मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, फल भोगने में परतंत्र है। गीता में कहा गया है - 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' अर्थात् कर्म करने में अधिकार है, फल पाने में नहीं। ईश्वर न्यायकारी है, जो जैसा कर्म करता है उसको अपनी न्यायव्यवस्था से वैसा ही फल देता है। ईश्वर हमें हर पल, हर घड़ी देख, सुन और जान रहा है। मनुष्य के शरीर, वाणी तथा मन से दो प्रकार के कर्म किये जाते हैं। एक - अशुभ, दूसरा - शुभ। शरीर से किए जाने वाले कर्मों को ईश्वर देख रहा होता है, वाणी से किये जाने वाले कर्मों को सुन रहा होता है तथा मन से किये जाने वाले कर्मों को हर समय जान रहा होता है।
शरीर से किये जाने वाले शुभ कर्म-दान, रक्षा, सेवा तथा अशुभ कर्म-चोरी, हिंसा, जारी। वाणी से किये जाने वाले शुभ कर्म-सत्य, प्रिय, हितकारक, स्वाध्याय तथा अशुभ-झूट, कठोर, चुगली करना, व्यर्थ वार्तालाप और मन से किये जाने वाले शुभ कर्म-दया, अस्पृहा (लोभ का त्याग), श्रद्धा तथा अशुभ-परद्रोह, लोभ, नास्तिक्य।
इस प्रकार शरीर से तीन, वाणी से चार तथा मन से तीन, ये दस शुभ व दस अशुभ कर्म हुये। शुभ कर्मों का फल सुख रूप में मिलता है तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख रूप में मिलता है। एक कवी ने कितना अच्छा कहा है- शुभ-अशुभ कर्म का फल, निश्चय ही मिलना है कल, नहीं होगी फेरबदल, प्रभु इंसाफ करेंगे, नहीं माफ़ करेंगे।
जब हम ईश्वर को न्यायकारी मानते हैं और जानते हैं कि वह कर्मों का फल अवश्य देगा। अतः हमें शरीर, वाणी तथा मन से शुभ-अशुभ कर्म ही करने चाहिएं, अशुभ नहीं। तब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं तो ये कर्म भी दो प्रकार के होते हैं। एक-सकाम कर्म, दूसरा-निष्काम कर्म। जो मनुष्य फल की इच्छा रखकर सांसारिक सुख चाहता है, वह सकामकर्म करता और और मानव मात्र के अंतिम लक्ष्य की इच्छा रखता है और अर्थात् कर्त्तव्य भावना से प्रेरित होकर और फल की इच्छा का परित्याग करके कर्म करता है तो वह निष्काम कर्म कहलाता है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य केवल मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूटना है। वह तभी प्राप्त हो सकता है जब केवल शुभ व निष्काम कर्म ही किये जायें। अतः हमें सदैव शुभ व निष्काम कर्म ही करने चाहिएं।