ़कर सुखी रहने अन्य उपाय नहीं है। कारण ईश्वर पूर्ण न्यायकारी है, वह हमारे माता पिता के समान है, हम सब उसके बच्चे हैं। कोई भी माता-पिता, अपने बच्चे को कभी भी दुःखी देखना नहीं चाहता और उनको अच्छी शिक्षा देना चाहता है ताकि बच्चा सही रास्ते पर चलते रहे और कोई गलत काम भी न करे। परमात्मा तो हमारे माता-पिताओं का भी माता- पिता है। इसकी न्याय-वयवस्था में तो किसी प्रकार का अन्याय, दुःख, अत्याचार, अभाव किसी कारण के बिना हो ही नहीं सकता, फिर हमको किस बात का डर है। जब हमको पूरा विश्वास हो जायेगा कि ईश्वर के घर में या उसकी न्याय व्यवस्था में कोई अन्य, पक्षपात, भेदभाव या कोई जबरदस्ती नहीं है तो हमें शुभ काम करके फल देने का अधिकार उसी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। जैसे हम धन कमाकर तिजोरी में रख देते हैं कि यह रूपये हमारे सुरक्षित है। इन रुपयों को हम कभी भी जरूरत पड़ने पर काम ले सकते हैं। ठीक वैसे ही हमें शुभ कर्म करके, फल देने का पूरा अधिकार ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। जैसे तिजोरी में रखा रुपया सुरक्षित है और हमारी जरूरत पर काम आ सकता है, वैसे ही ईश्वर के सुपुर्द किया हुआ शुभकर्म भी सुरक्षित है और वह भी हमको सुखी बनाने में ही काम आवेगा। उन शुभ कर्मों को सुरक्षित रख देने पर हमें कभी भी दुःखी नहीं होना पड़ेगा। ऐसा हमें पूर्ण विश्वास रखना चाहिए।

हम मोटी भाषा में कहते हैं कि ''नेकी कर समुद्र में डाल।'' इसका भी यही अभिप्राय है कि अच्छे कर्म करो और फिर उसे भूल जाओ, कारण इन अच्छे कर्मों का फल हमें अच्छा मिलेगा ही, यह निश्चित है। इसलिए उन्हें भूलकर निश्चिन्त हो जाना ही अच्छा है। इसी प्रकार हम कहते हैं कि ''नेकी और पूछ-पूछ।'' इसका भी यही तात्पर्य है कि नेकी यानि शुभ कर्म या परोपकारी कर्म करने में पूछना क्या? यानि यह काम तो बिना पूछे ही कर लेना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि अच्छे शुभ कर्म हैं क्या? इसके लिए कुछ शुभ कर्म तो सर्वविदित हैं ही, जैसे अपने जीवन में ईमानदारी रखना किसी को धोखा न देना, किसी को दुःखी न करना। ईर्ष्या द्वेष, घृणा से सदा दूर रहना, सत्य बोलना, परोपकार कारना आदि। इसके उपरान्त और अधिक जानकारी के लिए ईश्वर ने हमें सृष्टि के आरम्भ में ही वेद-ज्ञान चार ऋषियों जिनके नाम हैं - अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा, इनके मुख से चार वेद जिनके नाम हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद, क्रमशः उच्चरित करवाये। उन वेदों में मनुष्य को क्या काम करने चाहिए क्या काम नहीं करने चाहिए। सब कुछ लिखा है। जीव का मुख्य व अन्तिम मोक्ष पाना है जो मनुष्य योनि से ही सम्भव है। मनुष्य को क्या-क्या काम करने से मोक्ष सम्भव है, यह सब वेदों में लिखा हुआ है। मनुष्य यदि वेदों में लिखे अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है तो उसको मृत्यु के बाद मोक्ष पाना निश्चित है। इसलिए मनुष्य को मोक्ष पाने के लिए वेदानुकूल चलना जरूरी है। इसलिए ईश्वर ने वेद ज्ञान मनुष्य उत्पत्ति के आरम्भ में दिया। यह शिक्षा का ग्रन्थ है।

हमारे समाज में धनवान व मध्यम वर्ग रहते हैं। धनवान अपने जीवन यापन के लिए पैसे का खुलकर उपयोग करते हैं तथा मध्यम वर्ग सोच-समझकर व्यव करता है। निर्धन व्यक्ति देखता हुआ मन मसोस कर रहा जाता है। उसके पास पैसे नहीं है इसलिए आंखों में पानी भरकर देख ही सकता है। रो भी नहीं सकता।

हम बात कर रहे हैं भोजन की। भोजन सामग्री के भाव आज आसमान छूने में लगे हुए हैं। इस समस्या की ओर किसी का ध्यान नहीं है। सब अपनी दौड़ में दौड़ रहे हैं। अभी तक राजनेता चुनावी दौड़ में थे। अब उन्हें आराम तो मिल गया मगर चैन की नींद १६ मई तक कम ही आएगी। इस हाल में वे गरी की ओर क्यों ध्यान देंगे? क्योंकि उन्हें चिंता खाए जा रही है हार-जीत की।

गरीबी प्रातः उठकर मजदूरी करने निकला है, जब कहीं उसे एक वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पता है। एक वक्त पेट पर पट्टी बांधकर ही सोना पड़ता है। गेहूं, चावल के भाव आसमान छू रहे हैं। गरीब तबका इतनी मात्रा में नहीं खरीद सकता कि पुरे साल भर की दो जून को रोटी का बन्दोबस्त हो जाए। हम जिसे गरीबों का सहारा समझते थे, वे वस्तुएं बे-स्वाद हो चली हैं। सर्वप्रथम आप प्याज को ही लें उसका भाव दिनरात के फर्क पर है। उसे धनवान भी सोच समझकर ही खरीदता है। एक समय था जब प्याज महंगा होने से केंद्र की सरकार के साथ-साथ कई राज्य सरकारों का ही पतन हो गया था। किन्तु आज किसी के कानों पर भी जूं तक नहीं रेंगती। क्या हमारे राजनेता बता पाएंगे कि यह प्याज जो गरीबों का मसीहा होता था, आज उनका दुशमन क्यों हो गया है। इसके भाव आसमान क्यों छू रहे हैं।

जहां तक सब्जियों का सवाल है उनका तो कहना ही क्या है? वे तो हर व्यक्ति से परे होने लगी हैं। दूसरा इन सब्जियों से पैसा कमाने वाले इन्हें गरीब तरीकों से इतना बढ़ावा देते हैं कि रातों रत धनवान बनना चाहते हैं। अपनाए जाने वाला तरीका आम आदमी को बीमारी का न्योता ही नहीं देता बल्कि बीमार कर देता है। सब्जियां उगाने वाले लोग आमजन को जहर खिला रहे हैं। अपने-अपनों को मृत्यु के आगोश में भेजकर क्या दिखना चाहते हैं यह समझ से परे की बात है। कमाना गलत नहीं हैं मगर गलत तरीके से कमाना गलत है। इस प्रकार के कार्य करने वाले भी कम आतंकवादी नहीं हैं। इनके साथ भी सरकार को वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जो आतंकवादियों व देशद्रोहियों के साथ होता है।

भोजन का स्वाद बिगाड़ने के लिए हर व्यक्ति जिम्मेदार है। जब तक जनता जिम्मेदारी को नहीं समझेगी तब तक भोजन बे-स्वाद ही रहेगा। हम सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं मगर इतना नहीं कि जितना हम उसे मानते हैं। हां सरकार की इतनी जिम्मेदारी जरूर है कि वह बढती हुई महंगाई की ओर ध्यान दें तथा उसे कम करने के उपाय करे। आम जनता भी अपनी जिम्मेदारी निभाए। सामान उतना ही खरीदा जाए जिससे काम चल जाए तथा इतना ही पकाया जाना चाहिए की वह पका हुआ सामान उसी समय खर्च हो जाए। आज हम प्रायः देखते हैं किसी के यहां समारोह या शादी वगैरह का कार्यक्रम होता है तो वहां व्यक्तियों द्वार भारी मात्रा में भोजन, पानी एवं अन्य वस्तुओं की अत्यधिक मात्रा में बर्बादी की जाती है जो महंगाई को निमंत्रण देती है कि आम आदमी पर भी पर भी बोझ डालती है, क्योंकि शादियों के सीजन में प्रत्येक चीजे बहुत अधिक महंगी हो जाती हैं और गरीब आदमी के हाथ से तो प्रायः दूर ही हो जाती हैं। थाली में उतना ही ले जितना खा सकें। झूठा फैकना बरबादी है जो महंगाई को निमन्त्रण देती है। इससे राष्ट्र का ही नुकसान है। राष्ट्र का नुकसान करने वाला देशद्रोही ही हो सकता है। इस लिए भाईचारा बनाते हुए हर बात का ध्यान रखें कि ऐसा कोई कदम न उठाएं जिससे हमें समाज में शर्मशार होना पड़ा। हमारा हर कदम देश की प्रगति व् खुशहाली के लिए उठाना चाहिए तभी हमारा भोजन का स्वाद स्वादिष्ट के लिए उठाना चाहिए तभी हमारा भोजन स्वादिष्ट हो सकेगा। अन्यथा तो वह बे-स्वाद ही रहेगा।

समस्त भारत में इमली समान पत्र वाले २०-४० फुट ऊंचे वृक्ष पर लगने वाले पंच रेखा युक्त, कच्ची अवस्था में हरे व पकने पर कुछ पीला या लालीपन लिए, शरद ऋतू में प्राप्त फल विटामिन सी सहित अनेक विटामिन व खनिज पदार्थों का भंडार होनें के कारण रोगप्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में अग्रणी गोलाकार, खट्टे फल स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष उपयोगी है।

अग्निमांध - तीन ग्राम आँवले का चूर्ण दिन में तीन बार लेनें से भूख ठीक से लगने लगती है।

अश्मरी (पत्थरी) - तीन ग्राम आँवले के चूर्ण में पांच-दस मि.ली. मूली का रस व पांच ग्राम शहद मिलाकर सुबह-शाम दो माह तक लगातार लेने से पत्थरी गलकर बाहर हो निकल जाती है।

आमवात (गठिया) - तीस ग्राम आँवले के चूर्ण में ५० ग्राम गुड़ व ३५० मि.ली. जल मिलाकर उबालें। १०० मि.ली. रहने पर उतार कर छान लें। इसकी दो मात्रा सुबह-शाम एक माह तक सेवन करने से गठिया में लाभ होता है।

उच्च रक्तचाप - ५० ग्राम आँवले का मुरब्बा सुबह-शाम खाली पेट खाकर २५० मि.ली. दूध पीने से रक्तचाप ठीक हो जाता है।

गर्भवती स्त्रियों के प्रातः वमन में - २५ से ५० आँवले का मुरब्बा दिन में दो बार लेने से गर्भावस्था में प्रातः वमन नहीं होता।

नेत्ररोग - एक-एक ग्राम हरड़, बहेड़ा व आँवले का चूर्ण मिलाकर रात को पानी में भिंगो दें। सुबह छानकर नेत्रों को धोने से नेत्र की लालिमा, एलर्जी, नेत्र ज्योति आदि में लाभ मिलता है।

मुख दुषिका, व्यंग झाईयां - आँवले के तीन से पांच ग्राम चूर्ण में पांच से दस मि.ली. गुलाब जल मिलाकर दिन में दो बार लेप करने से चेहरे की झाईया, कील मुहांसे आदि कुछ ही दिनों में दूर होकर चेहरा कान्तिवान हो जाता है।

मूत्रदाह - ५० मि.ली. आँवले के ताजे रस में पांच ग्राम मिश्री मिलाकर प्रातः सांय एक माह तक लगातार सेवन करने से मूत्रदाह ठीक हो जाता है।

शुक्रक्षय - एक ग्राम हल्दी तवे पर भून लें। इसमें एक ग्राम आँवले का चूर्ण व एक दो ग्राम मिश्री मिलाकर इसकी एक मात्रा सुबह खाली पेट गौदुग्ध के साथ सेवन करने से कुछ ही दिनों में शुक्र की अत्यंत वर्श हो जाती है।

श्वेत व रक्तप्रदर - स्त्रियों में ल्यूकोरिया व रक्तप्रदर अत्यंत मुश्किल से दूर होने वाली आम व्याधियां है। इसमें आँवलें का चूर्ण तीन ग्राम की मात्रा में पांच ग्राम शहद मिला कर सुबह-शाम सवा महीने सेवन करने से सफेद पानी व रक्तप्रदर ठीक हो जाता है।

स्वप्न दोष - ताजे ऑंवले का रस बीस मि.ली. में १० मि.ली. ठीक हो जाता है।

हैजा - तीन ग्राम ऑंवले के चूर्ण को पांच ग्राम शहद के साथ दिन में चाटने से खांसी ठीक हो जाती है।

ह्रदयरोग - १.५० से ७५ ग्राम ऑंवले के मुरब्बे में एक नग शु) चांदी का वर्क लगाकर सुबह-शाम करने से हृदयरोगी को लाभ मिलता है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

सिर दर्द स्वयं रोग नहीं है बल्कि यह अन्य रोगों का लक्षण है इसलिये पूर्ण निरीक्षण करने के उपरांत सिर दर्द का कारण जानकर उसे दूर करें, जिन-जिन कारणों से सिर दर्द होता है वे कारण तथा उनसे उत्पन्न सिर शूल की चिकित्सा आदि संक्षेप में ये हैं-
(क) पाचन विकार का सर दर्द - प्रायः अमाशय और आंतों की खराबी व कब्ज होने से भी सिर दर्द हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में कब्ज तो मुख्य रूप से पायी जाती ही है, पाचन विकार काफी समय तक रहने पर इस प्रकार का सिर दर्द हमेशा रहने लग जाता है तथा भोजन के कुछ समय पश्चात तो पेट गैस बनकर विशेष ही सर दर्द बढ़ जाता है, रोग पुराना हो जाने पर सिर में चक्कर आते हैं और आँखों के सामने अंधेरा व हाथ पैरों में शिथिलता के लक्षण भी पाये जाते हैं।

(ख) स्नायु दुर्बलता से उत्पन्न सिर दर्द - दिमाग और स्नायु कमजोर हो जाने पर मामूली सा दिमागी कार्य करने, मन के विपरीत बात होने पर, अधिक लिखने पढ़ने से सिरदर्द प्रारम्भ हो जाता है एवं रोगी को निद्रा आनी कम हो जाती है।

(ग) जुकाम (नजला) - नजला जुकाम हो जाने से सिरदर्द प्रारम्भ हो जाता है, सर के पिछले भाग में भी दर्द बराबर बना रहता है, यह नजल, जुकाम बिगड़ने पर माथे में भारीपन, बालों की सफेदी, नाक में मांस बढ़ना, सुखी हड़जुरी रहना आदि लक्षण प्रतीत होते हैं।

(घ) सूर्य की गर्मी से भी सिर दर्द हो जाता है।

(ङ) रक्चाप से भी सिर दर्द हो जाता है।

सिर में रक्त की अधिकता या कमी होने पर भी सिर में भारीपन व दर्द मालूम होता है, माथे व सिर की गद्दियों में दर्द, आंखों के सामने चिनगारियां सी जान पड़ना, ह्रदय में घड़घड़ाहट होना, किसी भी कार्य में मन न लगना, कनपटी की नसें तथा स्नायु फड़कना, देह लाल पीत होना निद्रा कम आना, कमजोरी विशेष मालूम होना।
(च) पुराना कीटाणुजनक रोग रहना जैसे - सुजाक आंत्रिक ज्वर, मसूरिका बिगड़ना पर भी सिर दर्द हुआ करता है। रोगी की वृष्टि कमजोर हो जाती है, प्रारम्भ में दर्द मामूली होता है, परन्तु धीरे-धीरे बढ़ता जाता है रोगी को सुबह एवं रात्रि को त्रिफला चूर्ण, गोदन्ती ईसबगोल की भूसी, गर्म दूध के साथ दें। यह हर प्रकार की स्नायु पीड़ा, दांत दर्द, पोलिए का दर्द, कमर दर्द प्रदर कष्ट से आना जुकाम से पैदा सर दर्द और अंगो का टूटना महसूस हो, बुखार आदि का प्रसिद्ध योग है।

अधिक घी मक्खन से बने भोजन तथा अधिक खाने और सारे दिन बैठने से भी सिर दर्द हो जाता है। इस प्रकार का सिर दर्द प्रातः काल के समय हुआ करता है, एक नींबू का रस पानी में मिलाकर बिना नमक, शक्कर (खांड) के पिलाते रहने से पित्ताशय में उत्तेजना पैदा होकर सिर दर्द शांत हो जाता है। इस योग से शरीर से वायु रोग भी शांत होते हैं।

यदि रक्त में जमने की शक्ति की कमी से सर दर्द हो तो यह सर दर्द प्रातः काल के समय बहुत कष्टदायक होता है और ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता है दर्द कम होता जाता है, शरीर पर पित्ती से उछाल जाती है, रोगी का चेहरा पपोटे फुले हुए शोथयुक्त हो जाते हैं। यह कष्ट सर्दियों में अधिक होता है, धनिये की मिंगी १०० ग्राम, शक्कर १०० ग्राम, काली मिर्च २० ग्राम के लड्डू बनाकर डेढ़ तोला दें, इस रोग की सफल दवा है।

अधिक रक्तचाप से उत्पन्न सिर दर्द में अजवायन सेक कर खाने से दर्द दूर हो जाता है, रक्तचाप की कमी से होने वाला सिरदर्द हो तो सर्पगंधादि वटी सेवन करें।
अधिक भोजन खाने और अजीर्ण होने से पैदा सिर दर्द में भोजन के पूर्व हिंग्वाष्टक चूर्ण दें।
पगड़ी बांधने, सिर पर अधिक बाल होने तथा सिर में जुऐं पड़ने पर भी सिर दर्द हो जाता है। दांत सड़ने, कान में कष्ट, अधिक पद्द्पान, कुनेन और लोहे की गर्म दवायें अधिक खाने, क्रोध, चिंता से भी सिर दर्द हो जाता है। अजवायन के पानी से सिर धोना, दांतों की पीड़ा हो तो फिटकरी के पानी से कुल्ला करना, अजवायन सेंक कर काला नमक मिलाकर दिन में तीन बार फंकी दें।

सूतशेखर रस, प्रवाल पिष्टी, स्वर्ण मक्षिक भस्म अग्निकुमार रस, शिरःशूल ब्रज रस सर दर्द में बहुत अधिक लाभदायक है।
तेज धुप में फिरने से सिर दर्द में आलू बुखारे २ से ८ तक खिलावें, अधिक सर्दी लग जाने से पैदा सिर दर्द में चाय, काफी पिलावें।
दिमाग व नाक में कीड़े पड़ जाने पर रोगी को कष्टदायक दर्द होता है, सूंघने की शक्ति कम हो जाती है, तालू में नासूर सा हो जाता है नाक एवं मुंह से गन्ध आने लग जाती है।

पित्तज सिर दर्द - इस प्रकार का सिर दर्द गर्म भोजन, पेय की अधिकता, समय पर भोजन न करना, एवं यकृत विकार से सिर दर्द हो जाता है। सिर में सख्त दर्द होना जी मिचलना, मुंह से पानी सा आना, मुंह का स्वाद कड़वा होना अदि पित्तज सर दर्द के लक्षण है।

चिकित्सा - रोगी की गोदन्ती भस्म एवं यवक्षार खिलाकर सिर दर्द को दूर करें तथा ठीक निदान करने के उपरांत ही चिकित्सा करें।

उपदंश व सुजाक से पैदा सिर दर्द रात्रि के समय अधिक होता है, हड्डियों के टूटने जैसा महसूस हो तो निश्चय ही यह सिर दर्द उपदंश एवं सुजाक से हुआ है। चन्दन तेल बतासे में तीन बूंद डालकर धारोष्ण दूध (गाय या बकरी का) के साथ दें।

अगर सिर दर्द दृष्टी कमजोरी होने के कारण से हुआ है तो रोगी को सही नम्बर का ऐनक लगानी चाहिए।
वृक्कों में पुराने शोथ के कारण सिर के निचले भाग में हर समय दर्द हो, रात्रि के समय कई बार मूत्र आता हो, उसके पश्चात भी शंका रहती हो उसमे एल्युमिनियन आता हो, सिर दर्द बड़ी आयु एवं बुढ़ापे में, वृक्कों में कमजोरी, धातु की क्षीणता, वृक्कों में शोथ के कारण होता है, इस प्रकार के सिर दर्द में काले तिल, गुड़, रसाथ की पपड़ी बनाकर दो-दो तोला सुबह एवं रात्रि को सोते समय देवें।

मलेरिया ज्वर से सिरदर्द बहुत जोर से होता है। यह सिर दर्द झटके के साथ हो तो रोगी को सौराष्ट्री भस्म, करंज के बीज नीम की पत्ती में घोटकर दिन में तीन बार दो-दो गोली गर्म पानी से खिलाकर इस रोग के विष को शरीर से निकालें। गुलाब अर्क या नौसादर अर्क पानी में मिलाकर कपड़ा भिगोकर सिर पर रखें। नौसादर भस्म तीन घण्टे से गर्म पानी द्वारा दें।

यदि मस्तिष्क में रसौली व गांठ के कारण सिर दर्द हो तो राई का कनपटियों पर लेप करें, तारपीन का तेल दो-दो या तीन-तीन बूंद नाक में डालने से नाक के कीड़े निकल जाते हैं और सिर दर्द से आराम हो जाता है, गर्मी की अधिकता से उत्पन्न सिर दर्द में चन्दन, कपूर, खस के अर्क में घिसकर माथे तथा कनपटियों पर लेप करें नींबू का शर्बत तथा आमले का मुरब्बा तथा छोटी इलायची खाने को दें।

स्वर्ण मक्षिक भस्म दिमागी कमजोरी नजला जुकाम आदि रोगों से पैदा सिर दर्द की सफल दवा है। इसको कुछ समय तक खिलाने से दिमागी तथा मरदाना कमजोरी दुरी होकर पुराने से पुराना सिर दर्द को आराम हो जाता है।

जब सिर झुकाने से सिर दर्द बढ़ जाये तो समझ लो कि स्नायु दर्द के कारण सिर दर्द है।
जब केवल माथे में दर्द हो तो मलेरिया का विष (साइनोसाइट्स) नाक के अन्दर शोथ का सन्देह करें तथा जब सिर दर्द दोनों तरफ हो तो विषैले प्रभाव का लक्षण है।

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प्राचीन काल में दही को पूर्ण आहार माना गया है जिसमें आहार के सभी घटक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। दूध से बना दही स्वस्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है। पेट के रोगियों तथा पाचन शक्ति के कमजोर व्यक्तियों के लिए दही विशेष लाभप्रद है। आयुर्वेद में दही को वात, कफ दोष नाशक तथा मूत्रवर्धक कहा गया है। शास्त्रों में दही को दीर्घ यानि आयुवर्धक बताया गया है।

पौष्टिकता की दृष्टि से दूध से दही उत्तम माना गया है। इसमें कैल्शियम, प्रोटीन, विटामिन-बी-१२ तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं। दही के अतिरिक्त छाछ व मट्ठा भी गुणकारी माना गया है। इनमें चिकनाई का अंश कम मात्रा में रहता है और सुपाच्य होने से हजम करने में अमाशय को अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। जिन व्यक्तियों को दूध वायु करता हो, दस्तावर हो, उनको दही लेने के लिए डॉक्टर परामर्श देते हैं। आयुर्वेद ने तक्र या मट्ठा की तुलना अमृत से की है तथा यह बताया कि उपचार के पश्चात् पुनः रोग की उत्पत्ति नहीं होती है।

