विशेष :

भूत-प्रेत की उत्पत्ति के विषय में कुछ अज्ञानी, अशिक्षित और स्वार्थी लोगों ने यह धारणा बना रखी है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है, यानि जिनकी मृत्यु दुर्घटना से या अस्वाभाविक होती है। वे लोग अपने विशेष जीवन में भूत-प्रेत की योनि में चले जाते हैं। यह सर्वमान्य बात है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। यह बात भूत-प्रेत पर भी लागू होनी चाहिए। जिस जीव ने भूत-प्रेत की योनि में जन्म लिया है तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। परन्तु उनके मरने की बात कभी सुनने में नहीं आई।

अकाल मृत्यु प्राप्त जीव भूत-प्रेत की योनि में जाते हैं, यह सिद्धान्त कीट-पतंग, पशु-पक्षी और अनेकों अदृश्य जीवों पर भी लागू होनी चाहिए, जो प्रतिदिन मनुष्यों द्वारा मारे जाते हैं या मार दिये जाते हैं या प्राकृतिक आपदाओं-आंधी, तूफान, भूकम्प, बाढ़ आदि में मनुष्यों से अधिक मर जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार इनको भी भूत-प्रेत की योनि में जाना चाहिए। तब कल्पना करें कि इस संसार में भूतों की संख्या मनुष्यों की आबादी से भी कई गुना अधिक होनी चाहिए, परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है। अतः यह कहना कि अकाल मृत्यु प्राप्त जीव भूत-प्रेत की योनि में जन्म लेता है, यह न नर्क सम्मत है और न विज्ञान सम्मत।

भूत-प्रेत की योनि होती ही नहीं :- जीव का स्थूल शरीर, मन, व इन्द्रियादि साधनों के साथ ईश्वरीय व्यवस्थानुसार संयोग जन्म है, अर्थात् सूक्ष्म शरीर युक्त जीव का स्थूल शरीर के साथ माना जा सकता है, क्योंकि बिना शरीर के कोई भी योनि नहीं होती है। स्थूल शरीर के बिना कोई भी सूक्ष्म शरीर न तो दिखाई देता है और न कोई भौतिक क्रिया ही कर सकता है। प्रजनन की विधाओं के आधार पर योनियों को चार भागों में विभाजित किया गया है- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उभ्दिज। जरायुज का तात्पर्य है जेर से होने वाले प्राणी, जैसे मनुष्य, गाय, भैंस। अण्डज का तात्पर्य है अण्डे से होने वाले प्राणी जिसमें अधिकतर पक्षी आते हैं। स्वेदज का तात्पर्य है मैला या गंदगी में होने वाले प्राणी, जैसे जुएँ, गन्दी नाली के किटाणु। उभ्दिज का तात्पर्य है, जमीन से उगने वाले प्राणी जैसे पेड़-पौधे इन्हीं चार योनियों में समस्त प्राणियों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त पाँचवीं योनि का कोई विधान नहीं है। यह ईश्वर प्रणीत शाश्वत सिद्धान्त है। इसका उल्लंघन करने की शक्ति किसी भी जीव में नहीं है। स्मरण रहे जीव सर्वदा पराधीन होता है। वेद, शास्त्र, रामायण और गीता आदि प्राचीन ग्रंथों में कहीं पर भी भूत-प्रेत की योनि का विधान नहीं है।

कहा जाता है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है यानि जिनकी मृत्यु दुर्घटना से या अस्वाभाविक मृत्यु होती ये लोग अपने शेष जीवन में भूत-प्रेत, योनि में चले जाते हैं और इधर-उधर भटकते रहते हैं। कभी-कभी भूत-प्रेत परकाया में प्रवेश कर जाते हैं और उनको सताते है या कष्ट देते हैं। वे सामान्यतः अपने परिचितों और स्वजनों को ही अधिक परेशान करते है या कष्ट देते हैं। दिवंगत आत्मा का इधर-उधर भटकना सम्भव नहीं क्योंकि वह ईश्वराधीन होने के कारण स्वतंत्रता से कुछ भी नहीं कर सकती है। परकाया में प्रवेश करना भी ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है, क्योंकि एक शरीर में एक ही आत्मा रह सकती है। आत्मा प्रलयकाल और मोक्षावस्था को छोड़कर वह बिना शरीर के कभी नहीं रहता हैं। इन दोनों अवस्थाओं में वह अदृश्य रहता है।

