एक बगीचे में घूमने के लिये जाना हुआ। बगीचा बहुत ही सुन्दर था। अनेक प्रकार के फूलों वाले पोधे अपने फूलों के विभिन्न रंगो तथा आकारों द्वारा बहुरंगी छटा बिखरा रहे थे। बंगीचे में घूमते-घूमते देखा कि वृक्षों पर विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी अपनी-अपनी सुरीली बोलियाँ में गीत गा रहे थे। कुछ पक्षी खुले नील गगन में उड़ रहे थे जो पेड़ो पर बैठे अपने पंख फड़-फड़ा रहे थे परन्तु उड़ नहीं पा रहे थे जो पेड़ो पर वे चिल्ला रहे थे - 'कोई हमे छुड़ाओ, कोई हमे छोडाओं!' बगीचे के रखवाले को देखते ही पक्षी और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। रखवाला बोला, 'अपने पंजो को डाली से उड़ान भरो।' कुछ पक्षी उड़ान भरते तो थे, परन्तु धोड़ा सा उड़ कर वापिस आ जाते और फिर चिल्लाने लगते। रखवाले ने फिर से समझाया पर व्यर्थ।
जब मनुष्य की अंतर्चेतना (आत्मा) शक्तिशाली होती है तो सकारात्मक संकल्प जागृत होते हैं पर आत्मिक शक्ति के क्षीण होने पर नकारत्मक हावी हो जाती है। आत्म पर देहाभिमान, सांसारिक वैभव, शक्ति, धन का भ्रम हावी होने से अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह आदि अवगुण बढ़ते हैं। आत्मा के स्वाभाविक गुण शान्ति, सुख, पवित्रता, आनन्द अदि कम होते जाते हैं। पैसा, गाड़ी, कपडे, परिवार, औलाद, मनोरंजन के साधनों, आदि से अशक्ति बढ़ने लगती हैं। रिश्तों का बन्धन हावी होने लगता है। मेरा भाई, रिश्तेदार, मित्र इतने ऊँचे पद पर हैं। इतना बड़ा है। इतना शक्तिशाली हैं। आदि अदि।
भौतिक पदार्थ यथा यह बंगला, इतना बड़ा कारोबार, कारखाना, गाड़ियाँ मेरी हैं। आत्मा को देह के बन्धनों में बांधती हैं। अनेक बार समाज, परिवार और संसग अथवा पिछले जन्म के आये हुए गलत बुरे संस्कार आत्मा को जकड देती हैं। आत्मा चाह कर भी छोड़ नहीं सकती क्योंकि उसकी शक्तियाँ ही क्षीण हो जाती हो और वह परवश हो जाती है। मनुष्य यदि चाहे तो वह इन बन्धनों को तोड़कर अपने लक्ष्य लो ओर आगे बढ़ सकता है परन्तु उसके लिए उसे अपने आपको शक्तिशाली बनाना होगा। यदि हम स्वयं को चेतन्य शक्ति आत्मा समझकर कार्य व्यवहार करें तो देह अभिमान व् देह के बन्धनों से मुक्ति पा सकते है। व्यक्ति बार-बार कहता है कि मेरा घर है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा शरीर है, तो उस मैं को जानकर, समझकर, उस 'मैं' में स्थित होकर कार्य व्यवहार करें। तो उस मैं (आत्मा) दिव्या गुणों की शक्तियों की जागृति होजाती है। अनेक लोग कह सकते है कि क्या हम अपन घर परिवार सम्बन्धियों को छोड़ दें? नहीं, किसी को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह जानना आवश्यक है कि वे मेरे नहीं हैं।
हम सब उस परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं, इनकी देख-रेख व पालन-पोषण की जिम्मेदारी परमात्मा की तरफ से मुझे मिली है, मैं तो ट्रस्टी हूँ। यह समझकर उनकी देख भाल करे तो व्यक्ति इन बंधनों से मुक्त हो सकता है। जैसे एक सरकारी अधिकारी अपने कार्यकाल में वहाँ के कार्यालय, फर्नीचर, टेलीफोन आदि उपयोग करता है। वहाँ से तबादला होने या रिटायर होने पर सब कुछ खुशी से वहीँ छोड़कर चला जाता है, बिल्कुल भी अपनापन नहीं रखता है। इसी प्रकर की सोच को व्यक्ति यदि अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धारण करले कि घर, गाड़ी, पैसा, फैक्ट्री सबकुछ मेरे उपयोग के लिए है, मुझे परमात्मा की ओर से मिली हैं, ये सब मेरी नहीं हैं तो उसे पदार्थों के बंधन से मुक्ति मिल सकती है। स्वयं (आत्मा) को भूल कर शरीर को ही सब कुछ समझाने से भ्रम होता है। अपने विचारों के परिवर्तन से ही हम स्वयं के बंधनों से मुक्त होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकते है।