दूध में थोड़ा-सा दही मिला देने से सारा दूध दही में बदल जाता है। दूध से दही बनाना एक ऐसी रासायनिक क्रिया है जो एक विशेष बैक्टीरिया रो कैसीन प्रोटीन के बीच होती है। दूध में केसीन नाम का प्रोटीन सौंदर्यवर्धन के लिए किया जाता रहा है। सिर धोने से पूर्व बालों में दही की मालिश करने तथा सिर धोने से सिर की रूसी कम होती है तथा बाल साफ-सुन्दर चमकीले व मुलायम रहते हैं।

दस्तों में एक कप दही में दो चम्मच इसबगोल की भूसी मिलाकर लेने से दस्त रुक जाते हैं। जिन व्यक्तियों को बंधा दस्त ना आता हो उनको केले का रायता अति लाभदायक है। अब प्रयोगों से भी सिद्ध हो रहा है कि दिल के मरीजों के लिए दही का प्रयोग उत्तम रहता है। यह रक्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा घटाता है।

दही व बेसन में एक चुटकी हल्दी मिलाकर उबटन करने से त्वचा पर निखार आता है। दस्त संग्रहणी अतिसार जैसी आंत की बिमारियों में इसका उपयोग लाभदायक है। इससे आतों में पाये जाने वाले हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। यह श्वास, विषम ज्वर व पीनस से भी उपयोगी है। खाना खाने के बाद दही या छाछ का सेवन करने के दो घण्टे बाद पेट हल्का हो जाता है तथा स्वस्थ अनुभव करते हैं। अतः दही स्वस्थ रहने के लिए सहयोगी होकर आयुवर्द्धक है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

वर्तमान में जीवनशैली ठीक नहीं होने के कारण अनेक लोगों को गैस, अफारा, वायु-विकार आदि से सम्बन्धित स्वास्थ्य समस्याएं बनी रहती है। इस विषय में कुछ घरेलू उपचारों का प्रयोग विशेष लाभदायक रहता है। अपने अनुकूल प्रयोग इनमें से करके देखें-
पेट में गैस बनने पर इलायची के 4-5 दाने पीसकर दिन में 3-4 बार गरम पानी के साथ लें। केवल इलायची के चूसने से भी आराम मिल जाता है।

कच्चे नारियल का पानी पीने से भी पेट में गैस से आराम मिलता है।

गन्ने के ताजा रस को उबालकर उसमें आधा नीम्बू निचोड़ लें तथा उसमें थोड़ा सा काला नमक तथा थोड़ा सा अदरक का रस मिलाकर सेवन करें। इसमें वायु विकार, अफारा शीघ्र समाप्त हो जाता है तथा गैस नहीं बनती।

पेट में गैस की शिकायत रहने पर दाल या सब्जी में कुछ दिन तक सौंफ का छोंक लगाकर प्रयोग करें।

लहसून हर घर में रहता ही है। लहसून के सेवन से पेट में गैस नहीं बनती। सुबह खाली पेट लहसून की 3-4 कलियाँ अदरक के साथ लें, तो तुरन्त लाभ होता है।

एक लहसून की कलियां छील लें। इनको बीज निकाली हुई 4-5 मुनक्काओं में लपेट लें और भोजन के बाद इनको चबाकर निगल लें। इससे पेट में रूकी हुई वायु तत्काल निकल जाएगी।

अंगूर के रस का सेवन करने से भी पेट की गैस में राहत मिलती है।

टमाटर का सेवन गैस की शिकायत को दूर करके पाचन शक्ति को बढाता है। भोजन के साथ सलाद के रूप में इसका प्रतिदिन प्रयोग करना चाहिए। सलाद के साथ साधारण नमक की बजाय काले नमक का प्रयोग भी किया जाए तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

जिन लोगों के पेट में गैस बनती है, उन्हें मिश्री के साथ पुदीना की आठ-दस पत्तियाँ चबाकर खानी चाहिएँ। इससे पेट हल्का रहेगा तथा भूख भी खुलकर लगेगी। भोजन के साथ पुदीना की चटनी का प्रयोग भी करें तो अच्छा रहता है।

भोजन करने से पहले या बाद में पेट में गैस बनने पर काली मिर्च का दो-तीन ग्राम चूर्ण फांक लें और ऊपर से नीम्बू का रस मिला हुआ हल्का गरम पानी पी लें। इससे पेट और अपच की शिकायत दूर होगी।

वायु विकार के कारण यदि सिर में दर्द हो रहा तो चाय में काली मिर्च डालकर सेवन करने से तुरन्त आराम मिलता है।

काली मिर्च के चूर्ण में अदरक का रस और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से पेट दर्द और गैस से राहत मिलती है।

हरड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना भी गैस से राहत देता है।

एक मीठा सेवफल लेकर उसमें दस ग्राम लौंग चुभो दें तथा इस फल को ठंडे स्थान पर या फ्रिज में रख दें। दस दिन बाद लौंग निकालकर 2-3 लौंग प्रतिदिन पानी से ले लें। पेट की गैस से राहत मिलेगी। चावल व बादी की चीजें न खाएं।

पेट में गैस बनने पर मूली को थोड़ा काला नमक लगाकर चबाकर खाएं। ऊपर से एक गिलास पानी पी लें। इससे भी राहत मिलेगी।

अदरक छोटे-छोटे टुकड़ों पर नमक छिड़ककर रख लें। दिन में तीन-चार बार एक-दो छोटे टुकड़े चूसते रहने या चबाते रहने से गैस की पीड़ा से मुक्ति मिलती है तथा शरीर में भारीपन नहीं लगता। मन प्रसन्न रहता है तथा भूख भी अच्छी लगती है।

बच्चे और बड़े दोनों के पेट और आँतों के ऐंठनयुक्त दर्द के लिए अजवाइन बेदन उपयोगी है। आँतों में संक्रमण (इंफेक्शन) और अपच हो तो एक चम्मच (5 ग्राम) अजवाइन थोड़ा सा नमक मिलकार गर्म पानी के साथ लें। बच्चों के लिए आधा चम्मच अजवाईन बहुत है।

तुलसी की पत्तियाँ पीसकर पीने से भी गैस या अपच में तुरन्त आराम मिलता है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

बहुत पहले की बात है कि मथुरा में 'राजा बाबू' नाम के एक सेठ रहते थे। धर्म की ओर उनकी बहुत रूचि थी। कितने ही मन्दिर उन्होंने बनवाए। एक पाठशाला बनवाई जिसमें विद्वान सन्यासी पढ़ते थे। राजा बाबू का एक और सेठ लक्ष्मीचन्द्र से झगड़ा था, जो जमीन के सम्बन्ध में था। झगड़ा बढ़ते-बढ़ते न्यायलय में पहुँचा। अभियोग चलने लगा। कई वर्ष अभियोग चलता रहा। राजा बाबू यह अभियोग भी लड़ते थे और अपने घर का काम भी करते थे। उनकी बनवाई हुई पाठशाला में प्रत्येक रात्रि को कथा होती थी। राजा बाबू सवर्दा उसे सुनने जाते। कथा सुनते-सुनते संसार में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अपने गुरु से पूछकर वे पाठशाला में रहने लगे। एक कमरे में पड़े रहते थे। खाना घर से आ जाता; वे खा लेते और जाप करते रहते। बहुत समय बीत गया।

एक दिन उन्होंने गुरु को कहा- ''यदि उनकी कृपा हो तो संन्यास ले लूं।'' गुरु ने कहा- ''नहीं राजा बाबू, अभी तुम संन्यासी के योग्य नहीं हुए।'' राजा बाबू ने सोचा, 'मैं घर नहीं जाता परन्तु मेरी रोटी तो घर से आती है। अब घर से रोटी नहीं मँगाऊँगा। यहीं एक नौकर रख लूँगा; वही बना दिया करेगा। ' ऐसा ही किया उन्होंने और फिर कुछ दिन बाद यह सोचकर कि अब तो घर से कोई सम्बन्ध नहीं, वे फिर बोले- ''गुरु महाराज! अब यदि संन्यास ले लूँ तो?'' गुरु ने कहा- ''नहीं, अभी समय नहीं आया।'' राजा बाबू ने सोचा- ''मैं अभी नौकर से रोटी बनवाता हूँ, इसलिए गुरु जी नहीं मानते। यह भी छोड़ दूँ। भिक्षा माँगकर खाऊँगा और आराम की सब वस्तुएँ भी छोड़ दूँ।' तब ऐसा ही किया उन्होंने। सुबह के समय नगर में जाते, भिक्षा करके लाते और सारा दिन आत्म-चिंतन में मस्त होकर बैठे रहते। पर्याप्त समय बीत गया। फिर प्रार्थना की गुरु से- ''गुरु जी, मुझे संन्यास दे दीजिए!'' गुरु ने सोचकर कहा- ''अभी नहीं राजा बाबू!'' और राजा बाबू आश्चर्यचकित कि अब क्या त्रुटि रह गई? सोचकर देखा और फिर अपने-आपको कहा- 'मैं सभी जगह माँगने गया हूँ, परन्तु सेठ लक्ष्मीचन्द्र के यहाँ माँगने नहीं गया। इसलिए शत्रुता की पुरानी भावना अब भी मेरे ह्रदय में बसी हुई है। इस भावना को छोड़ देना होगा।' और दूसरे दिन प्रातः काल ही सेठ लक्ष्मीचन्द्र के मकान पर पहुँच गये। जाकर अलख जगाई- '' भगवान् के नाम पर भिक्षा दे दो!'' सेठ लक्ष्मीचन्द्र के नौकर ने राजा बाबू को देखा तो दौड़े-दौड़े सेठ के पास गए; हाँफते हुए बोले- '' सेठ जी! राजा बाबू आपके यहाँ भीख माँगने आया है।''

लक्ष्मीचन्द्र आश्चर्य से बोले- ''यह कैसे हो सकता है? तुम्हें भ्रम हुआ है। कोई और होगा वह। '' नौकरों ने कहा- '' नहीं, सेठ जी! यह राजा बाबू ही है। यदि आप कहें तो खाने में विष मिलाकर दे दें। सर्वदा के लिए झगड़ा समाप्त हो जाएगा।'' लक्ष्मीचन्द्र उच्च स्वर में बोले- ''नहीं मुझे देखने दो। '' मकान के द्वार पर आकर देखा कि राजा बाबू झोली पसारे खड़े हैं। राजा बाबू ने उन्हें देखा और झोली फैलाकर बोले - ''सेठ जी ! भिक्षा'' लक्ष्मीचन्द्र दौड़कर आगे बढे, चिल्लाकर बोले- ''राजा! '' राजा बाबू को अपनी छाती से लगा लिया उन्होंने। राजा बाबू ने झुककर उनके चरणों का स्पर्श किया। लक्ष्मीचन्द्र भी उनके पैरों में जा गिरे; बोले- '' राजा बाबू! ऊपर चलो, मेरे साथ बैठकर खाना खाओ।'' राजा बाबू बोले- '' नहीं सेठ जी! मैं तो भिखारी बनकर आया हूँ, भीख डाल दो मेरी झोली में! '' 

उसी समय एक नौकर भागता हुआ आया; बोला- ''सेठ जी तार! देखिए, इस तार में क्या लिखा है।'' लक्ष्मीचन्द्र ने खोकर पढ़ा। तार राजा बाबू के बेटों का था; कलकत्ता से आया था- ''हमारे पिता राजा बाबू का कहीं पता नहीं लगा। भूमि का झगड़ा अभी समाप्त नहीं हुआ, किन्तु इस जमीन को लेकर हम क्या करेंगे? इस तार द्वारा हम भूमि से अपना अधिकार वापस लेते हैं। हमारे पिताजी नहीं हैं। आप कृपा हमारे पिताजी बनिये। हमें अपनी रक्षा में लीजिए!'' लक्ष्मीचन्द्र रोते हुए बोले- '' नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा! उन्हें लिखो कि उनकी भूमि उनकी है, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं पिता बनकर उनकी रक्षा करूँगा। आज से केवल राजा बाबू के नहीं, मेरे भी बेटे हुए। ''पश्चात् राजा बाबू भिक्षा लेकर मुड़े तो देखा-सामने गुरूजी खड़े हैं, हाथ में गेरुए वस्त्र लिये हुए। राजा बाबू को छाती से लगाकर बोले- '' अब तू संन्यास के योग्य हुआ राजा बाबू ! अब ये कपडे पहन!''

नैन नशीले हों अगर तो सुरमे दी की लोड फिल्म के गीत अंबरसरिया की ये पंक्तियाँ बार-बार आकर्षित करती हैं। हम सब सुंदर व आकर्षक दिखने के लिए बनाव-श्रृंगार करते है। सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग करते हैं। विभिन्न प्रकार की क्रीम, पाउडर व दूसरी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। शरीर की दुर्गंध को दबाने के लिए शरीर पर इत्र मलते हैं अथवा अन्य सुगंधित द्रव छिड़कते हैं। आँखे के सौंदर्य में वृद्धि करने के लिए काजल लगाते है। उपरोक्त पंक्ति में सही ही तो कहा गया है कि यदि नायिका की आँखे मादक हों तो उसे काजल लगाने की क्या जरूरत है। वास्तव में हमरे शरीर के विभिन्न अंगो-उपांगों का जो स्वाभाविक प्राकृतिक सौंदर्य है उसके सामने बाह्य उपचार व्यर्थ हैं। तो फिर सौंदर्य प्रसाधनों का क्या औचित्य है? रोग की अवस्था में औषधि का प्रयोग अनुचित नहीं लेकिन शुद्ध-सात्विक भोजन व स्वास्थ्य ने नियमों की उपेक्षा करके मात्र औषधियों के बल पर शरीर को स्वस्थ बनाए रखने का प्रयास हास्यास्पद ही नहीं घातक भी है। वास्तव में शरीर में जब कोई छोटी-मोती बाह्य कमी या दोष हो तो उसे बाह्य सौंदर्य प्रसाधनों द्वारा दूर किया जा सकता है लेकिन संपूर्ण व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का आधार सौंदर्य प्रसाधन नहीं हो सकते।

सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से मन की घातक नकारात्मक वृत्तियों तथा उनसे उत्पन्न अनुचित व्यवहार को न तो दबाया जा सकता है और न उसमें सुधार ही किया जा सकता है। वैसे भी हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व का मुश्किल से दस प्रतिशत भाग ही हमारी कद-काठी व नैन-नक्श अथवा बाह्य व्यक्तित्व द्वारा निर्धारित होता है। शेष नब्बे प्रतिशत व्यक्तित्व तो आंतरिक व्यक्तित्व ही होता है जिसका विकास अनिवार्य है। आज मेकअप की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है और इसमें लगातार वृद्धि होती जा रही है। सौंदर्य प्रसाधनों द्वारा नायिका के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का प्रयास किया जाता है। आज भी भाषा में कहें तो उसकी आँखों को अधिकाधिक सेक्सी बनाने व दिखाने का प्रयास किया जाता है। एक युवा नायिका की आँखों में मादकता होना स्वाभविक है लेकिन वो मादकता आंतरिक भावों की अभिव्यक्ति होती है। आँखों का वास्तविक सौंदर्य उनके भावों में है सुरमे में नहीं। यदि युवा नायिका की आँखों में मादकता नहीं, एक माँ की आँखों में वात्सल्य नहीं और हम सब की आँखों में वात्सल्य नहीं और हम सब की आँखों में करुणा व सवेंदशीतला नहीं तो आँखों का बाह्य सौंदर्य व्यर्थ है। आँखों की संवेदनशीलता, करुणा, वात्सल्य, मादकता अथवा जितने भाव है मन से उत्पन्न होते है अतः मन का सौंदर्य सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

अतः मन के सौंदर्य पर अधिक ध्यान देना अपेक्षित है। एक माँ अपनी ममता अथवा वात्सल्य को शब्दों में नहीं अपने व्यवहार से व्यक्त करती है और उस व्यवहार का कारण होता है मन की सोच। मन में जैसी सोच होगी वैसी ही हमारे व्यवहार में परिलक्षित होगी। अतः शरीर की अपेक्षा मन को सुंदर बनान अधिक जरूरी है। तरबूज को मीठा बनाने के लिए उसमें स्वास्थ्य के लिए घातक सैक्रीन के इंजेक्शन लगाने के बजाय उसे प्राकृतिक अवस्था में खाना ही ठीक है। व्यक्तित्व के संपूर्ण व सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य है आंतरिक सौंदर्य का विकास जो व्यक्ति के नैतिक व चारित्रिक विकास में ही निहित है। हमने सुकरात, महात्मा गांधी अथवा मदर टैरेसा का मूल्यांकन कभी उनके बाह्य व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर नहीं अपितु उनकी आत्मा अथवा मन के सौंदर्य को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। अपेक्षित यही कि पर हम बाह्य सौंदर्य के साथ-साथ आंतरिक सौंदर्य के विकास पर अधिक ध्यान दें। आंतरिक सौंदर्य के समक्ष बाह्य सौंदर्य कितनी देर टिक सकेगा।

* पढने-पढाने की सार्थकता तभी है, जब आदमी की समझ बढे।
* विचार शक्ति ही हमें शक्तिशाली कमजोर, सक्रिय-निष्क्रिय, मित्र-शत्रु आदि बनाती है।
* यदि हमारे विचार उन्नत होंगे तो हमारे कर्म भी श्रेष्ठ होंगे।
* हर व्यक्ति अपने मन में उठ रहे विचारों का प्रतिबिम्ब ही होता है।
* जन्म से कोई व्यक्ति महान नहीं होता। मनुष्य की महानता उसके कर्मों से होती है।
* संस्कृत से संस्कारों का निर्माण होता है।
* दिव्य संस्कारों से मनुष्य का गौरव बढता है।
* भारत की संस्कृति का आधार विश्‍व बन्धुत्व की भावना है।
* इतिहास में विश्‍व-पटल पर भारत की पहचान विश्‍व बन्धुत्व की भावना के आधार पर रही है।
* चिन्तन करना मान-मस्तिष्क का प्रधार गुण है।
* सकारात्मक चिन्तन से ही मानव महान बन सकता है।
* विचार ही मानव की प्रेरणा शक्ति होती है।
* सकारात्मक सोच हमें सक्रिय तथा नकारात्मक सोच हमें निष्क्रिय बनाती है।
* संस्कार हीन विचारों के कारण मनुष्य के अन्तःकरण में विकृतियाँ जन्म ले लेती हैं।
* वर्तमान को प्रसन्नता के साथ जीना सीखें। जीवन का हर दिन बची हुई शेष जिन्दगी का पहला दिन होता है।
* जब हम रात्रि में विश्राम के बाद प्रातः सोकर उठते हैं तो हमारा हर दिन बची हुई शेष जिन्दगी का पहला दिन होता है।
* जो बीत चुका उसके बारे में पछताना नहीं चाहिए और आने वाले समय का क्या भरोसा, हाथ लगेगा भी या नहीं।
* सूर्योदय से पूर्ण ब्रह्म मुहूर्त में व्यक्ति जितना अच्छा चिन्तन कर सकता है, उतना दूसरे समय में नहीं कर सकता। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यही समय सर्वोत्तम है।
* हर व्यक्ति को खुश करने का प्रयास करना अवश्य ही असफल होने की कुंजी है। सभी को तो परमात्मा भी खुश नहीं कर सकते।
* हमें न तो अध्यात्मिकता की उपेक्षा करनी चाहिए और न ही भौतिक सुख-सुविधाओं की।
* मनुष्य को सदा सम्मानपूर्वक और धर्मपूर्वक धन कमाना भी चाहिए और आवश्यकतानुसार उसका संग्रह भी करना चाहिए, लेकिन अधर्मपूर्वक कभी नहीं।
* सुख-दुःख कोई भी स्थायी नहीं होते। इनका आना-जाना तो लगा ही रहता है।
* हमारे व्यक्तित्व और चरित्र में जितना विकास होगा। उसी विकास के अनुपात में हमें सब प्रकार की सफलताएँ भी मिलेंगी।
* ऐश्‍वर्य या उन्नति चाहने वाले मनुष्यों को नीन्द, तन्द्रा, डर, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता इन छह अवगुणों को त्याग देना चाहिए।
* मनुष्य को कभी भी काम से, लोभ से या जीवन रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। क्योंकि धर्म नित्य है और सुख अनित्य। जीव नित्य है तथा जीवन का हेतु अनित्य है।
* जरूरतमन्दों की आवश्यकता और अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे का सहयोग करने वाले व्यक्तियों को कभी निराश नहीं होना पड़ता।
* सुख-दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसे सुख चाहिए, उसे दुःख भी लेना होगा।
* सामान्य लोग पसन्दगी या नापसन्दगी की पृष्ठभूमि से कर्म करते हैं और यदि पसन्दगी का उद्देश्य पूरा न हो तो दुःख महसूस करते हैं। सुख का आधार है निष्काम कर्म।
* तनावमुक्त रहने का सरल उपाय है कि हम इस सच पर विश्‍वास कर लें कि हमारी अपनी इच्छाओं की अपेक्षा ईश्‍वर की इच्छा महान होती है।
* यदि मनुष्य अपनी योग्यता और क्षमता को समझकर उन्हें जाग्रत करने की कला भी सीख ले तो निश्‍चय ही मनुष्य जाति की यह दुर्दशा न हो जो आज हो रही है।
* वास्तविक सुख स्वार्थपरता को नष्ट करने में है और इसे अपने सिवा कोई दूसरा व्यक्ति कर ही नहीं सकता।
* जप और जाप में अन्तर है कि जप कल्याण भाव से होता है, जबकि जाप स्वार्थ भाव से होता है। भले ही वह स्वार्थ कितना ही श्रेष्ठ व पवित्र क्यों न हो।
* अच्छे समाज के निर्माण के लिए लोगों को जागरूक होना चाहिए।
* मनुष्य वही काम करता है, जिसे करने के लिए उसका दिमाग निर्देश देता है।
* आज का मानव दानव बन गया है।
* आज विज्ञान का विकास अभिशाप बन गया है।

समाज निर्माण की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई जनता है कि व्यक्ति और समाज का उज्जवल भविष्य इसी बात पर निर्भर है कि समाज में में श्रेष्ठ परम्पराएँ प्रचलित हों। समाज की जैसी भी स्थिति व् परम्पराएँ होती है, उसी के अनुरूप व्यक्तियों का बनना और ढलना जारी रहता है। यदि हमें ने समाज नए समाज का निर्माण वस्तुतः करना होतो उसके मूल अर्थात् विवाह पर अत्यधिक ध्यान देना होगा। उसमे जो विषयमत, विश्रृंखलता एवं विकृति उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारना होगा।

आज जिस ढंग से, जिस आडम्बर अहंकार व तामसी वातावरण में विवाह-शादियाँ होती हैं, उन्हें देखकर किस भी पारकर यह नहीं कहां जा सकता कि यह दो आत्माओं के आत्मसमपर्ण के लिए आयोजित सर्वमघयज्ञ का धर्मानुष्ठान है। अश्लील गीत, गन्दे नाच, पान, बीड़ी, शराब की धूम देखकर उसकी संगति यज्ञ से कैसे बढ़ाई जाए। यह हल्का-फुल्का धर्म कृत्य मानव जीवन की एक साधारण सी आवश्यकता है पर वह इतना खर्चीला और उलझन भरा कदापि नहीं होना चाहिए की आर्थिक दृष्टि से दोनों ही गर्त्त में चले जाएं।