यह निर्विवाद सत्य है कि मृत्यु के पश्चात् ईश्वरीय व्यवस्थानुसार जीव या तो दूसरे शरीर को धारण कर लेता है या मोक्ष को प्राप्त होता है। इस बीच उसके किसी अन्य के शरीर में प्रविष्ट होने या इधर-उधर घूमकर लोगों के जीवन में अच्छा-बुरा दखल देने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मोक्ष प्राप्त जीवात्माएँ पवित्र और आनन्द मग्न रहती हैं, वह परकाया में प्रवेश कर किसी मनुष्य को कष्ट या यातनाएं दे, यह मानना अस्वाभाविक है।

मृत्यु पश्चात् जीव को एक शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में जाने में कितना समय मिलता है, इसका निर्देश वेदान्त दर्शन ३/१/१३ वृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/३ तथा गरुण पुराण-प्रेत अध्याय २० श्लोक ७५ में लिखा है कि - जैसे घास की सूँडी या जोक या तॄणजलायुकृत भी पीछे से दूसरा पाँव उठाती हैं जब कि अगला पाँव रख देती है, ठीक वैसे ही आत्मा भी अपने पहले शरीर को छोड़ने से पूर्व ईश्वर की न्याययुक्त व्यवस्था से अगले शरीर में स्थिति कर लेने के पश्चात् ही अपने उस शरीर को छोड़ता है।

स्थूल शरीर के बिना कुछ भी करना सम्भव नहीं अतः ईश्वर की व्यवस्था में यह आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को तुरन्त ग्रहण कर लेती है। महाभारत वनपर्व १८३/७७ में कहा है- आयु पूर्ण होने पर आत्मा अपने जर्जर शरीर का परित्याग करके उसी क्षण किसी दूसरे शरीर में प्रकट होता है। एक शरीर को छोड़ने और दूसरे शरीर को ग्रहण करने के मध्य में उसे क्षण भर का समय नहीं लगता। अतः वैदिक सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु और जन्म के बीच कोई नहीं बचता कि जिसमें जीवात्मा इधर-उधर भटक सके या भूत-प्रेत बन सके। सच्चाई यह है कि शरीर छोड़ने के पश्चात् जीवात्मा परमात्मा के अधीन रहता है और वह स्वतंत्रता से कुछ नहीं कर सकता। संसार का कोई भी व्यक्ति भूत-प्रेत आदि के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर सकता, अतः निश्चित मानिये कि तथाकथित भूतों की न कोई सत्ता है और न कोई योनि है।

सच्चाई यह है कि दुर्घटना या अस्वाभाविक मृत्यु प्राप्त व्यक्ति अपनी बाकी की उम्र अगली योनि में व्यतीत करता है अर्थात् उसकी जो अगली योनि में जितनी उम्र निर्धारित होती है उसमें पहले वाली उम्र जोड़ दी जाती है। अब प्रश्न उठता है कि प्राप्त व्यक्ति यदि मनुष्य योनि में भी उसी स्तर में जन्म लेता है तब तो यह बात लागू हो सकती है। पर वह यदि अन्य योनियों में यानि पशु-पक्षी व कीट-पतंग में जाता है या पहले वाले मनुष्य जीवन के ऊँचे या नीचे स्तर की मनुष्य योनि ही पाता है तो उसकी आयु ईश्वर की कर्म न्याय व्यवस्था के अनुसार घट या बढ़ भी सकती है।

यह लेख मैंने अति उपयोगी समझकर ''मानव निर्माण प्रथम सोपान'' नामक पुस्तक से उद्धृत किया है जिसमें अन्त की ६-७ लाइने मैंने अपने स्वयं के विचार से पहले कभी किसी पुस्तक में पढ़ा था उसके आधार पर लिखी है जिससे लेख के उद्देश्य की पूर्ति होती है। इस लेख के पढ़ने से हर व्यक्ति भूत-प्रेत की योनि नहीं होती यानि भूत-प्रेत का भय एक प्रकार का वहां वहम् है, इसलिए हर समझदार व्यक्ति को भय नहीं होना चाहिए और अपने बच्चों को भी यही शिक्षा देनी चाहिए ताकि बच्चे निर्भीक बने और देश व समाज की सेवा अधिक कर सकें।