जिस प्रकार किसी व्यंजन को स्वादिष्ट व सरस बनाना चाहते हो तो वह घी के बगैर नहीं बन सकता। उसमें चीनी, बादाम, किसमिस, काजू, पिस्ता चाहे जितना भी डालें, फिर भी घी डालना अतिआवश्यक है। जैसे यदि हम हलवा व लड्डू बनाना चाहते हैं इसमें चाहे जितनी चीनी, चाहे जितना मेवा डाल दें किन्तु घी डाले बगैर वह चीज स्वादिष्ट व सरस नहीं बनेगी। घी डालने के बाद अन्य वस्तुएं जो डाली गई हैं उनका भी स्वाद महत्व बढ़ जाता है यानि घी अपने साथ की वस्तुओं के गुणों को भी बढ़ा देता है। यदि हम बादाम या काजू अलग खायेंगे तो उनका भी स्वाद बढ़ जाता है और खाने में अधिक स्वादिष्ट हो जाते हैं। यही बात साग व सब्जी भी है। इनमे आप कितना भी जीरा, हल्दी, मिर्च, धनिया व गर्म मसला डाल दो परन्तु घी डाले बगैर साग-सब्जी स्वादिष्ट नहीं बनती। हम बराबर देखते हैं कि साधारण दाल से यदि कोई व्यक्ति चार रोटी खाता है तो उसी दाल में आप घी का छौंक लगा दीजिये तब वह व्यक्ति उतनी ही दाल से छः रोटी खा लेगा यानि दाल स्वादिष्ट बन जाती है।
ठीक उसी प्रकार ईश्वरविश्वास या ईश्वरभक्ति हमारे जीवन में घी का काम करती है। ईश्वरविश्वास से निराभिमानिता, कृतज्ञता, विनम्रता, विश्वास बना रहता है जिससे वह बड़ी से बड़ी विपत्तियों में भी नहीं घबराता और कठिन से कठिन काम सरल हो जाते हैं। ईश्वर विश्वास सब मानवीय गुणों में सर्वोपरि है। यह कृतज्ञ भाव से उत्पन्न होता है और अन्य गुणों जैसे ईमानदारी, सच्चाई, करुणा, निष्पक्षता, सहनशीलता, परोपकारिता, सहृदयता, दया आदि को बढ़ा देता है इसलिए मैनें इसकी उपमा घी से दी है। ईश्वरविश्वास व्यक्ति को यह विश्वास बना रहता है कि सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, न्यायकारी व दयालु ईश्वर मेरे साथ है, फिर मुझे क्या भय है। जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोद में अपने आप को सुरक्षित समझता है, उसको किसी प्रकार का भय नहीं सताता, उसी प्रकार ईश्वरविश्वासी की स्थिति हो जाती है। ईश्वर विश्वासी कभी भी अन्याय का काम नहीं कर सकता। जब वह न्याय का काम करेगा तब उसको चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं। कारण ईश्वर न्यायकारी है इसलिए न्याय की रक्षा करना उसका कर्म है। यहां समझने की बात यह है कि वह सर्वशक्तिमान व न्यायकारी ईश्वर, ईश्वर के विरोधी के विरोधी व्यक्ति में भी व्याप्त है उससे भी सभी काम ईश्वर ही करवाता है। ईश्वर न्याय की रक्षा के लिये या तो विरोधी व्यक्ति को सद्बुद्धि देगा या किसी प्रकार से भी ईश्वर विश्वासी की रक्षा करेगा।
महर्षि दयानंद के जीवन का जब हम अध्ययन करते हैं तो हमें यह जानकारी हो जाती है कि महर्षि का ईश्वर पर कितना अधिक अटूट विश्वास था। वे बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी नहीं घबराते थे। उन्होंने अपने अमर ग्रन्थ ''सत्यार्थप्रकाश'' में भी लिखा है कि ईश्वरभक्ति में वह शक्ति है जिससे पहाड़ के समान दारुण दुःख को भी सहन करने की शक्ति आ जाती है और वह दुःखों से घबराता नहीं। महर्षि के जीवन में भी एक नहीं अनेक घटनाएं ऐसी मिलती हैं जहां वे बड़ी मुश्किल में फंस गये, फिर भी घबराए नहीं और अपनी सच्चाई पर डटे रहे। ईश्वर ने उनकी रक्षा ही नहीं बल्कि सफलता भी दिलाई।
एक घटना ऐसी आती है कि स्वामी जी उदयपुर में विजमान थे। एक दिन उदयपुर के महाराजा ने कहा कि स्वामी जी आप हमारे एकनाथ भगवान के मंदिर के पुजारी बन जाओ। आप चाहे मूर्ति पूजा मत करना सिर्फ मंदिर का पुजारी बनकर उसकी देखभाल करते रहना। इस मंदिर में लाखों रुपयों का चढ़ावा साल में होता है वह आपका ही रहेगा। स्वामी जी ने इस कार्य को सिद्धांतों के विरुद्ध समझकर पुजारी बनने से इंकार कर दिया। और बोले कि आपने सच कहा राजन ! आपकी आज्ञा का पालन नहीं करूंगा तो आप अधिक से अधिक मुझे अपने राज्य से बाहर निकाल सकते हैं। मैं चाहूँ तो आपके राज्य से एक दौड़ लगाने से रातभर में ही बाहर जा सकता हूं। परन्तु उस परमपिता परमात्मा की आज्ञा का पालन नहीं करूंगा तो उसके राज्य से मैं किसी हालत में भी बाहर नहीं जा सकता। तब आप ही बतलावें मैं आपकी आज्ञा का पालन करूं या उस राजाओं के राजा परमपिता परमात्मा की आज्ञा का? तब महाराजा निरुत्तर हो गये।