समस्या तो ओर भी भयानक तब सिद्ध होती है जब वर पक्ष की ओर से मोटी रकम दहेज़ के रूप में माँगी जाती है, उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाता है। यह माँग आमतौर पर से इतनी बड़ी होती है कि कमजोर आर्थिक स्थिति कन्या का पिता छाती पर पत्थर रखकर ही उसकी पूर्ति कर सकता है। आज जो लड़के बनकर दहेज़ माँगता है, कल उसे भी अपनी लड़की का विवाह करने पर उसी चक्की पिसना पड़ता है। इस दुर्गति को जानते हुए भी न जाने क्यों हमारी आँखे नहीं खुलती।

कन्या पक्ष वाले भी अपने ढंग से लगभग दहेज़ से मिलती-जुलती घाट चलते हैं। वे चाहते है कि उनके दरवाजे पर बेटे वाले अपनी अमीरी का प्रदर्शन करें ताकि उसे यह शेखी जताने का मौका मिले कि उसकी लड़की कितने अमीर घर में ब्याही गई है। इस प्रकार दोनों ही पक्ष न्यूनाधिक मात्रा में इस पाप के भागीदार होते हैं और विवाह का स्वरुप सब मिलाकर एक प्रकार से सामाजिक दिखावा जैसा बन जाता है। जिसके ह्रदय में देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के प्रति तनिक भी दर्द है, उसे यही सोचने को विवश होना पड़ता है कि इस दिखावे का जितनी जल्दी अंत हो उतना ही अच्छा है। अब समय आ गया है, इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए।

उपाय उनके हैं, रास्ते बहुत हैं। आवश्यकता उन पर चलने के लिए प्रयास करने की और ऐसे उदाहरण प्रस्ततु करने की है, जिनका अनुकरण करने के लिए सर्वसाधारण का उत्साह जगाया जा सके। प्रबुद्ध वर्ग का उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य है कि अपने समय की दुष्प्रकृतियों से जूझने और सत्प्रवर्तियों की प्रतिष्ठापना करने के लिए समय निकला जाए, जिससे अपने समय की इस सबसे कष्टकारक दुष्टप्रवर्ति का उन्मूलन सम्भव हो सके। पहल लडके वाले को करनी चाहिए। यदि अपने माता-पिता सुयोग्य लड़के का विवाह बिना दहेज़ करने को तैयार हों तो लड़की वाले उसका सहज स्वागत करेंगे और जिनकी अर्थीक स्थिति दुर्बल है वे इस सुविधा के लिए वे अपना भाग्य सराहेंगे। युग की यह माँग व पुकार आज की घड़ी में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है, उसे पूरा करने के लिए हर एक को पूरी तत्परता व निष्ठा के साथ प्रयत्न करना चाहिए।

जिस प्रकार किसी व्यंजन को स्वादिष्ट व सरस बनाना चाहते हो तो वह घी के बगैर नहीं बन सकता। उसमें चीनी, बादाम, किसमिस, काजू, पिस्ता चाहे जितना भी डालें, फिर भी घी डालना अतिआवश्यक है। जैसे यदि हम हलवा व लड्डू बनाना चाहते हैं इसमें चाहे जितनी चीनी, चाहे जितना मेवा डाल दें किन्तु घी डाले बगैर वह चीज स्वादिष्ट व सरस नहीं बनेगी। घी डालने के बाद अन्य वस्तुएं जो डाली गई हैं उनका भी स्वाद महत्व बढ़ जाता है यानि घी अपने साथ की वस्तुओं के गुणों को भी बढ़ा देता है। यदि हम बादाम या काजू अलग खायेंगे तो उनका भी स्वाद बढ़ जाता है और खाने में अधिक स्वादिष्ट हो जाते हैं। यही बात साग व सब्जी भी है। इनमे आप कितना भी जीरा, हल्दी, मिर्च, धनिया व गर्म मसला डाल दो परन्तु घी डाले बगैर साग-सब्जी स्वादिष्ट नहीं बनती। हम बराबर देखते हैं कि साधारण दाल से यदि कोई व्यक्ति चार रोटी खाता है तो उसी दाल में आप घी का छौंक लगा दीजिये तब वह व्यक्ति उतनी ही दाल से छः रोटी खा लेगा यानि दाल स्वादिष्ट बन जाती है।

ठीक उसी प्रकार ईश्वरविश्वास या ईश्वरभक्ति हमारे जीवन में घी का काम करती है। ईश्वरविश्वास से निराभिमानिता, कृतज्ञता, विनम्रता, विश्वास बना रहता है जिससे वह बड़ी से बड़ी विपत्तियों में भी नहीं घबराता और कठिन से कठिन काम सरल हो जाते हैं। ईश्वर विश्वास सब मानवीय गुणों में सर्वोपरि है। यह कृतज्ञ भाव से उत्पन्न होता है और अन्य गुणों जैसे ईमानदारी, सच्चाई, करुणा, निष्पक्षता, सहनशीलता, परोपकारिता, सहृदयता, दया आदि को बढ़ा देता है इसलिए मैनें इसकी उपमा घी से दी है। ईश्वरविश्वास व्यक्ति को यह विश्वास बना रहता है कि सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, न्यायकारी व दयालु ईश्वर मेरे साथ है, फिर मुझे क्या भय है। जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोद में अपने आप को सुरक्षित समझता है, उसको किसी प्रकार का भय नहीं सताता, उसी प्रकार ईश्वरविश्वासी की स्थिति हो जाती है। ईश्वर विश्वासी कभी भी अन्याय का काम नहीं कर सकता। जब वह न्याय का काम करेगा तब उसको चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं। कारण ईश्वर न्यायकारी है इसलिए न्याय की रक्षा करना उसका कर्म है। यहां समझने की बात यह है कि वह सर्वशक्तिमान व न्यायकारी ईश्वर, ईश्वर के विरोधी के विरोधी व्यक्ति में भी व्याप्त है उससे भी सभी काम ईश्वर ही करवाता है। ईश्वर न्याय की रक्षा के लिये या तो विरोधी व्यक्ति को सद्बुद्धि देगा या किसी प्रकार से भी ईश्वर विश्वासी की रक्षा करेगा।

महर्षि दयानंद के जीवन का जब हम अध्ययन करते हैं तो हमें यह जानकारी हो जाती है कि महर्षि का ईश्वर पर कितना अधिक अटूट विश्वास था। वे बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी नहीं घबराते थे। उन्होंने अपने अमर ग्रन्थ ''सत्यार्थप्रकाश'' में भी लिखा है कि ईश्वरभक्ति में वह शक्ति है जिससे पहाड़ के समान दारुण दुःख को भी सहन करने की शक्ति आ जाती है और वह दुःखों से घबराता नहीं। महर्षि के जीवन में भी एक नहीं अनेक घटनाएं ऐसी मिलती हैं जहां वे बड़ी मुश्किल में फंस गये, फिर भी घबराए नहीं और अपनी सच्चाई पर डटे रहे। ईश्वर ने उनकी रक्षा ही नहीं बल्कि सफलता भी दिलाई।

एक घटना ऐसी आती है कि स्वामी जी उदयपुर में विजमान थे। एक दिन उदयपुर के महाराजा ने कहा कि स्वामी जी आप हमारे एकनाथ भगवान के मंदिर के पुजारी बन जाओ। आप चाहे मूर्ति पूजा मत करना सिर्फ मंदिर का पुजारी बनकर उसकी देखभाल करते रहना। इस मंदिर में लाखों रुपयों का चढ़ावा साल में होता है वह आपका ही रहेगा। स्वामी जी ने इस कार्य को सिद्धांतों के विरुद्ध समझकर पुजारी बनने से इंकार कर दिया। और बोले कि आपने सच कहा राजन ! आपकी आज्ञा का पालन नहीं करूंगा तो आप अधिक से अधिक मुझे अपने राज्य से बाहर निकाल सकते हैं। मैं चाहूँ तो आपके राज्य से एक दौड़ लगाने से रातभर में ही बाहर जा सकता हूं। परन्तु उस परमपिता परमात्मा की आज्ञा का पालन नहीं करूंगा तो उसके राज्य से मैं किसी हालत में भी बाहर नहीं जा सकता। तब आप ही बतलावें मैं आपकी आज्ञा का पालन करूं या उस राजाओं के राजा परमपिता परमात्मा की आज्ञा का? तब महाराजा निरुत्तर हो गये।

स्वामी जी के जीवन की एक और घटना बड़ी प्रमुख है। जिससे उनकी कीर्ति चहुं ओर फैली। वे पौराणिकों का गढ़ काशी में ''मूर्ति पूजा'' पर शास्त्रार्थ करने गये। स्वाम जी ने काशी नरेश से कहा कि मैं आपके पंडितों से ''मूर्ति पूजा'' पर शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। राजा ने सोचा कि यदि मैं शास्त्रार्थ करना स्वीकार नहीं करता हूं तो हमारे विद्वान पंडितों की हार हो गई, इसलिए शास्त्रार्थ करवाना और अपने विद्वान पंडितों को ये प्रकारेण जितना भी मेरा कर्त्तव्य है। यह सोचकर राजा सब विद्वानों को बुलाया और कहा कि आप किसी प्रकार से भी 'मूर्ति पूजा' पर शास्त्रार्थ में स्वामी जी को हराओं नहीं तो हमारी काशी नगरी की बड़ी बदनामी हो जायेगी। तब वे सब तरह से तैयार होकर यानि झगड़े-बदमाशी के साथ दल बल सहित आये और स्वामी जी शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। अध्यक्ष राजा जी को मनोनीत किया गया। शास्त्रार्थ स्थल में एक तरफ सिर्फ स्वामी जी और दूसरी तरफ सैकड़ों पंडित, सैकड़ों गुंडे-बदमाश और हजारों की संख्या में विरोधी दर्शकगण। तात्पर्य यह है कि शास्त्रार्थ स्थल पूरा खचाखच भरा हुआ था। अन्य प्रांतों के साथ ही बंगाल से कई विद्वान पंडित गये हुए थे परन्तु स्वामी जी के पक्ष में एक भी व्यक्ति नहीं था। उस आयोजन का व्यवस्थापक निष्पक्ष, कर्तव्य परायण व न्यायप्रिय व्यक्ति था। उसने स्वामी जी का आसन एक बंद कोठरी के बाहर लगा दिया और माहौल का ढंग देखकर स्वामी जी से कहा कि स्वामी जी ! पंडितों को साजिश बड़ी खतरनाक है, मैं सत्य पर हूं तो मेरा पूर्ण विश्वास है कि उसके होते हुए मुझे कोई भय नहीं।

शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और जो होना था वही हुआ। पंडितों ने बीच में ही हल्ला-गुल्ला मचा दिया कि स्वामी जी हार गये और गुंडे-बदमाशों ने पत्थर ईंटें फेंकनी शुरू कर दी। व्यवस्थापक पहले ही स्थिति को भांप गया था और स्वामी जी को उस कोठरी के किवाड़ खोलकर अंदर कर दिया और किवाड़ बंद कर दिया जिससे स्वामी जी के प्राणों की रक्षा हो गई।

यह लिख देना भी उचित है कि कुछ स्वार्थी ब्राह्मणों ने पौराणिक भाइयों में ऐसा मीठा भ्रम फैला रखा है कि आर्यसमाजी ईश्वर को नहीं मानते, हमारे देवी-देवताओं को और हमारे वार-त्यौहारों को नहीं मानते, इसलिये वे नास्तिक है परन्तु आर्यसमाजी जो बातें सत्य और ज्ञान पर आधारित हैं उन सबको मनाता है जैसे ईश्वर, वेद, संस्कार, पांच महायज्ञ, वर्णाश्रम आदि और जो असत्य और अज्ञान पर आधारित है उनको नहीं मानता जैसे मूर्ति पूजा, अवतारवाद, भूत-प्रेत मृतक श्राद्ध आदि। मेरा पौराणिक भाइयों से निवेदन है कि आर्यसमाज के सत्संगों में जाकर हमारे वैदिक विद्वानों के उपदेश सुनें, वैदिक साहित्य पढ़े, महर्षि दयानंद जी जीवनी व उनके द्वारा लिखे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तो मालूम हो जायेगी कि वैदिक धर्म जिसको आर्यसमाज मनाता है, वही सच्चा धर्म है। वैदिक धर्म सिर्फ मानवमात्र के हित के लिये ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र के हित के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। यह धर्म मानवमात्र को सबसे प्यारा व सद्व्यवहार रखते हुए अपना व दूसरों का जीवन सुखी बनाने की कला सिखाता है तथा मोक्ष तक पहुंचने का सच्चा मार्ग बतलाता है जो मानवमात्र का अंतिम लक्ष्य है।

तेल की शीशी ले आना। क्या? रामदयाल घूमने जा रहे थे। राम अपनी मां सुनीता के साथ छत पर घूम रहा था। वही से बोला था। रामदयाल ने सुना नहीं इसलिए फिर से पूछा था, 'क्या लाना है?' 'बुड्ढे, बहरा हो गया है क्या? सुनता नहीं है एक बार में।'

रामदयाल कुछ नहीं बोले। कुछ देर बाद अनिल का फोन आया था। पति से बात करने के बाद सुनीता ने फोन बेटे को पकड़ा दिया। राम काफी देर तक बातें करता रहा। सुशीला, राम की दादी नीचे गेट के पास कुर्सी डालकर बैठी थी। राम छत पर से ही जोर से बोला 'बुढियां नीचे बैठी है। उसे फोन दूं क्या?'

अनिल पुलिस में सर्विस करता है। उसने पत्नी और बेटे को मां बाप के पास आगरा छोड़ रखा है। राम पहली क्लास में पढता है। अनिल ने उसका एडमिशन शहर के महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूल में करा रखा है। सुनीता अपने बेटे को घर से बाहर नहीं निकलने देती। उसे डर है कालोनी बच्चों के साथ रहकर वह बिगड़ जायेगा। उनके साथ खेलकर गंदी बातें सीखेगा।

बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार देने चाहिए ताकि बड़े होकर वह बड़ों का सम्मान करना सीखें और अच्छे नागरिक साबित हो। संस्कारिकत करने की सबसे पहली जिम्मेदारी मां की होती है। मां बच्चें को जिस सांचे में ढालती है, बच्चा उसी सांचे में ढल जाता है। अच्छे संस्कार बच्चे में न पड़ने का दोष हम स्कूल को या आसपास के वातावरण को नहीं दे सकते। अच्छे स्कूल में पढ़ने और घर से बाहर न निकलने देने के बावजूद राम में संस्कार नहीं हैं। उसकी वजह है, मां का रोकना। वह दादा-दादी से बत्तमीजी से पेश आता है। मां रोकती नहीं। बड़े होने पर यही उसकी आदत बन जाएगी। आज दादा-दादी हैं। कल मां-बाप के साथ भी वह ऐसा ही व्यवहार करेगा।

आज कल शीत ऋतु प्रारम्भ हो गयी है। लोगों ने सर्दी के वस्त्र पहनने शुरू कर दिये हैं। इसलिए आज कल महिलाओं का सत्संग दो बजे से प्रारम्भ हो जाता है. अतः भोजन आदि कर कर के सभी माताएँ दो बजे तक पंचायत घर में आ गयी।

अधिक धुप में आना नहीं बनेगा, इसलिए आज माता मैत्रयी दस बजे ही आश्रम से निकलकर बारह बजे से पहले ही पंचायत घर में आ गयी। कुमारी सुशीला माता जी की प्रतीक्षा कर रही थी। अतः माता जी के आते ही कु. सुशीला माता जी को अपने घर भोजन विश्राम कर के दो बजे पंचायत घर में उपदेश देने के लिए ले आई। आज पंचायत घर महिलाओं से भरी भीड़ को देखकर बहुत प्रसन्न हुई तथा परन्तु अपने उपदेश की चौकी पर आकर बैठ गयी। आज सत्संग में आयी हुई नयी कन्याओं एवं महिलाओं को देखकर माता जी ने मन में विचार किया कि उन सभी महिलाओं को दुसरा कोई मन्त्र तो याद नहीं होगा। परन्तु गायत्री मन्त्र सभी को अवश्य याद होगा ये विचार कर माता जी ने सभी महिलाओं से तीन बार गायत्री मन्त्र से प्रार्थना करवाई, सभी महिलाओं ने हाथ जोड़ एवं आँखे बन्द कर श्रद्धा पूर्वक एक स्वर से गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया। सभी महिलाओं का श्रद्धा पूर्वक एक स्वर से गायत्री मन्त्र का उच्चारण सुनकर माता जी बहुत ही प्रसन्न हुई तथा सरल भाषा में महर्षि स्वामी दयानन्द द्वारा रचित सत्यार्थप्रकाश के चौथे समुल्लास के अनुसार सब महिलाओं को गृहस्थ धर्म का उपदेश देते हुए कहा, कि मेरी पूजनीय माताओं और प्यारी बेटियों इस बात को तो आप जानती ही होंगी, कि संसार को चलाना पुरुषों को मार्गदर्शन देना तथा संसार में सुख शान्ति देना या घर में कलह बनाए रखना माताओं के हाथ में है।

इतिहास साक्षी है यदि जयचंद्र की पुत्री संयोगिता पृथ्विराज को अपने मोह में न फसाती तो हमारा देश पराधीन नहीं होता, क्योंकि जयचंद्र पृथ्विराज को नीचा दिखाने के लिए विदेशी मुस्लमान बादशाह मुहम्मद गोरी से जा मिला मुहम्मद गोरी ने अपनी भरी सेना के साथ पृथ्विराज को हराकर कैद कर लिया, यदि पृथ्विराज उस महिला के मोह में न पड़ता तो देश पराधीन नहीं होता इसी प्रकार शूर्पणखा यदि रावण को न भड़काती तो माता सीता का अपहरण न होता संक्षेप में यही कहा जा सकता है, की समाज के बनाने बिगाड़ने में माताओं का बहुत बड़ा हाथ होता है। अतः मेरा सभी माताओं बहनों से विशेष निवेदन है कि इतिहास की इन पुरानी घटनाओं से शिक्षा लेकर अपने परिवार तथा समाज को अच्छे मार्ग पर चलाने का यत्न करें। माताओं के लिए यह प्रसिद्ध वाक्य है की माता निर्माता भवति। इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज को मार्गदर्शन करने में महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ है अतः मैं आप सब से निवेदन करती हूँ कि वे अपने परिवार का मार्ग दर्शन करें। जिससे हमारे देश में पुनः राम, कृष्ण, दयानन्द व गाँधी जैसे महापुरुष जन्म ले सकें। आशा है मेरे इस निवेदन पर सभी माताएँ बहनें पुत्रियाँ विशेष ध्यान देंगी।

जीवन निर्माण में संस्कारों का बहुत ही बड़ा महत्व है। सुसंस्कारों के अभाव में व्यक्ति सभ्यता एवं संस्कृति से दूर हो जाता है। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है, जिसके आगे संस्कार की धन-दौलत कुछ भी मूल्य नहीं है। मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है। सुसंस्कारों के जागरण से ही व्यक्ति आत्मोपलब्धि को प्राप्त होता है। संस्कार जीवन निर्माण का द्वार हैं। शरीरधारी प्राणी के लिए भोजन, हवा आवश्यक है, उसी प्रकार आत्म-विशुद्धि के लिए संस्कारों का जागरण जरुरी है। संस्कारों के जागरण के लिये सयंम, सदाचार, सहीविष्णुता आदि सद्गुण जरुरी है।

विनीत शिष्य ने गुरुदेव को वंदना कर जिज्ञासा की-भन्ते! इंसान की असली पहचान क्या है? क्या वह अपने देश-प्रदेश, रहन-सहन से जाना जाता है या फिर उसकी भाषा या जाति उसकी पहचान बनती है। बल शिष्य की मन में उठी जिज्ञासाओं को समाहित करते हुए गुरुदेव ने कहा-वत्स! इंसान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार उसके समूचे जीवन को व्याख्यायित करते हैं। शिष्य ने बड़ी निनम्रता से गुरुदेव से पूछा-गुरदेव मैं संस्कारों के अमूल्य इतिहास को समझना चाहता हूँ। गुरुदेव ने विनीत शिष्य को बड़े प्यार से समझाते हुए कहा-वत्स संस्कार हमारी जीवन शक्ति है, यह एक निरन्तर चलने वाली एक ऐसी दीपशिखा है जो जीवन के अंधरे मोड़ों पर भी प्रकाश की किरणें बिछा देती हैं। उच्च संस्कार मानव को महामानव बनाते हैं।

गणाधिपति श्री तुलसी ने संस्कार बोध में लिखा है- संस्कारों की सम्पदा है उत्कृष्ट, अमूल्य। - धन वैभव संस्कार का रखता है क्या मूल्य। संस्कारों के बजारोपण का समय बचपन है। संस्कार वह जन्मघूंटी है जिसे ग्रहण करने वाले बालक का जीवन सफर खुशनुमा बन जाता है। बचपन से ग्रहण किये गए संस्कार जीवन के अंत तक बने रहते हैं। बचपन जीवन के महा की नींव है। इसे मजबूत बनाएं। यह जीवन की वृक्ष की जड़ है। इसे अच्छी आदतों और अच्छे संस्कारों के मधुर जल से सिंचित करें, ताकि वह हरा-भरा रहे और समाज को मीठे फल प्रदान कर सके। बालक कोरे कागज के समान होते हैं। उसमे चाहें जैसे चित्र उकेरे जा सकते हैं। अपेक्षा है बालक रूपी कोरे कागज पर पुरुषार्थ रूपी तूलिका से सम्यग ज्ञान का रंग भरकर सुंस्कारों के चित्र उकेरे जाएँ, जिससे बालक का भविष्य उज्जवल बन सके। सुसंस्कारों के अर्जन से ही श्रेष्ठ जीवन का सर्जन होता है। एक संस्कारी कर असंस्कारी बालक उतना ही अन्तर जितना देशी घी और डालडा घी में होता है। जिस प्रकार सुगन्ध के बिना फूल का, स्नेह के बिना दीपक का कोई मूल्य नहीं होता उसी प्रकार सुसंस्करों के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता है -''संस्कारी जीवन हो ऐसा, रामायण ज्यूं जिल्द बँधी, - इसेक बिना जिन्दगी जैसे बाढ़ उगलती हुई नदी।''

बालक जगत की अनुपम कृति है। बालक संस्कारों की संस्कृति है, संसुति है। आज का बच्चा ही कल के देश का कर्णधार है। बाल्यवस्था अर्जन की, युवावस्था सर्जन की व व्रद्धावस्था विसर्जन की अवस्था होती है। अगर बाल्यकाल विजय, विवेक, अचार, विचार और व्यवहार के संस्कारों का अर्जन नहीं किया गया तो युवावस्था में सर्जन वृद्धावस्था में विसर्जन नहीं किया जा सकता।

वर्तमान युग में विज्ञान की तरक्की एवं अभिनव बौद्धिक शिक्षा प्रणाली से व्यक्ति एक अच्छा डॉक्टर, इंजिनीयर, प्रोफेसर, कलेक्टर तो बन सकता है, पर एक अच्छा इंसान नहीं बन सकता। अच्छा इंसान बनने के लिये आवश्यक है बौद्धिक, भौतिक शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारों व जीवनोपयोगी शिक्षा, जो सर्वांगीण विकास कर सके। आज नई पीढ़ी में धर्म के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही है। केवल धर्म के प्रति ही नहीं परिवार, समाज, राष्ट्र आदि दायित्वों के प्रति भी अधिकाधिक लापरवाह होता जा रहा है। भौतिकवादी, भोगवादी मनोवृत्तियाँ उसके मानस पर इतनी अधिक हावी होती जा रही है कि केवल आमोद-प्रमोद मनोरंजन, समय का अपव्यव करने वाली प्रवृतियों के प्रति उसका आकर्षण बढ़ता जा रहा है। साथ ही स्वार्थ भाव, श्रमविमुखता, अनैतिकता, प्रमाद-हिंसा अदि का प्रभाव सामान्य से अधिक दृष्टिगोचर होता जा रहा है। सभी धर्म, सम्प्रदायों के लोगों के लिए यह चिंतनीय विषय हो गया है। सभी चिंतित है कि नई पीढ़ी को कैसे संस्कारी बनायें, कैसे धर्म के प्रति उसका आकर्षणहो? कैसे वह उत्साह से धर्मकार्यों में भाग लें? यह निश्चित है कि जब तक उसे प्रेरित व् आकर्षित करने वाला कोई सशक्त माध्यम प्रस्तुत नहीं होगा, इस समस्या का समाधान भी नहीं हो सकेगा।

अज्ञान के बिना दुःख भोग नहीं होता है दुःख भोग से अज्ञान बढ़ता है। अज्ञान का फल दुःख होता है. सांसारिक सुख भी चार प्रकार के दुःखों से युक्त है, दुःख भोग से ही अज्ञान बढ़ता है। दुःखानुभूति हो तो मौन हो जाओ, दुःख से निष्क्रिय हो जाओ और चित्त मे अज्ञान की खोज करो, जिससे दुःख भोग हो रहा है। इसका विसर्जन करो नये अज्ञान के संस्कारों का संग्रह न करो। पिछले अज्ञान के संस्कारों का क्रिया योग से निष्कासन करो। उससे दुःखों को उत्पन्न करने वाले क्लेशों के संस्करों का निर्बल होना होगा और समाधि की ओर गति होगी। ऐसा न करोगे तो दुःख भोग से द्वेष होगा और सुख भोग से राग होगा। उससे नये कर्माशय का संग्रह होगा, जो शुभाशुभ कर्मों से बनेगा।

इस प्रकार पुनः फल भोग, सुख-दुःख, राग-द्वेष वासना, शुभाशुभ कर्म और भव चक्र गतिमान होता रहेगा, इसलिए कहा कि दुःख भोग से प्रतिकार, विरोध, हिंसा व क्रोध के भाव उत्पन्न होते हैं। उन भावों से व्यवहार अज्ञान को बढ़ाएगा। अज्ञान से दुःख इसी प्रकार सुख भोग से लालसा, तृष्णा व अशान्ति पैदा करेगा।

योगाभ्यासी इसे विवेक से प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। तब व्यवहार मैत्री। करुणा, मुदिता व उपेक्षा का व्यवहार करेगा। उससे प्रसन्न रहेगा। प्रसन्नता से ज्ञान बढ़ेगा, ज्ञान बढ़ने से प्रसन्नता बढ़ेगी, इसका फल दुःख व ज्ञान का नाश होना है तथा प्रसन्नता और ज्ञान की वृद्धि होगी जो अंत में बन्धन से छुड़ाकर दुःखों का नाश कर, मुक्ति को प्राप्त कर विद्या को स्थिर क्र अखण्ड आनन्द को प्राप्त कराएगी। अविद्या की वासनाओं के बिना भोग नहीं होता है। भोग होने पर उससे वासनाएँ निर्मित हटी हैं, उससे प्रेरित कर्म बन्धन देते हैं। विद्या की वासनाओं के बिना दुःखों का छूटना नहीं होता है। मिथ्या स्व-स्वामी को समझाना वर्मतान स्व-स्वामी को समझना पश्चात् जीवात्मा को भोगाभ्याश मिथ्या ज्ञान छूटना वर्तमान के यथार्थ से अविद्या की वासना का नाश कर विद्या की उन्नति कारण उससे शाश्वत् सुख की उपलब्धि होगी।

प्रजातंत्र में अधिकारों से लेकर नागरिक कर्तव्यों तक को जन-जन तक पहुँचाने का सकल्प दोहराया गया है। इसमें मंशा यह रहती है कि देश के साथ हर नागरिक का जुड़ाव पैदा हो। साहित्य में बहुजन-हिताय, बहुतजन-सुखाय का नारा तो दिया गया, परन्तु अकसर इसेक क्रियान्वयन में गड़बड़ी हुई है। क्या ऐसा साहित्य विशेषकर कविता, ऐसी नहीं लिखी जा सकती, जिसे सब समझ लें? सब का मतलब अधिकांश जन से हैं। आखिर,ऐसे लेखन का मतलब भी क्या, जिसे कोई भी न समझ पाएं। आज अधिकांशतः कविता ऐसी लिखी जा रही है कि उसमे समझें भी तो केवल उसका या कवि भगवान। यह समस्या हिंदी कविता में चिंता के स्तर तक मौदजूद है। कवी लोग अक्सर ऐसी अबूझ कविताएँ करने में लगे है जो ''खग जाने खग ही कर भाषा''।

एक समय ऐसा भी था जब कबीर, तुलसी, रहीम दास कविता करते थे। ये कवि आज भी पढ़े जाते हैं। इतना लम्बा समय बीतने के बाद आखिर ये कवि समाज में जीवित हैं तो किस की बदौलत, अपनी रचनाओं की ताकत से, यह बात जनता समझती है, लेकिन आज के कवि ने गंगा उल्टी बहादी। इसलिए, जनता ने लगभग इनसे पीठ घुमा ली। सभी साहित्यकार चाहते यही है कि वे लोकप्रिय हों, अधिक से अधिक लोगों के पास पहुँचे। लेकिन जब वे लिखने के लिए अपना मन बनाते हैं तब जनता के मन का ध्यान नहीं रखते। गाँधीजी अक्सर कहते थे कि 'अगर किसी की पुस्तक पढ़ते हुए मैं उकता हूँ तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं। दोष इसके लिखने वाले का है।' उपभोक्तावादी इस समय में उस्ताद की गुणवत्ता के लिए उत्पादक ही जिम्मेदार है। आज के आदमी की कठिनाइयाँ अलग ढंग की है, जिन्हें या तो उसने स्वयं पैदा किया है या फिर समय और परिस्थितियों ने पैदा किया है या फिर समय और परिस्थितियों ने प्रस्तुत किया है। लेकिन यह भी सच है कि हर स्थिति से निपटने का कोई न कोई उपाय जरूर होता है, बस उपाय को खोजने की जरुरत है। ज्योतिषियों ने खोजा तो वे टी.वी. पर चढ़कर घर-घर पहुँचे। उत्पादनकर्ताओं ने खोजा और वे विज्ञापनों के जरिए घर-घाट पहुँचे, भले ही उनके मनतव्य पुनीत नहीं है। मेरा मतलब ज्योतिष और उद्योग के साथ साहित्य की तुलना करना नहीं है, पर मूल प्रश्न यही है कि आखिर जनता तक साहित्य को पहुँचाया कैसे जाए?

यह भी सत्य है कि, एक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के भाव निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका साहित्य की ही है। इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। उदहारण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के समय के साहित्य को देखना चाहिए। उस समय के सब बड़े-बड़े रचनाकार, लेखक जनता को संबोधित कर रहे थे और जनता उसे समझ रही थी। इसी संदर्भ में यह भी ध्यान रहे कि अब तुलना में साक्षरता का प्रतिशत तब कम था, लेकिन समझ का स्तर इतना था कि जनता अपने कवियों का संदेश आसानी से समझ लेती थी। आज ऐसा क्यों नहीं है? आसानी से समझ में आने वाले इसके दो कारण हैं पहला तो यह कि आज स्वतंत्रता आंदोलन जैसी परिस्थितियाँ नहीं है और दूसरा यह कि समाज की आँखों में कोई एक सपना या उद्देश्य नहीं है। तब वे लेखक जनता के मन को समझकर उसकी भावना को व्यक्त करते थे और वे जनता के मध्य जीते और मरते थे। आज इस संतुलन से अन्तर आया है।

अक्सर कवि, लिखने-पढ़ने वाले लोग अपने को जनता से अलग एक भिन्न तरह का उच्च वर्ग मानने लगे, जिससे जनता से इनकी दूरियाँ बढ़ी हैं, अभी भी जो कवि सामान्य रूप से जनता के साथ है उन्हें समझा जा रहा है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाष' अपनी काव्यात्मकता के साथ-साथ कवि के मन की पवित्रता से उपजी थी। इसलिए हमें आज भी प्रभावित करती हैं। जो बात मन की पवित्रता और आचरण की शुद्धता से प्रकट होगी वह एक बड़े जन समूह को प्रभावित करेगी और जो बात दिल के बजाय दिमाग और आचरण के बजाय आडम्बर से उपजेगी, वह दूर तक नहीं जाएगी।

गाँधी की बात जनता इसलिए नहीं सुनती थी कि वे बहुत बड़े भाषाविद, साहित्यकार और कुशल वक्ता थे उनकी बात इसलिए प्रभावी थी कि, वह आचरण की पवित्रता और मन की गहराई सीधे सरल शंब्दों में प्रकट हुई। आज के उलझे हुए आदमी को सीधी और सरल भाषा की जरूरत है, बहुत जटिल भाषा समझने के दिन लद गए हैं। अगर भारतीय समाज में कविता सम्प्रेषित होनी बन्द होगी तो मान लीजिए कि दुनिया के किसी भी समाज में वह समझी नहीं जा सकेगी, क्योंकि, यही वह समाज हैं, जिसके सभी संस्कार कविता में ही सम्पन्न होते हैं। कम से कम इस समाज की काव्यात्मक समझ पर मुझे तो पूरा भरोसा है। केवल इसकी नब्ज को समझकर लिखकर तो देखिए। भारतीय समाज में कवि कविता को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त रहा है। कवि को ब्रम्हा तुल्य माना गया है। वह सृष्टा है, यह घोषणा की गई। कवि कविता के द्वारा एक नए संसार का सृजन करता है। तलसी और कबीर आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्होंने अपनी अवधारणाओं के अनुरूप समाज की संरचना की है। सदियों बीत गए, पर आज तक यह कृतज्ञ समाज इन संत कवियों के उपदेशों के आगे नत-मस्तक है। इनके शब्द मंत्र की तरह हमारे समाज में समझें और आदर के साथ सुने जाते हैं।

इनकी परम्परा में आए आज के कवि इसी भारतीय समाज के साथ न्याय नहीं कर पाए। परिणास्वरूप जनता और कवियों के बीच एक गहरा असन्तुलन पैदा हो गया है। कल्पना के सहारे चमत्कार पैदा किया जा सकता और आचरण के सहारे आदमी के अन्तस को बाँधा जाता है। कविता मनोरंजन के साथ आदमी के अन्दर के संसार को धीरे-धीरे से बदलती है। यह बदलाव आज बन्द है। इसके लिए समाज कम, रचनाकार अधिक जिम्मेदार हैं।

एक बगीचे में घूमने के लिये जाना हुआ। बगीचा बहुत ही सुन्दर था। अनेक प्रकार के फूलों वाले पोधे अपने फूलों के विभिन्न रंगो तथा आकारों द्वारा बहुरंगी छटा बिखरा रहे थे। बंगीचे में घूमते-घूमते देखा कि वृक्षों पर विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी अपनी-अपनी सुरीली बोलियाँ में गीत गा रहे थे। कुछ पक्षी खुले नील गगन में उड़ रहे थे जो पेड़ो पर बैठे अपने पंख फड़-फड़ा रहे थे परन्तु उड़ नहीं पा रहे थे जो पेड़ो पर वे चिल्ला रहे थे - 'कोई हमे छुड़ाओ, कोई हमे छोडाओं!' बगीचे के रखवाले को देखते ही पक्षी और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। रखवाला बोला, 'अपने पंजो को डाली से उड़ान भरो।' कुछ पक्षी उड़ान भरते तो थे, परन्तु धोड़ा सा उड़ कर वापिस आ जाते और फिर चिल्लाने लगते। रखवाले ने फिर से समझाया पर व्यर्थ।

जब मनुष्य की अंतर्चेतना (आत्मा) शक्तिशाली होती है तो सकारात्मक संकल्प जागृत होते हैं पर आत्मिक शक्ति के क्षीण होने पर नकारत्मक हावी हो जाती है। आत्म पर देहाभिमान, सांसारिक वैभव, शक्ति, धन का भ्रम हावी होने से अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह आदि अवगुण बढ़ते हैं। आत्मा के स्वाभाविक गुण शान्ति, सुख, पवित्रता, आनन्द अदि कम होते जाते हैं। पैसा, गाड़ी, कपडे, परिवार, औलाद, मनोरंजन के साधनों, आदि से अशक्ति बढ़ने लगती हैं। रिश्तों का बन्धन हावी होने लगता है। मेरा भाई, रिश्तेदार, मित्र इतने ऊँचे पद पर हैं। इतना बड़ा है। इतना शक्तिशाली हैं। आदि अदि।

भौतिक पदार्थ यथा यह बंगला, इतना बड़ा कारोबार, कारखाना, गाड़ियाँ मेरी हैं। आत्मा को देह के बन्धनों में बांधती हैं। अनेक बार समाज, परिवार और संसग अथवा पिछले जन्म के आये हुए गलत बुरे संस्कार आत्मा को जकड देती हैं। आत्मा चाह कर भी छोड़ नहीं सकती क्योंकि उसकी शक्तियाँ ही क्षीण हो जाती हो और वह परवश हो जाती है। मनुष्य यदि चाहे तो वह इन बन्धनों को तोड़कर अपने लक्ष्य लो ओर आगे बढ़ सकता है परन्तु उसके लिए उसे अपने आपको शक्तिशाली बनाना होगा। यदि हम स्वयं को चेतन्य शक्ति आत्मा समझकर कार्य व्यवहार करें तो देह अभिमान व् देह के बन्धनों से मुक्ति पा सकते है। व्यक्ति बार-बार कहता है कि मेरा घर है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा शरीर है, तो उस मैं को जानकर, समझकर, उस 'मैं' में स्थित होकर कार्य व्यवहार करें। तो उस मैं (आत्मा) दिव्या गुणों की शक्तियों की जागृति होजाती है। अनेक लोग कह सकते है कि क्या हम अपन घर परिवार सम्बन्धियों को छोड़ दें? नहीं, किसी को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह जानना आवश्यक है कि वे मेरे नहीं हैं।

हम सब उस परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं, इनकी देख-रेख व पालन-पोषण की जिम्मेदारी परमात्मा की तरफ से मुझे मिली है, मैं तो ट्रस्टी हूँ। यह समझकर उनकी देख भाल करे तो व्यक्ति इन बंधनों से मुक्त हो सकता है। जैसे एक सरकारी अधिकारी अपने कार्यकाल में वहाँ के कार्यालय, फर्नीचर, टेलीफोन आदि उपयोग करता है। वहाँ से तबादला होने या रिटायर होने पर सब कुछ खुशी से वहीँ छोड़कर चला जाता है, बिल्कुल भी अपनापन नहीं रखता है। इसी प्रकर की सोच को व्यक्ति यदि अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धारण करले कि घर, गाड़ी, पैसा, फैक्ट्री सबकुछ मेरे उपयोग के लिए है, मुझे परमात्मा की ओर से मिली हैं, ये सब मेरी नहीं हैं तो उसे पदार्थों के बंधन से मुक्ति मिल सकती है। स्वयं (आत्मा) को भूल कर शरीर को ही सब कुछ समझाने से भ्रम होता है। अपने विचारों के परिवर्तन से ही हम स्वयं के बंधनों से मुक्त होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकते है।

भूत-प्रेत की उत्पत्ति के विषय में कुछ अज्ञानी, अशिक्षित और स्वार्थी लोगों ने यह धारणा बना रखी है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है, यानि जिनकी मृत्यु दुर्घटना से या अस्वाभाविक होती है। वे लोग अपने विशेष जीवन में भूत-प्रेत की योनि में चले जाते हैं। यह सर्वमान्य बात है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। यह बात भूत-प्रेत पर भी लागू होनी चाहिए। जिस जीव ने भूत-प्रेत की योनि में जन्म लिया है तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। परन्तु उनके मरने की बात कभी सुनने में नहीं आई।

अकाल मृत्यु प्राप्त जीव भूत-प्रेत की योनि में जाते हैं, यह सिद्धान्त कीट-पतंग, पशु-पक्षी और अनेकों अदृश्य जीवों पर भी लागू होनी चाहिए, जो प्रतिदिन मनुष्यों द्वारा मारे जाते हैं या मार दिये जाते हैं या प्राकृतिक आपदाओं-आंधी, तूफान, भूकम्प, बाढ़ आदि में मनुष्यों से अधिक मर जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार इनको भी भूत-प्रेत की योनि में जाना चाहिए। तब कल्पना करें कि इस संसार में भूतों की संख्या मनुष्यों की आबादी से भी कई गुना अधिक होनी चाहिए, परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है। अतः यह कहना कि अकाल मृत्यु प्राप्त जीव भूत-प्रेत की योनि में जन्म लेता है, यह न नर्क सम्मत है और न विज्ञान सम्मत।

भूत-प्रेत की योनि होती ही नहीं :- जीव का स्थूल शरीर, मन, व इन्द्रियादि साधनों के साथ ईश्वरीय व्यवस्थानुसार संयोग जन्म है, अर्थात् सूक्ष्म शरीर युक्त जीव का स्थूल शरीर के साथ माना जा सकता है, क्योंकि बिना शरीर के कोई भी योनि नहीं होती है। स्थूल शरीर के बिना कोई भी सूक्ष्म शरीर न तो दिखाई देता है और न कोई भौतिक क्रिया ही कर सकता है। प्रजनन की विधाओं के आधार पर योनियों को चार भागों में विभाजित किया गया है- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उभ्दिज। जरायुज का तात्पर्य है जेर से होने वाले प्राणी, जैसे मनुष्य, गाय, भैंस। अण्डज का तात्पर्य है अण्डे से होने वाले प्राणी जिसमें अधिकतर पक्षी आते हैं। स्वेदज का तात्पर्य है मैला या गंदगी में होने वाले प्राणी, जैसे जुएँ, गन्दी नाली के किटाणु। उभ्दिज का तात्पर्य है, जमीन से उगने वाले प्राणी जैसे पेड़-पौधे इन्हीं चार योनियों में समस्त प्राणियों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त पाँचवीं योनि का कोई विधान नहीं है। यह ईश्वर प्रणीत शाश्वत सिद्धान्त है। इसका उल्लंघन करने की शक्ति किसी भी जीव में नहीं है। स्मरण रहे जीव सर्वदा पराधीन होता है। वेद, शास्त्र, रामायण और गीता आदि प्राचीन ग्रंथों में कहीं पर भी भूत-प्रेत की योनि का विधान नहीं है।

कहा जाता है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है यानि जिनकी मृत्यु दुर्घटना से या अस्वाभाविक मृत्यु होती ये लोग अपने शेष जीवन में भूत-प्रेत, योनि में चले जाते हैं और इधर-उधर भटकते रहते हैं। कभी-कभी भूत-प्रेत परकाया में प्रवेश कर जाते हैं और उनको सताते है या कष्ट देते हैं। वे सामान्यतः अपने परिचितों और स्वजनों को ही अधिक परेशान करते है या कष्ट देते हैं। दिवंगत आत्मा का इधर-उधर भटकना सम्भव नहीं क्योंकि वह ईश्वराधीन होने के कारण स्वतंत्रता से कुछ भी नहीं कर सकती है। परकाया में प्रवेश करना भी ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है, क्योंकि एक शरीर में एक ही आत्मा रह सकती है। आत्मा प्रलयकाल और मोक्षावस्था को छोड़कर वह बिना शरीर के कभी नहीं रहता हैं। इन दोनों अवस्थाओं में वह अदृश्य रहता है।

यह निर्विवाद सत्य है कि मृत्यु के पश्चात् ईश्वरीय व्यवस्थानुसार जीव या तो दूसरे शरीर को धारण कर लेता है या मोक्ष को प्राप्त होता है। इस बीच उसके किसी अन्य के शरीर में प्रविष्ट होने या इधर-उधर घूमकर लोगों के जीवन में अच्छा-बुरा दखल देने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मोक्ष प्राप्त जीवात्माएँ पवित्र और आनन्द मग्न रहती हैं, वह परकाया में प्रवेश कर किसी मनुष्य को कष्ट या यातनाएं दे, यह मानना अस्वाभाविक है।

मृत्यु पश्चात् जीव को एक शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में जाने में कितना समय मिलता है, इसका निर्देश वेदान्त दर्शन ३/१/१३ वृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/३ तथा गरुण पुराण-प्रेत अध्याय २० श्लोक ७५ में लिखा है कि - जैसे घास की सूँडी या जोक या तॄणजलायुकृत भी पीछे से दूसरा पाँव उठाती हैं जब कि अगला पाँव रख देती है, ठीक वैसे ही आत्मा भी अपने पहले शरीर को छोड़ने से पूर्व ईश्वर की न्याययुक्त व्यवस्था से अगले शरीर में स्थिति कर लेने के पश्चात् ही अपने उस शरीर को छोड़ता है।

स्थूल शरीर के बिना कुछ भी करना सम्भव नहीं अतः ईश्वर की व्यवस्था में यह आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को तुरन्त ग्रहण कर लेती है। महाभारत वनपर्व १८३/७७ में कहा है- आयु पूर्ण होने पर आत्मा अपने जर्जर शरीर का परित्याग करके उसी क्षण किसी दूसरे शरीर में प्रकट होता है। एक शरीर को छोड़ने और दूसरे शरीर को ग्रहण करने के मध्य में उसे क्षण भर का समय नहीं लगता। अतः वैदिक सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु और जन्म के बीच कोई नहीं बचता कि जिसमें जीवात्मा इधर-उधर भटक सके या भूत-प्रेत बन सके। सच्चाई यह है कि शरीर छोड़ने के पश्चात् जीवात्मा परमात्मा के अधीन रहता है और वह स्वतंत्रता से कुछ नहीं कर सकता। संसार का कोई भी व्यक्ति भूत-प्रेत आदि के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर सकता, अतः निश्चित मानिये कि तथाकथित भूतों की न कोई सत्ता है और न कोई योनि है।

सच्चाई यह है कि दुर्घटना या अस्वाभाविक मृत्यु प्राप्त व्यक्ति अपनी बाकी की उम्र अगली योनि में व्यतीत करता है अर्थात् उसकी जो अगली योनि में जितनी उम्र निर्धारित होती है उसमें पहले वाली उम्र जोड़ दी जाती है। अब प्रश्न उठता है कि प्राप्त व्यक्ति यदि मनुष्य योनि में भी उसी स्तर में जन्म लेता है तब तो यह बात लागू हो सकती है। पर वह यदि अन्य योनियों में यानि पशु-पक्षी व कीट-पतंग में जाता है या पहले वाले मनुष्य जीवन के ऊँचे या नीचे स्तर की मनुष्य योनि ही पाता है तो उसकी आयु ईश्वर की कर्म न्याय व्यवस्था के अनुसार घट या बढ़ भी सकती है।

यह लेख मैंने अति उपयोगी समझकर ''मानव निर्माण प्रथम सोपान'' नामक पुस्तक से उद्धृत किया है जिसमें अन्त की ६-७ लाइने मैंने अपने स्वयं के विचार से पहले कभी किसी पुस्तक में पढ़ा था उसके आधार पर लिखी है जिससे लेख के उद्देश्य की पूर्ति होती है। इस लेख के पढ़ने से हर व्यक्ति भूत-प्रेत की योनि नहीं होती यानि भूत-प्रेत का भय एक प्रकार का वहां वहम् है, इसलिए हर समझदार व्यक्ति को भय नहीं होना चाहिए और अपने बच्चों को भी यही शिक्षा देनी चाहिए ताकि बच्चे निर्भीक बने और देश व समाज की सेवा अधिक कर सकें।