स्वामी जी के जीवन की एक और घटना बड़ी प्रमुख है। जिससे उनकी कीर्ति चहुं ओर फैली। वे पौराणिकों का गढ़ काशी में ''मूर्ति पूजा'' पर शास्त्रार्थ करने गये। स्वाम जी ने काशी नरेश से कहा कि मैं आपके पंडितों से ''मूर्ति पूजा'' पर शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। राजा ने सोचा कि यदि मैं शास्त्रार्थ करना स्वीकार नहीं करता हूं तो हमारे विद्वान पंडितों की हार हो गई, इसलिए शास्त्रार्थ करवाना और अपने विद्वान पंडितों को ये प्रकारेण जितना भी मेरा कर्त्तव्य है। यह सोचकर राजा सब विद्वानों को बुलाया और कहा कि आप किसी प्रकार से भी 'मूर्ति पूजा' पर शास्त्रार्थ में स्वामी जी को हराओं नहीं तो हमारी काशी नगरी की बड़ी बदनामी हो जायेगी। तब वे सब तरह से तैयार होकर यानि झगड़े-बदमाशी के साथ दल बल सहित आये और स्वामी जी शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। अध्यक्ष राजा जी को मनोनीत किया गया। शास्त्रार्थ स्थल में एक तरफ सिर्फ स्वामी जी और दूसरी तरफ सैकड़ों पंडित, सैकड़ों गुंडे-बदमाश और हजारों की संख्या में विरोधी दर्शकगण। तात्पर्य यह है कि शास्त्रार्थ स्थल पूरा खचाखच भरा हुआ था। अन्य प्रांतों के साथ ही बंगाल से कई विद्वान पंडित गये हुए थे परन्तु स्वामी जी के पक्ष में एक भी व्यक्ति नहीं था। उस आयोजन का व्यवस्थापक निष्पक्ष, कर्तव्य परायण व न्यायप्रिय व्यक्ति था। उसने स्वामी जी का आसन एक बंद कोठरी के बाहर लगा दिया और माहौल का ढंग देखकर स्वामी जी से कहा कि स्वामी जी ! पंडितों को साजिश बड़ी खतरनाक है, मैं सत्य पर हूं तो मेरा पूर्ण विश्वास है कि उसके होते हुए मुझे कोई भय नहीं।
शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और जो होना था वही हुआ। पंडितों ने बीच में ही हल्ला-गुल्ला मचा दिया कि स्वामी जी हार गये और गुंडे-बदमाशों ने पत्थर ईंटें फेंकनी शुरू कर दी। व्यवस्थापक पहले ही स्थिति को भांप गया था और स्वामी जी को उस कोठरी के किवाड़ खोलकर अंदर कर दिया और किवाड़ बंद कर दिया जिससे स्वामी जी के प्राणों की रक्षा हो गई।
यह लिख देना भी उचित है कि कुछ स्वार्थी ब्राह्मणों ने पौराणिक भाइयों में ऐसा मीठा भ्रम फैला रखा है कि आर्यसमाजी ईश्वर को नहीं मानते, हमारे देवी-देवताओं को और हमारे वार-त्यौहारों को नहीं मानते, इसलिये वे नास्तिक है परन्तु आर्यसमाजी जो बातें सत्य और ज्ञान पर आधारित हैं उन सबको मनाता है जैसे ईश्वर, वेद, संस्कार, पांच महायज्ञ, वर्णाश्रम आदि और जो असत्य और अज्ञान पर आधारित है उनको नहीं मानता जैसे मूर्ति पूजा, अवतारवाद, भूत-प्रेत मृतक श्राद्ध आदि। मेरा पौराणिक भाइयों से निवेदन है कि आर्यसमाज के सत्संगों में जाकर हमारे वैदिक विद्वानों के उपदेश सुनें, वैदिक साहित्य पढ़े, महर्षि दयानंद जी जीवनी व उनके द्वारा लिखे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तो मालूम हो जायेगी कि वैदिक धर्म जिसको आर्यसमाज मनाता है, वही सच्चा धर्म है। वैदिक धर्म सिर्फ मानवमात्र के हित के लिये ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र के हित के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। यह धर्म मानवमात्र को सबसे प्यारा व सद्व्यवहार रखते हुए अपना व दूसरों का जीवन सुखी बनाने की कला सिखाता है तथा मोक्ष तक पहुंचने का सच्चा मार्ग बतलाता है जो मानवमात्र का अंतिम लक्ष्य है।