एक मानव जो सारी सृष्टि में श्रेष्ठ कहलाने का दम भरता है वह दो रोटी के लिए भाई के गले काटता है। माता-पिता से मुकदमें चलाता है और दरिद्रों का शोषण करता है। जो पेट घास और पात से भरा जा सकता है उसके लिए यह निर्मम संहार। आदमी को पेट के लिये दो रोटी चाहिये। तन ढाने को चार गज कपडा चाहिये और रहने को साढ़े तीन हाथ की जगह चाहिये। इससे अधिक उसके लिये सब व्यर्थ है। जो करोड़पति हैं उनको तो दो रोटियां भी नहीं पचती, उनके लिये तो मूंग की दाल का पानी ही पर्याप्त है फिर क्यों आदमी का पानी ही पर्याप्त है फिर क्यों आदमी पाप का भागी बनता है? इसलिये भगवान ने इतना ही मांगना चाहिए जिसमें अपना काम चल जायें। किसी ने ठीक ही कहा था- 
साईं इतना दीजिये, जा में कुटम् समाय।
मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय ।।

आवश्यकताओं को जितना चाहें बढ़ाया जा सकता है और जितना चाहे घटाया जा सकता है। भर्तृहरि जी के जीवन की घटना सुनाते हैं।

भर्तृहरि जी को जिस समय वैराग्य हो गया तो राज पाट छोड़ कर जंगल में चलने का कार्यक्रम बनाया गया। सोचने लगे कि जंगल में रहने के लिए कुछ सामान साथ लेकर चलना चाहिये। पहनने को कुछ वस्त्र भी चाहिए, खाने को आटा दाल, चावल चाहिये, सोने को चारपाई चाहिये। इस प्रकार सब मिलाकर एक छकड़े का सामान हो गया। प्रातःकाल सब गाड़ी में सामान भरकर चलने लगे तो विचार आया कि मुझ में और एक गृहस्थी में क्या अन्तर है। इतना सामान लेकर क्या मैं वैरागी हूं क्या मैं साधना कर सकूंगा। पुनः विचार हुआ कपड़ों के बिना काम चल सकता है, वस्त्र छाल की लंगोटी बना लेंगे और दाल चावल के बिना काम चल जायेगा। भिक्षा का अन्न अथवा वृक्षों के फलमूल खा लेंगे। पात्रों के बिना भी के चल जायेगा। हाथों को ही पात्र बना लेगे। चारपाई के बिना काम चल जायेगा। भूमि को चारपाई बना लेंगे। यूं करते करते सारा सामान त्याग दिया और एक लंगोटी लगाकर चल पड़े। तपस्या के अनन्तर लिखते हैं कि :-
मही रभ्या शय्या विपुलमुपधानं भूजलता, वितानं चाकाशं व्यजन-मनुकूलोsयमनिलः।
स्फुरद्दिपश्चंडो विरतिवनिता संगमुदितः, सुखं शान्तः शेते मुनि-रतनुभूतिर्नृय इव।।

अर्थ - मुनियों के सोने के लिए रभ्य भूमि ही चारपाई है, भुजा ही तकिया है, विस्तृत आकाश उनका महल है, वायु पंखा है, चंद्र ही दीपक है, उनकी स्त्री वैराग्य है इस प्रकार योगी राज के समान आनन्द से रहते हैं। महात्मा इस त्याग से ही आनन्द में रहते हैं।

एक घटना और देखिये। स्वामी सर्वदानन्द जी वीतराग महात्मा थे, त्याग की तो वे मूर्ति ही थे। अपने साथ केवल एक कम्बल रखते थे ओढ़ने बिछाने का सारा कार्य वही पूरा कर देता था। कड़कड़ाती सर्दी में भी सब कुछ वही था। एक बार वे आर्य समाज के किसी उत्सव में गये स्वामी नित्यानन्द जी जो राजसी ठाठ से रहते थे वे भी वहीँ पहुंचे हुए थे। रात्रि में स्वामी नित्यानन्द जी ने स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज को कम्बल में चाकू असान लगाये देखा उस समय तो कुछ नहीं प्रातः उपहास करते हुए बोले महाराज! आपने रात्रि में चाकू आसन लगा रखा था। इस बात को सुनकर सर्वदानन्द जी बोले, ''हां'' आप ठीक कह रहे हैं हम सर्दी में चाकू आसन लगाया करते हैं।'' यह कह कर मन में सोचा कि समय आने पर उचित उत्तर देंगे। कुछ समय के बाद उत्सव समाप्त हो गया तो त्यागी स्वामी सर्वदानन्द जी तो अपना कम्बल उठाकर चल पड़े परन्तु स्वामी नित्यानन्द जी कुलि की खोज में घूमने लगे। जब कोई नहीं मिला तो स्वयं ने सिर पर बिस्तरा अटेची आदि सामान उठाकर चले तो ठीक मौका पा विनोद करने के लिये स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज बोले स्वामी जी! चाहे तो रात्रि में चाकू आसन लगा लो और चाहे दिन में गधा बन लो एक ही बात है'' स्वामी नित्यानन्द जी महाराज गये। स्वामी जी ने नहले पर दहला लगा दिया है अपना सा मुंह लेकर रह गया। सामान वाले सारा जीवन गधे की तरह लदे रहते हैं और इन सांसारिक भोगों में फंसे रहते हैं। संसार में हर जगह चमक दमक है जो मनुष्य को फंसा लेती है। ये इन्द्रियों के जो मुख, भोग, आराम, धन, माल यश है मनुष्य का असली मार्ग इससे बच कर जाता है। जीवन में प्रतिदिन मनुष्य की परीक्षा होती है। एक और इन्द्रियों को लुभाने वाले रूप, रस, स्पर्श शब्द विषय हैं दूसरी ओर अध्यात्मक आनन्द है, एक तरफ एक मिनट का नकली सुख है दूसरी ओर ३१ नील वर्ष से अधिक रहने वाले श्रृंगार, एक ओर धन वैभव दूसरी ओर सरलता, एक ओर आराम दूसरी ओर तप, एक ओर हिंसा दूसरी ओर दया, एक ओर छल कपट दूसरी ओर सत्य, एक ओर चोरी दूसरी ओर त्याग, एक ओर असंयम दूसरी ओर संयम, एक ओर तृष्णा दूसरी ओर संतोष, एक ओर धन वैभव है दूसरी ओर प्रभु दर्शन, एक ओर प्रेम मर और दूसरी ओर श्रेय है।

ऋषियों का संकेत है जो प्रेम मार्ग को चुनता है उनका विनाश हो जाता है और जो श्रेय का मार्ग आलम्बन करता है उसका कल्याण हो जाता है। इसलिये कल्याण के पथिक खूब सोच लें और समझ लें कि किधर लाभ है इसी में तुम्हारी परीक्षा है जो श्रेय को चुनता है वह पास और जो प्रेम को चुनता है वह फेल है।

परिग्रह परिणाम आपने पढ़ा और अपरिग्रह का फल सुनें योगिराज पतञ्जलि जी महाराज लिखते हैं :-
अपरिग्रह स्थैर्य जन्म कथन्ता सम्बोधः।

अपरिग्रह की प्रतिष्ठा होने पर योगिराज को अपने पूर्व जन्म का पता चल जाता है कि मैं क्या था और कहां था त्याग से अन्तःकरण निर्मल और सात्विक हो जाता है और अन्तःकरण के निर्मल होने पर जन्मान्तर के संस्करों का साक्षात कार करने में योगी सफल हो जाता है। हर मनुष्य को अपने अतीत को जानने की इच्छा लगी रहती थी परन्तु सर पटकने पर भी कोई कुछ जान नहीं पता। परन्तु योगी इसमें सफल हो जाता है। यह साधारण कार्य नहीं है। इसीलिए तो योग से बढ़कर कुछ नहीं।

१. शुगर वाले मरीज को सैर जरूर करनी चाहिए, यह उसके लिए वरदान है क्योंकि सैर से आधी शुगर खत्म हो जाती है। अतः नियमित रूप से सैर कारण अत्यन्त आवश्यक है।

२. शुगर वाले मरीज को कुछ भी हो सकता है। मोटे होते रहना-पतला होते रहना, गुर्दे खराब हो जाना, बाल सफ़ेद होना, आँखों का खराब होना बहुत सी बातें रहती हैं। तनाव से भी शुगर को बढ़ावा मिलता है।

३. शुगर वाले मरीज को ज्यादातर जूता पहनना चाहिए क्योंकि शुगर वाले मरीज के पैर पर चोट लगाने पर जल्दी से ठीक नहीं होती। चप्पल कम से कम पहननी चाहिए। जूता तंग भी होना चाहिए और अधिक खुला भी नहीं होना चाहिए। अच्छी कंपनी का आरामदेह जूता ही लेना चाहिए।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

समस्त भारत में अमरूद की उनके प्रजातियां पायी जाती है। इसमें शर्करा, कैल्शियम व आक्जलेट सहित विटामिन की खान होने के कारण अत्यंत ठंडा पौष्टिक व स्वादिष्ट अमरूद का फल संपूर्ण भारत में पाया जाता है।

अर्श-भगंदर (बवासीर) - २५० ग्राम अमरूद का खाली पेट सुबह सेवन बवासीर में लाभकारी होता है।

एसिडिटी - एक-एक ठंडा अमरूद दिन में तीन बार प्रतिदिन १५ दिनों तक सेवन करने से एसिडिटी ठीक हो जाती है।

खांसी - १००-२०० ग्राम पका अमरूद लेकर आग पर सेंक कर दिन में दो बार खाने से खांसी ठीक हो जाती है।

चर्मरोग - पके अमरूद का २०० ग्राम की मात्रा में दिन में चार बार सेवन लाभकारी है।

दंत-शूल - अमरूद के पत्तों को पान की तरह चबाने से लाभ होता है।

पेट दर्द - १० से २० मि.ली. अमरूद के पत्तों का रस निकालकर इसमें ५० मि.ली. जल मिलाकर पांच बार पिने से पेट का दर्द ठीक हो जाता है।

प्रतिश्याय (जुकाम) - २०० ग्राम पका अमरूद लेकर उसमें दो ग्राम काला नमक मिलाकर दिन में तीन बार सेवन करने से जुकाम ठीक हो जाता है।

मलेरिया - २५० ग्राम पका अमरूद लेकर उसके बीज निकाल दें। इसमें ३-३ ग्राम काली मिर्च पाउडर व काला नमक मिलाकर प्रातः साय लेने से मलेरिया रोग में आराम मिलता है।

मुंह के छाले - एक नग अमरूद का अधपका पता लेकर उसमें से दो ग्राम कत्था का चूर्ण डालकर पान की तरह चबाकर चूसें। मुंह के छले ठीक हो जाएंगे।

विसूचिका (हैजा) - दस ग्राम अमरूद की छाल का चूर्ण लेकर इसमें बीस मि.ली. पानी डालकर ५० मि.ली. रह जाने तक उबाले लें फिर छान लें। इसकी १५ मि.ली. मात्रा का दिन में छः बार सेवन हैजा में लाभ देता है।

संग्रहणी - अमरूद की कोपल का बीस मि.ली. काढ़ा बनाकर इसमें दो ग्राम काला नमक मिलाकर दी में चार बार से कुछ ही दिनों में संग्रहणी ठीक हो जाती है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का अध्ययन मनन एवं गहन विचार मन्थन करने पर पता चलता है कि उसमें आदिकाल से प्रकृति की अर्चना आराधना और पूजा के भाव पूर्णतया व्याप्त हैं। हमने प्रकृति में ईश्वर का साक्षात् रूप देखा। हमारे वेद पुराण और उपनिषद् आगम-निगम तथा समस्त लौकिक साहित्य यही संकेत करते हैं कि मनुष्य और प्रकृति के बीच गहरी आत्मीयता व्याप्त है। हमारी संस्कृति के पौर-पौर में प्रकृति का वास है। भारतीय संस्कृति की जड़ों में जिन सूत्रों ने अमृत सिंचन किया वे सभी प्रकृति से प्राप्त हुए हैं। संस्कृति ने ही हमारे विचारों को पवित्र रखा और इन्हीं विचारों के आधार पर हम प्रकृति को प्रदुषण रहित रखने में सफल हुए हैं। हमारी यही विशेषता है कि हमने प्रकृति और संस्कृति के सहचर्य के महत्व को शताब्दियों पूर्व से ही स्वीकारा है। भारतीय मनीषा ने सबसे पहले उसे पहचाना और लोक मंगल के लिए इसका उपयोग किया। जो संस्कृति तपोवनों में पल्लवित और पोषित हुई उसकी आत्मा में प्रकृति का वास था। शुद्ध पर्यावरण ही उसकी शक्ति थी। भारतीय वाङ्मय ने तो आदिकाल से ही प्रकृति के महत्व को स्वीकार कर लिया था। वैदिक ऋचाएं था पौराणिक आख्यान, उपनिषद्या गीता का दर्शन या पंचतंत्र और जातक कथाओं का सार सभी में वह महातत्व निरन्तर प्रवहमान रहता है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।

भारतीय लोक जीवन प्रकृति की गोद में पला, प्रकृति में उसे मां का वात्सल्य मिला। यही कारण है कि प्रकृति-हवा जल, मिट्टी वृक्ष सम्पदा के प्रति सहृदय रहे। कभी भी निर्दय और कठोर होकर प्रकृति पर कुठारघात नहीं किया। हमारी इस प्रकृति स्तुति का अन्य लोगों ने गडरिया गीत कहकर मखोल उड़ाया किन्तु आज उसके महत्व को सभी स्वीकारने लगे है।

आज समस्त संसार में पर्यावरण रक्षण की चेतना जग चुकी है। पर्यावरण के प्रदुषण ने सारे संसार के अस्तित्व को ही चातरे में डाल दिया है। विकसित देशों की आर्थिक लिप्सा ने ही प्रकृति के इस तरह के विध्वंस का सूत्रपात किया है। परन्तु भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की रक्षा संवर्ध्दन, उसका पोषण, उसकी शुद्धि और पवित्रता उतनी ही आवश्यकता समझी गई जितनी हमारे जीवन की ललक और अन्तर चेतना रहती है। हमारा पुरातन साहित्य शब्दों की खोखली यात्रा भर नहीं है। वह तो प्रकति की महा आरती है। इसे शुद्ध रखने के लिए हम तपोवनी में भी महायज्ञ करते रहे। हमने जिस समष्टि में विचार किया उसमें वनस्पति जगत से लेकर सम्पूर्ण जीवन-जगत सम्मिलित था। न तो हमने पशुओं के साथ कभी पाशविकता बरती और न वनस्पति जगत का शील भंग किया। हरियाली से भरे पर्वत वनखण्ड शीतल डाल और निर्मल जल की सरिताएं शुद्ध और स्वास्थ्य वर्धक पवन के झकोरे और प्रदुषण रहित अग्नि पिंड सभी हमारे जीवन के आवशयक तत्व थे। कुछ आग भी है। यह भी सत्य है कि पर्यावरण के सरंक्षण के लिए भारतीय समाज ने अनेक बलिदान दिए हैं। प्राणों का उत्सर्ग करके भी पर्यावरण की रक्षा की है।

प्रकुति में देव के वास को माना है किन्तु सभ्यता के पट-परिवर्तन के साथ ही समूचा विश्व पर्यावरण की समस्याओं से परेशान है, उद्वेलित है। प्रकृति के सतय अमानुषिक छेड़-छाड़ करके इंसान ने अपनी आत्म हत्या का नुस्खा स्वयं तैयार किया है। विकास के नाम पर विश्व ने जो अराजक विजय यात्रा की है। उसकी आखरी मंजिल विनाश के स्टेशन की ओर ले जाने वाली है। भारतीय मनीषा इस स्थिति में सजग है। मानवता के स्वास्थ्य के हितमें आवश्यक है कि पर्यावरण भी स्वस्थ रहे। उसका मिजाज नहीं बिगड़े और लगातार आक्रमण झेलने के कारण गुस्से में आकर कहीं वह प्रतिशोध के भाव नहीं जमा बैठे। यदि ऐसा हुआ तो करोड़ों को काल अपना ग्रास बना बैठेंगे। रहेगा सिर्फ पछतावा, सिर्फ पछतावा।

पर्यावरण ने हमें वह सारी भौतिक सम्पदा दी है जो हमारे जीवन को आत्म निर्भर बनाने के लिए प्राप्त है। धुप पवन, पानी धरती बिना किसी बंटवारे के मानव को बख्श दी गई। कहीं कोई प्रदुषण नहीं था। शुद्ध अन्य और शुद्ध मन साथ-साथ चल रहे थे कि अचानक प्रदुषण राक्षसी जग गई और उस पिशाचिनी ने पाश्चात्य देशों के 'घट' में आकर संसार को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया। जंगल साफ हो गए, लाचार वन वृक्षों को बिलखने लगे, पशु-पक्षी और अन्य जीवों की प्रजातियां होने लगी। वातावरण धुएं से भरा गया। फेफड़े शुद्ध वायु को तरस गए। ओजोन की परत पतली होती गई और उसमें छेद भी हो गया। कार्बन डाइऑक्साइड कहर ढाने लगीं। ग्रीन हाऊस गैसें अपनी पूरी तीव्रता के साथ धरती को तपाने लगी। तापमान बढ़ता चला गया, मिट्टी रसायन पी-पी कर उर्वरा शक्ति से हाथ धो बैठी। पानी में कचरा अपशिष्ट और दूषित पदार्थ मिलते-मिलते उसका शीलभंग हो गया। विकास के नाम पर मनुष्य की ताबड़ तोड़ यात्रा कहीं भोपाल की गैस त्रासदी, कहीं धरती धसकना, कहीं भूकम्प, अकाल हमारी किस्मत की रेखा बन चुके हैं। भारतीय संस्कृति का अनुसरण ही एक बचाव का उपाय है। वन सम्पदा की सुरक्षा व बढ़ावा ही प्रदुषण से बचा सकती है। इसका विनाश जीवन के विनाश का न्यौता है। अत्यधिक भौतिक साधन नहीं, शुद्ध पर्यावरण को खतरे हैं। इनका सिमित प्रयोग ही जीवन की सुरक्षा है। आइये इन खतरों से निजात पाने के लिए पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्रकृति की आरती में लग जाएं।

Indian Culture and Environment | Importance of Nature | 

हजारों वर्ष से लहसुन का प्रयोग चीन, जापान, रोम, भारत, मिश्र, बेबीलोन अदि में किया जाता रहा है। इन देशों के निवासियों का मानना है कि लहसुन द्वारा फेफड़ों, पेट का फूलना, पेट में कीड़ा, श्र्वास संबंधी संक्रमण, त्वचा रोग, चोट आदि व्याधियों का उपचार किया जा सकता है। रूढ़िवादियों का विश्वास है कि लहसुन पापदृष्टि, भूत पिशाच, डायन अदि को भागता है। साथ ही यह भी मानते है कि यह शरीर की किसी भी व्याधि के लिए रामबाण से कम नहीं है और अब विश्वस्तर पर शोध करने के पश्चात् यह प्रमाणित हो चूका है की प्रकृति का यह तोहफा जीवाणुनाशक है। यही नहीं यह फफूंद विरोधी भी होता है। लहसुन के अंदर २२ गुण समाहित होते हैं। यह एक दर्दनिवारक औषधि एनोडाइन की भंति कार्य करता है। यह दमविरोधी है अर्थात् दमा के आक्रमण होने से यह बचाव करता है। यह मधुमेह विरोधी भी है। बुखार के समय यह किसी बुखार की औषधि से कम लाभकारी नहीं होता है। लहसुन फफूंद विरोधी है। शरीर की रक्षा करता है, जो शरीर के विकसित हो रही पथरी को रोकता है तथा न्यूनतम ज्वर को शांत करता है। यह कामोद्दीपक, रक्तस्त्राव विरोधी, एंटीसेप्टीक, मरोड़ अथवा ऐंठन विरोधी है। यह त्वचा को मुलायम करता है तथा जमा हुआ कफ निकालता है। यह छाती के रोगों में भी लाभकारी है। या यूं कहिये कि लहसुन किसी भी प्रकार के रोगों से व्यक्ति को मुक्ति दिलाता है। लहसुन के नियमित उपयोग से आप बढती उम्र में भी युवापन का अहसास करते है। शरीर को पुरुषार्थ प्रदान करता है। यह भूख बढ़ता है, शरीर के अंदर एकत्र मवाद को बाहर निकालता है, आंत के कीड़ों को निकलता है तथा घावों को शीघ्र भरता है।

लहसुन इन व्याधियों से भी शरीर की रक्षा करता है, जैसे कील मुहांसे, अम्लता, एनीमिया, एलर्जी, अपेंडिसायटिस, जाड़ों की सूजन, कुत्ते के काटने, मूत्राशय की शिकायतें व तकलीफ व रक्तदाब। ताजा लहसुन (दो माह पुराना लहसुन नहीं) ही चिकित्सा में लाभकारी है।

प्रतिदिन एक लहसुन को चबा-चाबरक खाया जाये तथा उसके अर्क से तैयार शर्बत का नियमित सेवन किया जाये तो सभी बिमारियों से छुटकारा पाया जा सकता है। प्राचीन रोम और यूनान में लोगों का मानना था कि लहसुन से तैयार रस के सेवन से पुरुष के पुरुषार्थ में वृद्धि होती थी। कुछ देशों के लोग लहसुन को एक बहुत शक्तिशाली संपत्ति के रूप में मानते हैं और इसकी गंध से सांप तथा बिच्छू भाग जाते हैं।

प्रतिदिन एक या दो कली लहसुन के नियमित सेवन करे से शरीर में चर्बी का जमानव नहीं होता है। लहसुन कोलेस्टेराल को बढ़ता है। तेमंड में यह लिखा है कि लहसुन का सेवन भूख को बढ़ाता है तथा मस्तिष्क को सक्रियता प्रदान करता है। चेहरे के सौन्दर्य को बरकरार रखता है।

लहसुन यहूदियों के समय से ही खाने का एक विशेष और आवश्यक भाग रहा है। लहसुन के बारे में माना जाता है कि यह शरीर को गर्मी, ताजगी प्रदान करता है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

बेल एक प्रसिद्ध फल है। यह देश के लगभग सभी भागों में पाया जाता है। मई और जून के महीने में फल देने लगता है।

बेल का वृक्ष प्रायः जंगलों में पाया जाता है। अब इसे बागों में भी उगाया जाता है। बेल के वृक्ष की ऊंचाई लगभग बीस-पच्चीस फुट होती है। बेल के पत्तों में तीन चार पत्रक होतें हैं। पत्रों के बीच में कांटे होते हैं। फरवरी माह में इस वृक्ष पर फल आने शुरू हो जाते हैं। बेल के फूल सफेद अथवा हल्के हरे रंग के छोटे-छोटे गुच्छों में बड़े सुन्दर और मधुर सुगन्ध लिये हुए होते हैं। इसक फल गोल तथा बड़ी गेंद के आकर का होता है। फल का छिलका कठोर होता है। यह पकने पर हल्के नारंगी रंग का हो जाता है। पक्की हुई बेल सुगन्धित होती है। इसके अंदर का गूदा पीला होता है और उसमें सफेद रंग के बीज होते हैं। बेल वृक्ष की पत्तियां, छिलका, डाली और जड़ भी प्रयोग में आती है। ग्रंथों में बेल को रसायन का नाम दिया गया है। यूनानी चिकित्सकों का मत है कि बेल एक पाचक और शक्तिवर्द्धक फल है।

इसे व्यापक गुणों से विदेशी डॉक्टर भी प्रभवित हुए हैं। डॉ० डीमक लिखते है कि बेल रक्तशोधक, मलरोधक और पौष्टिक फल है। डॉ० ग्रीन का दावा है कि बेल का शर्बत नित्य सवेरे पीने से अजीर्ण नष्ट हो जाता है।

हिन्दू धर्म में बेल का एक पवित्र वृक्ष माना गया है इस दृष्टि से बेल के वृक्ष का प्रत्येक भाग कल्याणकारी होता है। इसकी पत्तियां बेल-पत्ती के रूप में शिवजी पर चढ़ाई जाती हैं। पदम् पुराण में वर्णन है कि मदार पर्वत जाते हुए पार्वती के पसीने की बूंद से बिल्व (बेल) नाम वृक्ष की उत्पत्ति हुई। कारण कुछ भी रहता हो, किंतु यह तो सत्य है कि बेल का वृक्ष वातावरण को आरोग्यपूर्ण बनाता है। इसके फल का स्वाद भी बहुत मधुर और शीतलता प्रदान करने वाला है। बेल का फल, लकड़ी हमारे बड़े उपयोगी है। इसके गूदे, पत्तों तथा बीजों में उड़नशील तेल पाया जाता है। फल में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, कार्बोहाइड्रेट आदि तत्व पाये जाते हैं। बेल स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी फल है। मेदा और आंतों के लगभग सभी विकारों में हितकर है। बालकों की संग्रहणी या अतिसार में बेल बहुत लाभदायक है। सूखे गूदे का चूर्ण सुबह पानी के साथ लेने से भूख को बढ़ता है और आंव का नाश करता है। गले की पीड़ा को शांत करता है।

बेल पत्रों का रस छः माशे दिन में तीन बार लेने से कृमि नष्ट हो जाते हैं। बेल का शरबत और मुरब्बा गर्मियों में बहुत लाभकारी है। यह घावों को भी अतिशीघ्र भरता है। इसका गूदा पुषिटकारक है। बेल की लकड़ियां हवन के काम में ली जाती है।

राम वनवास के समय पंचवटी में जिन पांच प्रमुख वृक्षों का वर्णन मिलता है उनमें से बेल वृक्ष एक है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

एक कप गाजर का रस लगातार दस दिनों तक सुबह खाली पेट पीने से समस्त कीड़े बाहर आ जाते हैं।

गन्ना पीलिया रोग में बहुत लाभदायक है। इसके रोगियों को प्रतिदिन गन्ने का रस पीना चाहिए।

यदि बार-बार पेशाब आने की शिकायत हो तो दो तीन आंवलों का रस पानी में मिलाकर सुबह-शाम तीन दिन तक पीना चाहिए।

यदि नाखूनों की चमक फीकी पड़ने लगी हो तो उनमें निखार लाने के लिए नाखून पर सप्ताह में दो बार नींबू का रस मलना चाहिए।

यदि मुंह में छाले हो गये हों तो तुलसी के पत्तों का रस पानी में मिलाकर कुल्ले करने से लाभ होगा।

पेट दर्द हो रहा हो तो भुनी हुई सौंफ खाने से तुरंत राहत मिलती है।

यदि लू लग गई हो तो सूखे हुए मेथी के पत्तों को पानी में भिगोकर मसलकर छान लें और इस पानी में शहद मिलाकर पिएं।

यदि बिच्छू ने काट लिया हो तो प्रभावित स्थान पर मूली के टुकड़े घिसने से विष का प्रभाव कम होता है।

यदि बाल तेजी से झड़ने लगे हों तो एक लीटर पानी में आधा चमच्च सिरका मिलाकर सिर धोना चाहिए। कुछ ही दिनों में बालों का झड़ना रुक जाएगा।

यदि शरीर का कोई अंग जल गया हो तो उस पर अंडे की सफेदी लगाने से दर्द एवं जलन से राहत मिलती है।

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

कटहल के फल से भला कौन अपरिचित होगा। पूरे देश भर में सहजता से उपलब्ध होने वाला यह फल बहुत पौष्टिक माना गया है और अनेक रोगों में घरेलू औषधि के रूप में भी काम आता है। यहां कटहल के कुछ औषधीय प्रयोगों की जानकारी दी जा रही है-
दुबले-पतले पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को पका कटहल दोपहर में खाकर कुछ देर आराम करना चाहिए।

कटहल के वृक्ष की कलियों को कूटकर गोली बना लें। इस गोली को चूसने से स्वरभंग व गले के रोग में फायदा होता है।

कटहल व आम्रवृक्ष की छाल का रस निकालकर उसमें चूने का निथार वाला पानी मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पीने से रक्तातिसार एवं हैजा में लाभ होता है।

कटहल के अंकुर घिसकर चुपड़ने से, यदि मुंह फटा हो तो उसमें फायदा करता है।

कटहल की लकड़ी को घिसकर उसमें कबूतर की बीट और २-३ मि.ग्रा. तैयार चुना मिलाकर भयंकर से भयंकर फोड़े पर लेप कर दीजिए। राद्धि में लेप कीजिए, सुबह फोड़ा फुटकर पीप बाहर निकल जाएगी।

पका कटहल का फल कफवर्धक है, अतः सर्दी-जुकाम, खांसी, अजीर्ण, गुल्म, दमा आदि रोगों से प्रभावित व्यक्तियों एवं गर्भवती महिलाओं को कटहल खाने के बाद पान खाने से पेट फूल जाता है और खतरा होने का डर रहता है। अतः भूलकर भी कटहल के बाद पान न खाएं।

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इलायची जो संपूर्ण औषधि है, हमारी शान-ओ-शौकत का भी है। इलायची जहां दूसरों को पेश करने का अजीबो-गरीब तोहफा है, वहीँ मुंह की दुर्गन्ध दूर करने की महौषधि भी है। इलायची भारत में उगाए जाने वाले पौधे से प्राप्त होती है। उसकी सबसे जायदा पैदावार तमिलनाडु, केरल और कर्णाटक में होती है। इसकी पैदावार के लिए ढलवां और नमीयुक्त भूमि सर्वोत्तम होती है। इलायची अपनी अत्यधिक सुगंध एवं विशिष्ट स्वाद के कारण विश्वविख्यात है। इसी कारण इसका विदेशों में बहुतयात से निर्यात होता है। यह जहां विभिन्न व्यंजनों में प्रयोग होती है, वही असंख्य रोगों की रामबाण दवा भी है इलायची को भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। इसे वनस्पति शास्त्र में 'कार्डिमम' नाम दिया गया है। बांग्ला में इसे ' छोटी इलायची' संस्कृत में 'एला' और गुजरती में 'एलर्जी' कहते हैं। इसे मान-प्रतिष्ठा का सूचक भी कहा गया है। इसके संबंध में लोकोक्ति चरितार्थ है कि 'मान-सम्मान हेतु सिर्फ एक इलायची ही पर्याप्त है।' जहां भोजन के बाद सौंफ या मिश्री पेश की जाती है वहीँ इलायची भी दी जाती है। इलायची के आभाव में सौंफ और मिश्री दोनों ही अधूरे लगते हैं। लेकिन सौंफ और मिश्री बिना इलायची अकेले ही रंग जमाने में समक्ष है। इलायची को कुछ लोग मुंह की खुश्की दूर करने के लिए भी खाते हैं। पान में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है।

इलायची जहां खीर, चाय, आइसक्रीम और अन्य व्यंजनों में भरपूर स्वाद के लिए इस्तेमाल की जाती है, वहीँ अनेक रोगों की चिकित्सा में भी यह सहायक है। घी, तेल से बना खाद्य पदार्थों के अधिक सेवन से बदहजमी होने के समय इलायची का प्रयोग लाभप्रद होता है। मोटापा कम करने के लिए भी इलायची का सेवन किया जाता है। पीलिया जैसे भयंकर रोग में भी इसका रस पीना रामबाण सिद्ध हुआ है। इलायची की तासीर ठंडी होने के कारण यह बवासीर रोग हेतु फायदेमंद होती है। कब्ज, पित्त, कफ जैसे विशिष्ट रोगों की चिकित्सा में भी इलायची लाभदायक है।

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आधुनिक जीवनशैली के तहत लोग अपने आहार के प्रति उतने सजग नहीं है, जिसमें वे भोजन का समय एवं पोषण मूल्यों का ध्यान रख सकें। परिणामस्वरूप झटपट भोजन (फास्ट फूड) के दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। इसमें एसिडिटी, कब्जियत आदि शामिल हैं। आयुर्वेद में अनेक आहार, व्यंजनों का वर्णन है, जिन्हें हम फास्ट फूड के रूप में प्रयोग कर सकते हैं या उसे हम 'आयुर्वेदिक फास्ट फूड' कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह फास्ट फूड शरीर को पोषण प्रदान करने के साथ-साथ स्वास्थ्यवर्धक भी हैं। कुछ आयुर्वेदिक फास्ट फूड- धाना (कॉर्न) धान, जौ अदि को भूनकर धाना बनता है। वर्तमान में 'केलॉन्ग्स' इसका एक प्रकार है, जो मक्के से निर्मित होता है। आयुर्वेद में धान या जौ से निर्मित धाना बहुत अधिक गुणकारी है। इसमें दूध एवं शक्कर मिलाकर सेवन करने पर यह शरीर के बल को बढ़ाता है। पचने में हल्का व पोषण प्रदान करता है। अतः इसका प्रयोग नाश्ते के रूप में किया जा सकता है। पोषण के अतिरिक्त यह कंठ, नेत्र के रोग, उल्टी-दस्त होने पर अच्छे भोजन का विकल्प है। रोग नियन्त्रण के लिए भी इससे मदद मिलती हैं।

सत्तू - धान, चना तथा जौ अदि धन्यों को भूनने एवं पीसने पर वह सत्तू कहलाता है। यह फास्ट फूड का अच्छा विकल्प है। सत्तू में थोड़ी मात्रा में घी एवं शक्कर मिलाकर पानी डालकर पेस्ट बनाकर खाने पर यह तुरंत शरीर में बल प्रदान करता है। सत्तू में शहद मिलाकर सेवन करने पर मोटापा एवं केवल पानी मिलाकर सेवन करना मधुमेही रोगी का आदर्श भोजन है। गर्मी में सत्तू का प्रयोग प्यास को भी कम करता है एवं बलदायक है।

पृथुका (चिवड़ा) - चावल, जौ को भिगोकर भून लेने पर यह पृथुका कहलाता। वर्तमान समय में प्रचलित पोहा भी इसी का प्रकार है। इसको पानी में भिगोकर दूध एवं शर्करा डालकर सेवन करने पर यह स्निग्ध, मलभेदक एवं वातशामक है।

लप्सिका (लप्सी) - बारिक गेहूं के आटे को हल्का भून लें और इसमें मात्रानुसार शर्करा एवं दूध डालकर पकाएं। इसे आंच से उतारकर इसमें लौंग चूर्ण, काली मिर्च एवं इलाइची चूर्ण डालें, यह लप्सिका है।

पिंडरी (इडली) - उड़द एवं मुंग की पिठी बनाकर उसमें नमक, हींग, जीरा व अदरक मिलाकर पिंडाकार बनाकर भाप में पकाएं एवं घी में तल लें। इसे सूखा या इमली की चटनी से खाया जाता हैं। यह बलकारक, क्षुधा शांत करने वाली, शुक्र बढ़ाने वाली है।

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स्वस्थ रहने का उपाय क्या है या हम बीमार क्यों पड़ते हैं? सामान्यतः व्यक्ति ऐसे प्रश्‍नों पर विचार करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता। इसलिये छोटी-मोटी पीड़ा, जैसे- सिर-दर्द, जुकाम, खाँसी या ज्वर होने पर अज्ञान के कारण घबराकर वैद्य या डॉक्टर के पास पहुँचता है और दवा के प्रभाव से रोग का लक्षण शान्त होने पर वह पुनः अपने काम-काज में लग जाता है। कुछ शान्त प्रकृति के धैर्यवान् व्यक्ति बीमार होने पर उसका कारण ढूँढने का प्रयास करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि उनसे सम्भवतः कुछ भूल हुई है। इस प्रकार के व्यक्ति भी खान-पान तथा रहन-सहन में तात्कालिक (स्वास्थ्य सुधरने तक) थोड़ा परिवर्तन करते हैं, किन्तु साथ-साथ दवा भी लेते हैं। ऐसे व्यक्ति अपेक्षाकृत अल्पकाल में स्वास्थ्य लाभ करते हैं।
जैसे मोटर बिगड़ने पर गैरेज में भेजकर ठीक करायी जाती है, वैसे ही लोग भी बीमार होने पर अपने शरीर को डॉक्टर को सुपुर्द कर देते हैं। आजकल चूँकि बीमारियों की संख्या बढ रही हैं, इसलिये आर्थिक दृष्टि से यह प्रक्रिया विशेष महँगी पड़ती जा रही है।
शरीर का स्वस्थ रहना अत्यन्त स्वाभाविक है, उसका सहज धर्म है और रोगी होना एक आकस्मिक घटना है। हमारा वर्तमान जीवन इतना अस्त-व्यस्त तथा तेज हो गया है कि अब किसी-न-किसी रोग से पीड़ित रहना उसका स्वभाव बन गया है। आज का व्यक्ति यह मानता है कि थोड़ा-बहुत अस्वस्थ रहना शरीर की स्वाभाविक अवस्था है। आधुनिक जीवन-क्रम में स्वस्थ रहने के लिये मनुष्य को विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, क्योंकि वर्तमान जीवन-क्रम शरीर को रोगी बनाये रखने का एक व्यवस्थित प्रयास ही है।
वर्तमान आहार-विहार में पञ्चतत्त्व के आधार पर मौलिक परिवर्तन किये बिना शरीर तथा मन को स्वस्थ रखना केवल हवाई-कल्पना सिद्ध होगी।
शरीर में रोग क्यों और कैसे होता है, इस पर थोड़ा विचार कर लें। गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जायगा कि हम लोग प्रतिदिन निःसंकोच प्राकृतिक नियमों का जाने-अनजाने उलंङ्गन करते रहते हैं।
आहार में असंयम- आहार-सम्बन्धी अनेक गलत धारणाओं तथा आदतों के कारण पेट की गड़बड़ी प्रायः सर्वदा बनी रहती है। यदि कभी एकाध दिन पेट साफ हो गया तो अहोभाग्य मानते हैं। कई लोगों को बचपन से कभी अच्छी तरह खुलकर दस्त होने की बात करते नहीं सुना तथा उन्होंने कभी तेज भूख का आस्वादन नहीं किया। बहुत-से बच्चे सब्जी खाना पसंद नहीं करते। मिठाईयाँ तथा तली हुई वस्तुएँ हमारे भोजन में प्रतिदिन होने का आग्रह हम लोगों का रहता है। फलतः होटलों तथा दवाखानों की संख्या बढती जा रही है।
श्रम की कमी या अभाव- आहार की ज्यादती तथा श्रम या व्यायाम की कमी अथवा पूर्णतः अभाव हमारे जीवन के कटु सत्य हैं। परिणामतः शरीर एक चलता-फिरता रोग-खाना बना रहता है, अर्थात् कोई-न-कोई रोग शरीर को खाता रहता है। पेट में वायु हो रही है, सिर भारी है, भूख नहीं लगती, मन में अस्थिरता है। इस रोग-खाने वाले शरीर को दवाखाने की आवश्यकता रहती है। इसी कारण श्रम किये बिना खाना हजम करने तथा दस्त साफ लाने के लिये पाचक एवं दस्तावर औषधियों का प्रचुर प्रचार बढ रहा है।
आजकल लोगों का जीवन मानसिक तनाव से परिपूर्ण है, जिससे शरीर की स्वाभाविक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। चिन्ताओं से घिरे रहने के कारण सिर में भारीपन, अनिद्रा, कब्ज, मन्दाग्नि आदि लक्षण स्वाभाविक हो गये हैं।
हलका व्यायाम जैसे- खुली-ताजी हवा में घूमना या खोखो, रूमाल-चोर, बैडमिंटन, रिंग आदि खेल खेलने से मानसिक तनाव तुरंत कम होता है। इससे प्रसन्नता बढती और शरीर में हलकापन आता है। मीठी थकान लगने पर नींद भी अच्छी आती है और सिर-दर्द तथा कब्ज भी दूर हो जाता है।
दैनिक जीवनचर्या में मानसिक तथा शारीरिक श्रम का संतुलन आरोग्य की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। शक्ति के अनुसार श्रम या व्यायाम के बिना शरीर को स्वस्थ रखना असम्भव है।
युक्त विश्राम का असंतुलन- रात को देर से भोजन करना, देर तक जागते रहना, सिनेमा या क्लबों में जाना आदि प्रवृत्तियाँ दिन-पर-दिन सभ्यता में गिनी जाने लगी हैं। बड़े शहरों में सम्भवतः ही कोई साढे दस या ग्यारह बजे के पूर्व सोता हो। देर से सोने के कारण प्रातःकाल भी ये देर से अर्थात् साढे छः-सात बजे तक उठते हैं। कभी-कभी नींद न आने पर भी प्रातःकाल का अमूल्य समय बिस्तर में सिर ढँककर कृत्रिम अँधेरे में बिता देते हैं। कई लोग तो आठ बजे के पूर्व उठते ही नहीं और इसका वर्णन वे ऐसे करते हैं, मानों वह कोई शानकी या वीरता की बात हो।
प्रातःकाल का अमूल्य समय नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रार्थना, स्वाध्याय, शरीर-श्रम या व्यायाम, घूमने में व्यतीत करने से तन और मन दोनों स्वस्थ-प्रसन्न रहते हैं।
शक्ति के अनुसार श्रम किये बिना अच्छी सुखद निद्रा दुर्लभ है। अनेक उच्चवर्गीय लोगों की रातें अनिद्रा या तन्द्रा में कटती हैं। कभी-कभी ये लोग नींद की गोलियों का प्रयोग करते हैं, जिससे कुछ तन्द्रा-सी आ जाती है, किंतु प्रातः ताजगी नहीं आती।
आहार में संयम तथा श्रम या व्यायाम में नियमित होने पर शरीर अपने विश्राम का स्वाभाविक मार्ग अपना लेता है।
मानसिक तनाव- मानसिक तनाव हमारे जीवन का सबसे कमजोर पहलू है। शरीर अस्वस्थ रहने के कारण मन खिन्न बना रहता है। स्वभाव कुछ चिड़चिड़ा हो जाता है। परिणामतः ईर्ष्या, द्वेष, लोभ आदि विकार मन में अनजान में पलते रहते हैं। इससे मनुष्य स्वयं तथा दूसरों का कष्ट में डालता है।
प्रार्थना, सद्ग्रन्थों का अध्ययन, नामस्मरण, ध्यान तथा विवेक एवं विचार के अनुसार जीवन व्यतीत करने का प्रयास किया जाय तो गलत आदतें अनायास छूटती जाती हैं। ऐसे व्यक्ति का आहार-विहार क्रमशः संयमित तथा प्राकृतिक होता जायगा। ईश्‍वर की सत्तापर दृढ विश्‍वास रखने से मन का बोझ हलका होने लगता है।
महातत्त्वों से दूरी- बच्चों को आवश्यकता से अधिक कपड़ों में लपेटकर रखना, वर्षा और धूप से बच्चों को सदा डरते हुए बचाते रहना आदि सभी आदतें शरीर के स्वाभाविक विकास में बाधक हैं।
गाँवों की मजदूर माताएँ अपने बच्चों को टोकरी में रखकर लाती, ले जाती हैं। ठंड के मौसम में ये बच्चे टोकरी में खुले बदन या बहुत कम कपड़े पहनकर खेलते रहते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार में गरीब माताएँ कड़ाके की सर्दी में बच्चों को गोद में उठाकर बाहर घूमती हैं। इन बच्चों का स्वास्थ्य प्रायः सुन्दर रहता है।उधर अमीर या मध्यम वर्ग के बच्चे सिल्क, नायलान, टेरेलीन आदि के कीमती, लेकिन हवा से आरक्षित अवस्थाओं में पलते हैं। जिन बच्चों को इस प्रकार हवा, धूप, पानी आदि से बचाया जाता है, उन्हें थोड़ी खुली हवा लगने पर सर्दी, जुकाम, खाँसी तथा धूप में थोड़ा चलने पर ज्वर भी आ सकता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर प्रकृति से दूर रहने का प्रयास करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य नाजुक बना रहता है।
श्रम, व्यायाम या कसरत आदि के अभ्यास से ये नाजुक बच्चे प्रकृति की गोद में पूरी आजादी से खेल सकते हैं। इससे उनके ऊपर कोई प्रतिकूल परिणाम नहीं होगा, अपितु ये शरीर और मन से अधिक स्वस्थ और सुन्दर बनेंगे।
आजकल वातानुकूल घर में रहने या आफिसों में काम करने वालों का सर्दी या गरमी दोनों सहन नहीं होती। ऐसा प्रसंग आने पर उनको प्रायः जुकाम या सिर-दर्द हो जाता है। बहुत सर्दी या गरमी के अवसरों में ये लोग वातानुकूल स्थान में रहें तो इससे शरीर पर कोई विशेष प्रतिकूल परिणाम नहीं पड़ता। फिर भी सामान्यतः जितना हो सके, स्वाभाविक तापमान के वायुमण्डल में रहना सदा हितकर है। इससे जीवनी-शक्ति बढती है और शरीर की रोग-प्रतिकार-शक्ति में भी वृद्धि होती है।
प्रकृति ईश्‍वर का ही स्वरूप- मन दुःख से भरा हो, किसी कठिन समस्या में उलझा हो, तो ऐसी अवस्था में किसी सुन्दर पहाड़ी झरने के पास केवल शान्त बैठे जाने मात्र से प्रकृति माता व्यक्ति के मानसिक कष्ट को अनजान में ही हर लेती है। जो प्रकृति सूक्ष्म मानसिक कष्टों को दूर कर सकती है, वह स्थूल शरीर के कष्ट को भी सरलता से दूर कर सकेगी, इसमें शंका नहीं है, बशर्ते कि हम उसके पास जाने का कष्ट करें।
कृत्रिम शहरों से दूर, प्रकृति के बीच जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोग हृदय से कितने उदार, निर्मल और भोले हैं। प्रकृति स्वयं उदार और निर्मल है। वह तो ईश्‍वर का प्रत्यक्ष स्वरूप ही है। इसीलिये प्रकृति के बीच रहनेवाले लोग तन और मन दोनों से स्वस्थ और सुन्दर होते हैं। ऋषि, मुनि या साधक लोग इसी कारण पहाड़ों और जंगलों में जाकर साधना करते हैं, जिससे उनके ईश्‍वरीय गुण उच्चतम भूमिका में पहुँचकर स्वयं ईश्‍वरस्वरूप हो जाये।
प्रकृति से सम्यक् सम्बन्ध साधकर मनुष्य आसानी से तन और मन के कष्टों से छुटकारा पा सकता है। केवल प्रकृति के निकट जाने मात्र से मानव में कुछ गुण अवश्य आते हैं, लेकिन मानव की पूर्णता प्रकृति के नियम का पालन करने में है। जब दीर्घकाल तक नियम-पालन किया जाता है, तो फिर उसका बोझ मन पर नहीं होता और वह मनुष्य का स्वभाव बन सकता है। कहावत है- आदत मनुष्य का स्वभाव बन जाती है।

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* उच्चतम स्थिति तक पहुँचने में रूकावटें तो आती ही हैं, ऐसे में उत्साह, धैर्य एवं समझदारी से काम लेना चाहिए।
* प्रत्येक मनुष्य को अपना विवेक जाग्रत करके अपनी कमजोरियों को दूर करना चाहिए।
* अहंभाव से ग्रस्त व्यक्ति को तोड़-फोड़ की बात करने वाले तो अपने हितैषी दिखाई देते हैं तथा जोड़ने की बात करने वाले शत्रु।
* संस्कारवान् व्यक्ति का शरीर स्वस्थ रहता है, मन प्रसन्न रहता है तथा जीवन में खुशहाली बनी रहती है।

* अच्छे संस्कार नैतिक कार्य करवाकर हमें सुख दिलाते हैं, जबकि बुरे संस्कार हमसे अनैतिक कार्य करवाकर हमें दुःख प्रदान करते हैं।
* जीवन का सबसे बड़ा सदुपयोग यही है कि हम अपने अन्दर छिपी क्षमताओं की खोज में लगें और उनका सदुपयोग जीवन-जगत् के कल्याण में करें।
* जिस प्रकार पैर में जूता पहनने वाले व्यक्ति को मार्ग के कांटे व कंकर-पत्थर कष्ट नहीं पहुँचा सकते, उसी प्रकार सन्तोषी मन वाले मनुष्य के लिए सभी दिशाएं सदा सुखमय रहती हैं।
* मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है।
* क्योंकि पृथ्वी पर सुख और कल्याण का आधार सत्य है, इसलिए किसी भी विषय में जब तक झूठ हावी रहेगा, तब तक वहाँ सुख की आशा करना व्यर्थ है।
* जिन मनुष्यों के मन-वचन कर्म एक कार्य को करने से पहले सोच-विचार करते हैं। इसलिए उनके द्वारा कोई ऐसा कार्य नहीं होता, जिसे करके पछताना पड़े।
* समझ लेना और आचरण में ढालना इन दोनों बातों में रात-दिन का अन्तर है। इसलिए केवल समझ लेना ही पर्याप्त नहीं, अपितु समझ लेने के बाद आचरण में ढालना जरूरी होता है।
* जब तक शरीर स्वस्थ है, बुढापे के आक्रमण से बचा हुआ है, इन्द्रियों की शक्तियाँ क्षीण नहीं हुई, तभी तक विद्वान व्यक्ति को आत्म-कल्याण के लिए प्रयत्न कर लेना चाहिए।
* जीवन में सफल मनुष्य बनने के लिए मानसिक पापों का परित्याग अति आवश्यक है, क्योंकि मन में जमी हुई वासना ही मनुष्य को दुष्कर्म करने को प्रेरित करती है।
* सन्तोषी मन धर्म-मार्ग पर अटल रहता है, जबकि असन्तुष्ट मन व्यक्ति को अधर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
* सन्तोष में सदा सुख है और असन्तोष में दुःख।
* जो संसार का हित चाहते हैं, वही मनुष्य उत्तम कथाओं (साहित्य) को कहने-सुनने व पढने में प्रवृत्त होते हैं, जबकि पाप-पारायण लोग पर निन्दा और दूसरों को कष्ट पहुँचाने में ही सुख तलाशते रहते हैं।
* जिसके लिए आप लाभकारी बन जाएंगे, वही आपका प्रेमी बन जाएगा। अतः दूसरों को जीतने का सहज उपाय है कि आप उनके लिए लाभकारी बन जाएं।
* आवश्यकता से अधिक व्यय करना विलासिता है। आवश्यकता वह है, जिसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता है।
* जिस वस्तु या संसाधन के बिना हमारा जीवन-यापन, कार्य-व्यवहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक शिष्टाचार आदि न चल सके, वह हमारी वास्तविक आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त संसाधनों का ढेर एकत्रित करना या उनका उपयोग करना विलासिता है।
* हमारे धर्मग्रन्थों में लक्ष्मी का वाहन उल्लू कहा गया है। इसका सन्देश है कि जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में हमेशा हाय पैसा-हाय पैसा रहेगा, उसे उल्लू कहा जाएगा, जिसे दिन में भी दिखाई नहीं देता इन्हें आँख होते हुए भी अन्धा है। माना जाएगा। आइये! हम स्वयं को देखं कि हम क्या हैं?
* आचार्य चाणक्य का कथन है कि अच्छी सरकार वह है जो कम से कम शासन करे।
* किसी के अच्छे या बुरे कर्म का फल तत्काल प्राप्त न होने पर यह न सोचें कि इन कर्मों का फल आगे नहीं मिलेगा। कर्मफल से कोई बच नहीं सकता, क्योंकि ईश्‍वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और न्यायकारी है।
* जीवन की सफलता कुसंस्कारों पर अपनी आत्मा का नियन्त्रण बनाए रखने में है, मनमानी करने में नहीं।
* विषयभोग सदा ही मनुष्य को अपनी ओर खींचते रहते हैं, लेकिन ज्ञानी पुरुष अपने मन को नियन्त्रण में रखते हैं।
* नित्य स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति दुःखों से मुक्त हो जाता है।
* चरित्र, सेवा और प्रामाणिकता से देश उन्नत होता है।
* सत्ता का कम से कम प्रयोग ही सुशासन है।
* जीवन न तो भविष्य में है और ना ही अतीत में, जीवन तो केवल वर्तमान में है।
* आत्म प्रशंसा मूर्खता की निशानी है।

There are obstacles to reach the highest position, in such a situation, enthusiasm, patience and understanding should be used. Every human being should awaken his conscience and overcome his weaknesses. Those who talk of sabotage, who are obsessed with ego, appear to be friendly and enemies who talk about adding. The body of a person who is cultured remains healthy, the mind remains happy and there is happiness in life.

कटिशूल (कमरदर्द) प्रायः स्त्रियों के प्रदर या बच्चेदानी में विकार के कारण कमर में असहनीय दर्द होता है। उसके निवारण के लिए निम्नलिखित प्रयोग लाभप्रद हैं।
लौहभस्म १२५ मि. ग्रा., वंग भस्म १२५ मि. ग्रा., मुक्ता शक्ति भस्म १२५ मि. ग्रा, राल चूर्ण ५०० मि. ग्रा. यह एक मात्रा है, ऐसी तीन मात्राएं प्रातः- दोपहर-शाम को शहद या जल के साथ लें। कमर दर्द निश्चित अच्छा होता है।

सफेद दाग : सुवर्ण मक्षिक भस्म - १२५ मि. ग्रा., वंग भस्म १२५ मि. ग्रा., आरोग्य वर्धिनी वटी २५० मि. ग्रा। सब दवा मिलाकर एक मात्रा बनायें। ऐसी एक मात्रा सुबह एक शाम खैर की छाल या आंवले के काढ़े से लेने से सब प्रकार के सफेद दाग, एग्जिमा एवं अन्य चर्म रोग अच्छे होते हैं। (१० ग्राम खैर की छाल या आंवले के चूर्ण को १०० मि. ग्रा. शेष छानकर शहद मिलाकर पीयें)।

सफेद दाग दूर करने वाला लेप - अनार के मुलायम पत्ते की लुगदी को दागों में उबटन की तरह नित्य लगायें, बड़ा लाभ होता है। सफेद चन्दन और वाकुचि बीजों को जल से पीसकर दागों में लगाने से भी शीघ्र लाभ होता है।

आमनाशक (पेचिस) चूर्ण - ३० ग्राम सौंफ, ५० ग्राम हरड़ छोटी, १० ग्राम एरण्ड तेल (केस्टर ऑइल) ।
एरण्ड तेल को कड़ाही में डालकर आग पर चढ़ा दें, फिर इसमें पहले हरड़ छोटी को भून ले उसके बाद सौंफ को डाल कर भून लें। दोनों को खरल में डालकर पीस लें। इस चूर्ण को ३ ग्राम की मात्रा में दिन भर में तीन बार जल से देने से सभी प्रकार की खुनी, सफेद, ऑव, पेट की पतले दस्त आदि अच्छे होते हैं। यह अपच की भी अच्छी दवा है।

पेचिस दूर करने वाला एक दूसरा लेप - १/२ ग्राम राल चूर्ण, १/२ ग्राम मिश्री, यह एक मात्रा है, ऐसी तीन मात्राएं (सुबह-दोपहर-शाम), जल से देने से ऑव के दस्त ठीक होते हैं।

गृधसी नाशक योग (सायटिका) - वातगंजाकुश रस १२५ मि.ग्राम, एकांगवीर रस १२५ मि.ग्राम, सुरज्जान मीठा २ ग्राम।
इस तरह की दो मात्रायें दिन में दो बार (सुबह-शाम) महारास्नादि व्कथ ४ चम्मच समान जल मिलाकर दें। गृधसी में १० पत्ती गुड़हल की २५० मि.ली. जल में पका कर जब चौथाई जल शेष रहे शहद मिलाकर पिलाने से भी शीघ्र लाभ होता है।

वेदनाहर वटी - १० ग्राम गोदन्ती भस्म, १० ग्राम श्रृंग भस्म, २० ग्राम स्फुटिका भस्म, २५ ग्राम सुवर्ण गैरिक। सबको जल के साथ घोट कर मटर के समान गोलियां बनायें। २-२ गोली दिन रात में -३-४ बार देने से सब प्रकार के दर्द अच्छे से होते हैं। गोली दूध, चाय या जल से दी जा सकती है।

अम्लता (एसिडिटी) योग - ५० ग्राम सौंफ बड़ी, ५० ग्राम जीरा सफेद, ५० ग्राम मिश्री। सबको कूट छानकर चूर्ण बनायें। इस चूर्ण की ३ ग्राम की मात्रा दिन में ३ बार लेने से अम्लता, अपच, उच्च रक्तचाप, सीने की जलन आदि रोग नष्ट होते हैं।

अम्लता (एसिडिटी) दूर करने वाला - पेय -१०० ग्राम कलमी सोरा, १०० ग्राम सेंधा नमक, ५० ग्राम नौसादर, ३ ग्राम इलायची छोटी के दाने, एक नींबू का रस। नींबू के रस को बड़ी बोतल में भर दें तथा सभी दवाओं के चूर्ण को उसमें मिलाकर कार्क बंद करके रख दें। २ से ४ चम्मच समान भाग जल मिलाकर देने से अपच, अजीर्ण, पेट का फूलना, गैस, अम्लता (एसिडिटी), पेट की पीड़ा अदि रोग नष्ट होते हैं।

गंजापन नाशक लेप - असमय सिर के बालों के गिरने पर निम्नलिखित लेप अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुआ है। सफेद चन्दन को भृंगराज (भांगरा) के रस से घिसकर सिर में जहां के बाल गिर गए हैं, वहां लगायें तो बाल पुनः उत्पन्न होते हैं। गुड़हल के फूल या पत्ती की जल से पीसकर चार-पांच बार लगाने से भी जहां के बाल गिर गए हों, वहां फिर उग आते हैं।

एड़ी का दर्द - महावातविध्वंसक रस १ गोली, सिंह नाद गुग्गल २ गोली। यह एक खुराक है, ऐसी दो खुराक सुबह शाम चाय या गरम जल से लेते रहें - यदि इसे महारास्नादि व्काथ ४ चम्मच मिला लिया जाये तो शीघ्र लाभ होता है।

शीतपित्तहर -  १ चम्मच अजवाइन, १२५ मि. ग्रा. रस सिंदूर ३ ग्राम गुड़। यह एक मात्रा है, ऐसी तीन मात्राएं (सबह-दोपहर-शाम) गरम जल से लेने से शीतपित्ती, एलर्जी, खुजली आदि में शीघ्र लाभ करता है।

खांसी में छाती से रक्त आने पर - नारियल के ऊपर से जटा उतारकर तवे पर डालकर इसकी भस्म बना लें। फिर पीसकर कपड़छान करके रख लें। मात्रा ४ रत्ती।

अनुपान - वासावलेह, वासा शर्बत, वासार्क अथवा वासापत्र स्वरस १ तोला, शहद ६ माशे, खांड १ तोला तीनों को मिलाकर इसके साथ औषधि देने से अच्छा कार्य करेगी। खांसी में रक्त आना, राजयक्ष्मा की खांसी एवं रक्तपित्त में तथा खांसी में कफ के साथ रक्त आने पर अनुभूत है।

इसका प्रातः सायकल प्रयोग करें। अधिक रक्त आने पर मध्यान्ह में भी सेवन करा सकते हैं। भोजन पथ्य से देवें। सुपाच्य चावल, गेहूं, मूंग, जौ इत्यादि देवें। - वैद्य ब्रजबिहारी मिश्र

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 95 | श्रेष्ठ कर्मों से शरीर और मन की स्वस्थता | Explanation of Vedas | Ved Gyan Katha

rajendra prasad

बिहार के झेरादेवी ग्राम में 3 दिसम्बर 1884 को जन्में राजेन्द्रप्रसाद मैट्रिक की परीक्षा में अपने विद्यालय ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कलकत्ता विश्‍वविद्यालय में प्रथम रहे। उच्च अध्ययन हेतु राजेन्द्र कलकत्ता आये। छात्र-वृत्ति की सहायता से उसने एम.ए. व कानून की परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। अध्ययन में इस ग्रामीण युवक ने नगरीय विद्यार्थियों को भी पीछे छोड़ दिया।

राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ाव- राजेन्द्र ने कलकत्ता में वकालात आरम्भ की। कलकत्ता विश्‍वविद्यालय के कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने राजेन्द्र की प्रतिभा को अनुभव करते हुए इन्हें विधि महाविद्यालय का प्राध्यापक नियुक्त किया। 1911 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने। पटना विश्‍वविद्यालय की स्थापना हेतु सरकार द्वारा बनाये जन विरोधी कानून का राजेन्द्र बाबू ने कड़ा विरोध किया जिसके फलस्वरूप यह कानून निरस्त करना पड़ा। 1916 में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में राजेन्द्रबाबू का महात्मा गाँधी से सम्पर्क हुआ। गाँधीजी की प्रेरणा से राजेन्द्र बाबू ने गाँव गाँव घूमकर लोगों में देशभक्ति जागृत करने हेतु 18 सूत्रीय कार्यक्रम चलाया। बेलगाँव कांग्रेस अधिवेशन में प्रथम खादी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। राष्ट्रीय शिक्षा हेतु राष्ट्रीय शिक्षण समिति की स्थापना की। राजेन्द्र बाबू द्वारा स्थापित सदाकत आश्रम राष्ट्रवादी गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

भारतमाता की जय के लिए - उन दिनों भारतमाता का जयघोष गम्भीर अपराध था। 1930 में पटना में आन्दोलन के दौरान भारतमात की जय बोलने पर पुलिस ने राजेन्द्र बाबू पर लाठियां बरसाई और गिरफ्तार कर 6 माह के लिये हजारीबाग कारागृह में भेज दिया। 1933 में पुनः इसी कारागृह में 15 माह तक रखा गया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें 3 वर्ष के कारावास का दण्ड दिया गया। राजेन्द्र 1934 में प्रथम बार बम्बई अधिवेशन में तथा सुभाषबाबू द्वारा कांग्रेस से त्यागपत्र देने के कारण दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बने।

संविधान सभा के अध्यक्ष तथा देश के प्रथम राष्ट्रपति- स्वतन्त्र भारत में नेहरुजी के अन्तरिम मन्त्री मण्डल में वे कृषि मन्त्री बनाये गये। आपकी अध्यक्षता में हमारे संविधान की रचना हुई जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। राजेन्द्र बाबू भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहकर देश की प्रतिष्ठा बढाई। राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी उन्होंने आश्रमवासी के समान सरल जीवन व्यतीत किया।

अग्नि परीक्षा में खरे उतरे- 11 मई 1951 का दिन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दिवस था। नेहरु के कड़े विरोध के उपरान्त इस दिन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद ने हमारी अस्मिता के प्रतीक सोमनाथ मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग प्राणप्रतिष्ठा में भाग लिया। यह अवसर राजेन्द्र बाबू के लिए अग्नि परीक्षा बन गया। इस अवसर पर डा. राजेन्द्रप्रसाद का उद्बोधन स्वाधीन भारत की प्रेरणा, जीवन दर्शन और भावी स्वप्न को प्रस्तुत करने वाला अद्भुत दस्तावेज है।

राष्ट्रीय अनुशासन- 25 जनवरी की रात्रि को राष्ट्रपति भवन में राजेन्द्र बाबू के साथ रह रही उनकी बहिन की मृत्यु हो गई। राजेन्द्र बाबू ने यह समाचार किसी को नहीं बताया और अगले दिन गणतन्त्र दिवस समारोह में सम्मिलित हुए। समारोह समाप्ति के पश्‍चात् उन्होंने बहन का अंत्येष्टि संस्कार किया। राष्ट्रीय अनुशासन का यह अनुपम उदाहरण था। भारतीयता के प्रतीक राजेन्द्र बाबू ने 28 फरवरी 1968 को महाप्रयाग किया। अजातशत्रु राजेन्द्रबाबू को शत-शत नमन।

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद | First President of India - Bharat Ratna Dr Rajendra Prasad

nai bahu ke liye

माता पिता का घर छोड़कर बहू बनकर पति का साथ निभाना और नए घर में कदम रखकर सभी को प्रसन्न रखना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह बहू पर निर्भर करता है कि वह इस काम को किस तरह अंजाम देती है।

अजनबी लोगों के बीच बहू को अपने छिपे गुणों को उजागर करने का मौका मिलता है। उसे परिवार के सदस्यों के मन जीत लेने की चुनौती मिली है। जाहिर है बहू के मन में भय, घबराहट और बेचैनी बनी रहती है। होने वाले पति को लेकर बहूं के मन में उत्सुकता बनी रहती है। बिना किसी पूर्व परिचय के पति के साथ जीवन भर साथ निभाना पड़ेगा लेकिन इसकी शुरआत उसे इस ढंग से से करनी होगी, सभी उसकी तारीफ करनी शुरू कर दें। बहू अपना जादू चला सकती है इसके लिए उसको अपनी वाणी को मधुर रखना होगा। बातचीत का अंदाज ही यह तय कर देता है कि बहू मृदुभाषी है। तेज आवाज में बात करने से उसकी छवि बिगड़ने का खतरा है। यह सही है कि बातचीत में झिझक होना स्वाभाविक है लेकिन एक सप्ताह के भीतर ही वह ननद-भौजाई-देवर, सास-ससुर का मन मोह लेती है।

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
वेद कथा - 87 | Explanation of Vedas | वेद के चार काण्ड हैं।

कई आदतों जो मायके में बन चुकी थी उनको छोड़ना जरूरी है सुबह आठ बजे बिस्तर छोड़ना दोपहर में दो तीन घंटे लगातार सोना और हमेशा चेहरा संवारने के लिए आईने के सामने खड़ा रहना। नयी बहू के प्रति सभी की उत्सुकता बनी रहती है, कोई बहू को देखने आ रहा है पता चला बहू सो रही है, ऐसी स्थिति से बचना चाहिए।

बहू स्वादिष्ट व्यंजन बना कर लोगों को खुश कर सकती है। उसकी अंगुलियों के जादू से सब सम्मोहित हो सकते हैं। भरवां भिंडी तो लाजवाब बनी है क्या बढ़िया मसाला है, तो रोज नए व्यंजन परोसने से बहू की जो तस्वीर घर में बनेगी उसका काफी बढ़ा हिस्सा व्यंजन कला से हासिल हो जाएगा।

पति को लेकर नयी बहू को कोई शंका नहीं करनी चाहिए। पति को अपनी बातों से अपनी अदाओं से अपनी मुस्कान से पति का दिल जीता जा सकता है। पति के दफ्तर से लौटने के टाइम को लेकर बहस न करना बहू के लिए बेहतर होगा। शादी हो गयी तो दफ्तर से जल्दी नहीं लौट सकता। एक बात और पति भी बीवी से पहली बार मिल रहा है। उसके मन भी बीवी को लेकर भय, घबराहट और शर्म छायी हुई हैं इसका समाधान आपसी सहयोग, सामंजस्य और प्यार पर निर्भर है। बहू को जादू से सभी का दिल जीत लेना चाहिए। - साप्ताहिक आर्य सन्देश

paneer ke dahi bade

सामग्री- 500 ग्राम पनीर, एक किलो दही, 100 ग्राम चावल, सरसों का तेल, खाने का सोडा (चुटकी भर), नमक व मिर्च स्वादानुसार। दही बड़ा मसाला, गर्म मसाला, राई एवं जीरा बघार के लिए, शक्कर एक चम्मच।

चटनी के लिए- हरा धनिया, लहसुन 5-6 कली, दो पके टमाटर, दो हरी मिर्च, नमक स्वादानुसार, बड़ी इलायची।

बनाने की विधि- चावल को साफ कर एक घण्टा भिगो दें। पनीर को कद्दूकस करें। चावलों में थोड़ा सा नमक व खाने का सोडा मिलाकर फेंट लें। दस मिनट फूलने के लिए छोड़ दीजिए। दही को फेंटिए। इसमें स्वादानुसार नमक व लाल मिर्च डालिए।

इसमें दही बड़ा मसाला, गर्म मसाला व चीनी मिला दीजिए। घी गर्म कीजिए, इसमें राई व जीरा डालकर दही में बघार दीजिए। हल्के सुनहरे होने पर दही में डालिए। एक घण्टे ऐसे ही रहने दें। चटनी के लिए सारी सामग्री को बारीक पीस लें। अब दही बड़ों की चटनी डालकर परोसिये। (दिव्ययुग - जनवरी 2011)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
वेद कथा - 85 | Explanation of Vedas | वैदिक संस्कृति में तलाक का विधान नहीं - 2

 

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

fol gobhi ke kofte

सामग्री- एक बढ़िया फूलगोभी, 2-3 हरी मिर्च कतरी हुई, थोड़ा सा हरा धनिया कतरा हुआ, 1-1 छोटा चम्मच गर्म मसाला व अमचूर, 2 छोटे चम्मच पिसी हुई लाल मिर्च, स्वादानुसार नमक व आवश्यकता अनुसार तेल तथा 100 ग्राम बेसन व चुटकी भर खाने का सोडा (मीठा)।

विधि- गोभी को अच्छी तरह धोकर कद्दूकस कर लीजिए। बेसन में सोडा व स्वादानुसार नमक-मिर्च डालकर घोल तैयार कर लीजिए। घोल न ज्यादा पतला हो और न ज्यादा गाढ़ा।

गोभी को हल्का उबाल लीजिए और सारा पानी निचोड़कर सारे मसाले मिलाकर मेश करके छोटी-छोटी गोलियाँ बना लीजिए। तेल गर्म करके बेसन के घोल में डुबोकर गोलियाँ गुलाबी-गुलाबी तल लीजिए। स्वादिष्ट गोभी के कोफ्ते तैयार हैं। इसे सॉस के साथ खाएं या किसी भी चटनी के साथ इसका स्वाद ही लाजवाब होगा।

नोट- कोफ्ते मनपसन्द आकार में बनाए जा सकते हैं। चाहे तो गोल और चाहे तो चपटे, स्वाद में तो कोफ्ते स्वादिष्ट ही लगेंगे।

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan - 84 | Explanation of Vedas | वैदिक संस्कृति में तलाक का विधान नहीं।

 

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

Ham rini hai rishi dayanand ke

महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। उन्होंने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूँका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति के कारण उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लिखा है-
‘‘अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan - 83 | Explanation of Vedas | वैकुण्ठ किसे कहते हैं।

विद्वान् सन्तों की परम्परा में- महर्षि दयानन्द सरस्वती के हृदय में भारत को स्वाधीन कराने की इच्छा उत्कृष्टतम रूप में थी। स्वराज्य की उनकी अवधारणा नितान्त मौलिक थी। वे आपसी वैमनस्य को समाप्त कर समान पूजा पद्धति, समान शिक्षा और एकभाषा के पक्षधर थे। एक शताब्दी से अधिक समय हो चुका है, परन्तु समाज में उसी प्रकार की कुरीतियाँ आज भी विद्यमान हैं। बल्कि समाज और भी ज्यादा टुकड़ों में बँट गया है। यहाँ पर आए दिन प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता, जातीयता, भाषा, समुदाय के नाम पर झगड़े होते रहते हैं। कभी-कभी तो आर्यसमाज जो एक सार्वभौम वैदिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए कार्यरत हैं, उस पर भी साम्प्रदायिक होने के आरोप लगाये जाते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती के निधन पर अलीगढ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खाँ के शब्द ध्यान देने योग्य हैं। इनके शब्दों से उन लोगों की आँखें खुल जानी चाहिएं, जो उन्हें मुसलमानों का शत्रु समझते थे। महर्षि दयानन्द का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बहुत ही ऊँची कोटि का था। वे कर्मयोगी एवं महान सुधारक थे। उन्होंने जाति भेद और अस्पृश्यता की बुराईयों को दूर करने के लिए घोर परिश्रम किया था। उनमें साम्प्रदायिक द्वेष अथवा संकीर्णता का तो लेशमात्र भी न था।

सर सैयद अहमद खाँ के अलीगढ इंस्टिट्यूट मैगजीन 6 नवम्बर 1883 में प्रकाशित विचार इस प्रकार हैं-
‘‘निहायत अफसोस की बात है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो संस्कृत के बड़े आलम (विद्वान) और वेद के बड़े मुहक्किल (समर्थक) थे, 30 अक्तूबर 1883 को 7 बजे शाम को अजमेर में इन्तकाल किया। वे इलावा इलमी फजल (उत्तम विद्या के अतिरिक्त) निहायत नेक और दरवेश सिफत (साधु स्वभाव) आदमी थे। इनके मोहत किद (अनुयायी) इनको देवता मानते थे। और बेशक वे इसी लायक थे। वे सिर्फ ज्योति स्वरूप निराकार के सिवाय, दूसरे की पूजा जायज (विहित) नहीं मानते थे। हममें और स्वामी दयानंद मरहूम (स्वर्गीय) में बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत अदब (आदर) करते थे। जबकि हरेक मजहब वाले को इनका अदब लाजिमी (आवश्यक) था। बहरहाल वे ऐसे शख्स थे, जिनका मसल (उपमा) इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। और हरेक शख्स को उपकी वफात (मृत्यु) का गम (शोक) करना लाजिमी है कि ऐसा बेनजीर शख्स (अनुपम मनुष्य) इनके दरमियान से जाता रहा।’’

युग-प्रवर्तक- महर्षि दयानन्द सरस्वती युग-प्रवर्तक महापुरुष थे। उन्होंने भारत के शक्ति शून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। जगविख्यात विचारक श्री रोम्या रोलां ने रामकृष्ण की जीवनी के पृष्ठ 146 पर ठीक ही लिखा है-
‘‘ऋषि दयानंद ने भारत के शक्ति शून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। स्वामी दयानन्द उच्चतम व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष थे। कर्मयोगी, विचारक और नेता के उपयुक्त प्रतिभा ये सभी प्रकार के दुर्लभ गुण उनमें विद्यमान थे। वह सिंह समान व्यक्तियों में से एक हैं। यूरोप भारत के विषय में निर्णय करते हुए सम्भवतः भारत को तो भूल जाए, पर शायद उसे दयानन्द को याद करने को बाध्य होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें प्रतिभाशाली नेतृत्व से युक्त कर्मशील विचारणा का अद्भुत संगम था।

स्वामी दयानंद ने अस्पृश्यता के अन्याय को भी सहन नहीं किया। उनसे अधिक अस्पृश्यों के अपहृत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई नहीं हुआ।’’
भारत में स्त्रियों की शोचनीय दशा को सुधारने में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बड़ी उदारता एवं साहस से काम लिया। ऋषि के आगमन से पूर्व स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् अर्थात् स्त्री और शूद्र पढने के अधिकारी नहीं हैं, इस विचारधारा का प्रसार था। ऋषिवर ने सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में लिखा- ‘‘राजनियम और जाति नियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ महर्षि के इस मन्तव्य का हिन्दुओं ने कड़ा विरोध प्रकट किया। आर्यसमाज ने कन्या पाठशालाएँ खोलीं। आज सर्वत्र कन्याओं को पढने की सुविधा मिल चुकी है और महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय योगदान कर रही हैं।

वर्णाश्रम के समर्थक- महर्षि दयानंद सरस्वती ने पुरातन वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वास्वत में अमर्यादित वर्ण व्यवस्था ने हिन्दू धर्म को खोखला कर रखा था। यह वर्ण व्यवस्था जन्म पर आश्रित हो गई थी। इस व्यवस्था में दलित वर्ग का स्थान बहुत ही निम्न स्तर का बन चुका था। सर्वत्र लोग हरिजनों की छायामात्र से मलिन हो जाते थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सभी को आर्य नाम से पुकारा। सभी को एक समान स्थान दिया। आर्यसमाज का सदस्य बनने का अधिकार मानव-मात्र को दिया। महात्मा गांधी ने आर्यसमाज से प्रभावित होकर हरिजनोद्धार का कार्यक्रम बनाया। ऋषिवर ने शुद्धि कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने पर भी बल दिया। उन्होंने मानव-मात्र को आर्य बनाने का सन्देश दिया। बन्द दरवाजों को विधर्मियों के लिए अपने मूल धर्म में लौट आने हेतु खोल दिया। महर्षि का यह कार्य बड़ा क्रान्तिकारी रहा। आज तो हमारे सनातन धर्मी भाईयों ने भी इसे अपना लिया है।

वेदों के उद्धारक- महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेद को ही परम प्रमाण माना। वेद स्वतः प्रमाण हैं। महर्षि ने वेदों के उद्धार के लिए अत्यधिक परिश्रम किया। वेद ईश्‍वरीय ज्ञान हैं। उनमें कोई बात ईश्‍वर के गुण-कर्म-स्वभाव से विपरीत नहीं है। कोई बात सृष्टि क्रम के विपरीत नहीं है। वेद का ज्ञान परमात्मा ने मनुष्यों को उन्नति करने में सहायता देने के लिए दिया है। वेद का अर्थ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के अनुकूल होना चाहिए। वेद में सभी सत्य विद्या एवं विज्ञानों का वर्णन है। महर्षि के प्रभाव के परिणामस्वरूप आज वेदों का अध्ययन भारत में ही नहीं, विश्‍व के अनेकों देशों में किया जा रहा है। साथ ही वर्तमान वेद भाष्य ऋषि दयानन्द सरस्वती की भाष्य शैली से प्रभावित एवं अनुप्राणित है।

सुप्रसिद्ध योगी श्री अरविन्द ने महर्षि का चरित्र-चित्रण इस प्रकार किया है- ‘‘दयानन्द दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक तथा विश्‍व को प्रभु की शरण में लाने वाला योद्धा था। वह मनुष्यों और संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था। उसके व्यक्तित्व की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
एक मनुष्य जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन तत्व में से अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति गढ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वे स्वयं एक दृढ चट्टान थे। उनमें ऐसी दृढ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ और सुड़ौल बना सकें।

महर्षि दयानन्द की यह धारणा कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सच्चाईयाँ पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद अथवा कल्पित बात नहीं है। वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्‍वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या कोई भी हो महर्षि दयानन्द का यथार्थ निर्देशों के प्रधान आविर्भावक के रूप में सदा मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग को मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उनकी दृष्टि थी कि जिसने सच्चाई को निकाल लिया और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था उनकी चाबियों को उन्होंने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उन्होंने तोड़कर परे फेंक दिया।’’

सुप्रसिद्ध योगी श्री अरविन्द जी ने ये विचार निश्‍चय ही ऋषिवर के जीवन को स्पष्ट एवं मूर्त विचारणा विच्छिति प्रदान करते हैं। धार्मिक नेता के रूप में उभरे ऋषिवर ने सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सभी क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। शिक्षा और सत्य धर्म के लिए उन्होंने अपनी मौलिक व्याख्या प्रदान की। जिन्होंने उनका घोर विरोध किया था, वे भी भले ही शब्दों में उनका आभार न मानें, पर कार्य रूप में उनका अनुसरण कर रहे हैं। सामाजिक-राजनैतिक कार्यक्रम इसके स्पष्ट एवं सबल प्रमाण हैं। - डॉ. धर्मपाल (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)

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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लोकमान्य महात्मा तिलक से भी पहले 1873 में वायसराय लार्ड नार्थब्रुक्स के सम्मुख कहा था कि मेरा यह अडिग विश्‍वास है कि मेरे देशवासियों की निर्बाध राजनीतिक उन्नति तथा संसार के राष्ट्रों में भारत को समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिये मेरे देश का शीघ्रातिशीघ्रपूर्ण स्वतन्त्र होना आवश्यक है।

महर्षि ने स्वराज, स्वदेशी, स्वभाषा, देशी वेष-भूषा, देशी खान-पान को बहुत महत्व दिया। स्वामी जी के कार्यकाल में अनेकों वस्तुएं इग्लैण्ड से आने लगी थीं। स्वामी जी इनके विरोधी थे। वे चाहते थे कि भारत के धन-कुबेर अपने देश में कल-कारखाने लगाकर उत्तम सामानों का निर्माण प्रारम्भ करें, जिससे लोगों में विदेशी वस्तुओं की ललक कम हो। वे मन्दिरों पर धन खर्च करने की अपेक्षा कल कारखानों के निर्माण को अधिक अच्छा समझते थे। एक बार स्वामी जी पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश का दौरा करते हुए कानपुर पहुंचे। कानपुर के निकट दो भव्य मन्दिरों कैलाश तथा बैकुण्ठ की उन दिनों बड़ी चर्चा थी। क्षेत्र के दो प्रतिष्ठित सज्जन श्री प्रयाग नारायण एवं श्री गुरु प्रसाद जी स्वामी जी से मिलने आये थे। प्रसंगवश उन लोगों ने उपर्युक्त दोनों मन्दिरों की चर्चा छेड़ दी। उनकी बात सुनने के बाद स्वामी जी ने कहा कि ईंट पत्थरों पर लाखों रुपयों का व्यय करके उन्हें नष्ट कर दिया। इससे अच्छा होता कि आप इस धन से किसी कल-कारखाने की स्थापना करके स्वदेश कल्याण में सहयोगी बनते।

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
वेद कथा - 82 | Explanation of Vedas | मर्यादा पालन से सुख होता है।

अलीगढ में स्वामी जी का प्रवचन चल रहा था। एक दिन छावनी निवासी कुंवर उधोसिंह अपने पिता भूपाल सिंह के साथ महर्षि का दर्शन करने के लिये आये। उधोसिंह विदेशी वस्त्रों में सजे हुए थे। उनके पिता जी स्वदेशी वस्त्रों में थे। स्वामी जी ने उधोसिंह से कहा कि ‘‘उधव, देखो! तुम्हारे पिताजी कितने सादे, मोटे तथा स्वदेशी वस्त्र धारण करते हैं। उनको सबका सम्मान प्राप्त है। क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इन वस्त्रों को धारण कर अपने पिता से अधिक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत हो गये हो? भइया, स्वदेश की वस्तु का उपयोग और व्यवहार ही श्रेयस्कर है।’’ उधव सिंह ने स्वामी जी की बातों से प्रभावित होकर सदा के लिये विदेशी वस्त्रों का त्याग कर दिया। अन्य लोगों पर भी इस घटना का प्रभाव पड़ा।

देशी वेष-भूषा के प्रति स्वामी जी के आग्रह का एक उदाहरण देखें। स्वामी जी एक दिन आगरा स्थित सेण्ट पीटर चर्च देखने गये। जब महर्षि चर्च में प्रवेश करने लगे तो एक ईसाई सज्जन ने कहा कि ’’महाराज सिर से पगड़ी उतार कर ही आप चर्च में प्रवेश कर सकते हैं।’’ स्वामी जी रुक गये और बोले हमारे देश की रीति के अनुसार सिर पर पगड़ी धारण करके ही किसी जगह जाना प्रतिष्ठा का चिन्ह है। मैं अपने देश की सभ्यता के प्रतिकूल आचरण नहीं करूंगा। स्वामी जी वहाँ से लौट आये।

राष्ट्र भाषा हिन्दी के सम्बन्ध में महर्षि के विचारों से सभी अवगत हैं। वे इसे स्वभाषा कहा करते थे। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए (प्रारम्भ में वे अपना प्रवचन सरल संस्कृत में करते थे) तथा मूल रूप से गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने अपना अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखा। राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान की दृष्टि से उन्होंने सम्पूर्ण भारत में देवनागरी लिपि एवं हिन्दी भाषा के प्रचार पर बल दिया।

नौ सौ वर्षों की गुलामी के कारण राष्ट्र अपना गौरव अभिमान भूल चुका था। हिन्दू हीन भावना से ग्रस्त था। इस निराशा और हताशा की घड़ी में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंग्रेजी शासन की परवाह किये बिना राष्ट्रवाद, स्वराज्य तथा स्वदेशी का शंखनाद करके हिन्दुओं के सुप्त शौर्य को जागृत किया। थियोसोफिकल सोसायटी की महान नेत्री श्रीमती एनीबेसेण्ट के शब्दों में ’’स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लिखा कि भारत भारतीयों के लिये है। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों ने स्वदेश और स्वदेशी के प्रति प्रेम का संचार किया।

स्वामी दयानन्द ने केवल राष्ट्रवाद, स्वराज्य तथा स्वदेशी का मन्त्र ही नहीं दिया, अपितु उन्होंने वैदिक धर्म और संस्कृति से जोड़कर इन भावनाओं को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान किया। महर्षि के शिष्य उपदेशकों तथा भजनोपदेशकों ने सारे देश में आर्यसमाज के माध्यम से उपर्युक्त विचारों का प्रचार किया।

हमारे सभी प्रमुख राष्ट्रनायक जैसे स्वामी विवेकानन्द, क्रान्तिदर्शी दार्शनिक योगी अरविन्द घोष, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, भाई परमानन्द इत्यादि किसी न किसी रूप में महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित थे।

यदि महात्मा गांधी ने पूर्ण रूप से महर्षि के विचारों के अनुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन किया होता तो देश का बटवारा नहीं हुआ होता और अब तक भारत विश्‍व का सिरमौर बन गया होता। - हर्षनारायण प्रसाद (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)

All our prominent nationalists like Swami Vivekananda, revolutionary philosopher Yogi Arvind Ghosh, Lokmanya Tilak, Lala Lajpat Rai, Pt. Ramprasad Bismil, Sardar Bhagat Singh, Veer Savarkar, Bhai Parmanand etc. were influenced by Maharishi Dayanand's ideas in one way or the other.

Prakash ka parv

दीपावली का त्यौहार हर साल कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह त्यौहार दीपकों से चारों ओर प्रकाश बिखेरकर हम सबके लिये प्रसन्नता और आशा का सन्देश लेकर आता है। दूसरे त्यौहारों की तरह इसमें अनेक धार्मिक कथायें जुड़ गई हैं। होली की तरह यह त्यौहार भी मौसम बदलने की सूचना देता है तथा वर्षा के बाद घरों की सफाई और उन्हें सजाने का सन्देश देता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश की दो मुख्य फसलों रबी और खरीफ के साथ होती और दीपावली जैसे त्यौहारों का जुड़ जाना बहुत स्वाभाविक है। फसल किसान के घर में होती है और पास में होता है उसके खाली समय! बस उसका मन गा उठता है, नाच उठता है दीपावली के प्रकाश और होली के रंग में!

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
वेद कथा - 81 | घर को स्वर्ग बनाने के उपाय | introduction to vedas

प्रेम व सहयोग का त्यौहार - दीपावली संस्कृत शब्द है जो दीप और अवली दो शब्दों के मेल से बना है। इसका अर्थ होता है दीपकों की पंक्ति। यहाँ दीपक प्रतीक है प्रकाश का, ज्ञान का और प्रेम का। इस रात के घोर अंधकार को हम दीपकों के प्रकाश से दूर करते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि हम अपने मोह के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से दूर करना चाहते हैं। ’’दीप से दीप जले’’ जब हम यह बात कहते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि जिस तरह एक दीपक से दूसरा दीपक जलता है, उसी तरह हम समाज में अपने प्रेम से, अपने सहयोग से, अपनी सेवा से दुखी लोगों को, गिरे हुए इंसानों को और हारे-थके लोगों को सहयोग देकर ऊँचा उठायें और मानवता की सेवा करें। वेदों में बहुत पहले से सबके सुखी होने की भावना प्रकट की गई है। इस रूप में यह त्यौहार हमें प्रेम के साथ सहयोगपूर्ण जीवन बिताने की शिक्षा देता है। भारत से बाहर के देशों में लाखों भारतीय मूल के लोग बसते हैं, वे सब मिलकर इस त्यौहार को मनाते हैं, उन सबमें एकता स्थापित करने, भारतीय संस्कृति को समझने तथा आपस में भाईचारे के साथ रहने के लिये यह उत्सव एक आदर्श उत्सव है।

त्यौहारों की शृंखला - दीपावली से पहले धनतेरस, नरक चौदस और बाद में गोधन और भाईदूज भी मनायी जाती है। धनतेरस को धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर उपस्थित हुए थे जिसे पीकर देवता अमर हो गये। इस पौराणिक कथा से यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य अपने परिश्रम से अमरता भी प्राप्त कर सकता है। कुछ पाने के रूप में इस दिन पाँच नये बर्तन खरीदने की प्रथा समाज में आज तक प्रचलित है।

नरक चौदक को घर से बाहर यम का दीपक जलाने का अभिप्राय यही है कि यम जो मृत्यु का देवता है घर से विदा कर देते हैं। इसी दिन कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था।

गोधन या गोवर्धन की पूजा इन्द्र के स्थान पर कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत पूजने की प्रथा का स्मरण कराती है। गायों के लिये गोवर्धन पर्वत से ही तिनका मिलता था और एक तरह से वही गोवर्धन में सहायक था। अतः अहीरों के लिये वही पूज्य हुआ। इस कथा से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हमारे जीवन को पूर्ण करने वाला हर अस्तित्व हमारे लिये पूज्य है। इस सन्दर्भ में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि गोचारण हमारा प्राचीनतम व्यवसाय है और लोक जीवन की अनवरत परम्परा में जुड़ी हुई घर में गाय के गोबर से गोवर्धन की संरचना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। भैयादूज भाई-बहिन के अमर प्रेम का प्रतीक है।

लक्ष्मी की महत्ता- भारत में लक्ष्मी-पूजन दीपावली का मुख्य कार्य है। ऐसा विश्‍वास किया जाता है कि इस रात को लक्ष्मी जी सब जगह घूमती हैं और जो घर सबसे साफ-सुथरा दिखायी देता है उसमें वे निवास करती हैं। लोग उनके स्वागत में अपने घर के दरवाजे खुले रखते हैं, उनकी पूजाकर उनसे सबका कल्याण माँगा जाता है।

सागर मंथन की कथा को लेकर इसे वैदिक पर्व कहा जाता है। राक्षस और देवताओं ने मिलकर सागर का मंथन किया, उससे अनेक रत्न निकले, लक्ष्मी जी उनमें से एक थी। लक्ष्मी जी ने विष्णु का वरण किया। विष्णु के धाम में वे प्रकाश और धन की स्वामिनी बनीं। इसी घटना को प्रकाश के महान उत्सव दीपावली के रूप में मनाया जाता है। सागर-मंथन की कथा दो जातियों के आपस में मिलकर काम करने की कथा है। यदि हम आपसी भेदभाव मिटाकर एक-दूसरे के लिये काम करें तो निश्‍चय ही जीवन के हर क्षेत्र में हमें सफलता मिलेगी। अपने कल्याण से बड़ी बात इस दुनिया में समाज का कल्याण मानी गयी है।

विदेशों में दीपावली- ट्रिनिडाड, सूरीनाम, गयाना, जमेका आदि पश्‍चिमी गोलार्ध के प्रमुख देशों में दीपावली प्रायः बड़े-बड़े पार्कों में बांस की खपच्चियों पर दीपक सजाकर बहुत सोत्साह मनाया जाता है।

मारीशस में दीप जलाने के साथ-साथ मिठाई भी भारतवंशी एक-दूसरे के घरों में पहुँचाते हैं। मारीशस में अनेक धर्मावलम्बी आपस में बहुत प्रेमपूर्वक रहते हैं और वहाँ के प्रमुख नगर कात्रबोर्न के म्यूनिसपल भवन के प्रांगण में वहाँ के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा मन्त्रीमण्डल के अन्यान्य सदस्य विशाल जन समूह के मध्य दीपकों के झिलमिलाते प्रकाश और फुलझड़ियों के सतरंगी प्रकाश में जिस उल्लास से दीपावली का उत्सव मानते हैं वह वर्णनातीत है। इस अवसर पर प्रायः सभी धर्मों के लोग एक-दूसरे के गले मिलते हैं।

निर्वाण दिवस- आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद को इसी दिन निर्वाण प्राप्त हुआ था। महर्षि दयानंद वेद के आधार पर समूची मानव जाति को विश्‍वधर्म देने वाले थे। वे परम आध्यात्मिकता के केन्द्र बिन्दु थे, जहाँ से असंख्य लोगों को प्रेरणा मिली, जीवन की सच्ची राह मिली, मनुष्य को मनुष्य के रूप में पहचानने की सच्ची दीक्षा मिली, नारी को शिक्षा ग्रहण करने का स्वर्णावसर प्राप्त हुआ, पुरुष के द्वारा उसे सम्मान मिला और घर को प्यार का मन्दिर बनाने का सम्बल मिला। तभी तो महर्षि दयानन्द के अनुवर्तियों ने भारत और भारत से बाहर यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि में वैदिक ज्ञान का प्रकाश ग्रहण कर आत्म विकास की महती साधना की और समाज-सुधार की परिखा में पाखण्ड का विरोध कर के एकता के बीज बोये। भारत की तरह लैटिन अमरीकी देशों में महर्षि दयानन्द का जन्म दिवस और निर्वाण-दिवस सभी आर्यसमाजी सभागारों में मनाया जाता है। इस अवसर पर यज्ञ और उपदेश का आयोजन किया जाता है। मारीशस के 427 सभागार समूचे देश में फैले हैं और इनमें महर्षि दयानन्द का जन्म-दिवस, निर्वाणोत्सव, श्रद्धानन्द का बलिदान-दिवस तथा हिन्दी दिवस मनाये जाते हैं। आर्य समाज के इन सभी सभागारों में हिन्दी की कक्षायें आयोजित की जाती हैं। कहना न होगा कि मारीशसीय हिन्दी के विकास में आर्य समाज मारीशस की महत्वपूर्ण भूमिका है।

समग्रतः दीपावली का पर्व प्रकाश के उत्सव के रूप में पारस्परिक भाईचारे का पर्व है, अनेक कथाओं के रूप में महान शिक्षा देने वाला पर्व है। घर की सफाई, रोशनी करना एवं आपस में भेंट देना इसके सामाजिक रूप को प्रकट करता है तथा लक्ष्मी-पूजन इसके धार्मिक प्रारूप को अभिव्यञ्जित करता है। नाना मूर्तियों के निर्माण में लोक शिल्पी की महती कला को अभिव्यञ्जित करने वाला यह पर्व महर्षि दयानन्द के निर्वाणोत्सव के रूप में हमें यही शिक्षा देता है कि आत्मा नित्य है, उसका नाश नहीं होता है और हम सबको आत्म-विकास में लगना चाहिये। - डॉ. हरगुलाल गुप्त (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)

Before Diwali, Dhanteras, Narak Chaudas and later Godhan and Bhaiduj are also celebrated. On Dhanteras, Dhanvantari was present with the nectar kalash, after drinking which the deity became immortal. This mythology teaches that a person can attain immortality through hard work. The practice of buying five new utensils on this day is prevalent in society as of getting something.


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मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

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