स्वस्थ रहने का उपाय क्या है या हम बीमार क्यों पड़ते हैं? सामान्यतः व्यक्ति ऐसे प्रश्नों पर विचार करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता। इसलिये छोटी-मोटी पीड़ा, जैसे- सिर-दर्द, जुकाम, खाँसी या ज्वर होने पर अज्ञान के कारण घबराकर वैद्य या डॉक्टर के पास पहुँचता है और दवा के प्रभाव से रोग का लक्षण शान्त होने पर वह पुनः अपने काम-काज में लग जाता है। कुछ शान्त प्रकृति के धैर्यवान् व्यक्ति बीमार होने पर उसका कारण ढूँढने का प्रयास करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि उनसे सम्भवतः कुछ भूल हुई है। इस प्रकार के व्यक्ति भी खान-पान तथा रहन-सहन में तात्कालिक (स्वास्थ्य सुधरने तक) थोड़ा परिवर्तन करते हैं, किन्तु साथ-साथ दवा भी लेते हैं। ऐसे व्यक्ति अपेक्षाकृत अल्पकाल में स्वास्थ्य लाभ करते हैं।
जैसे मोटर बिगड़ने पर गैरेज में भेजकर ठीक करायी जाती है, वैसे ही लोग भी बीमार होने पर अपने शरीर को डॉक्टर को सुपुर्द कर देते हैं। आजकल चूँकि बीमारियों की संख्या बढ रही हैं, इसलिये आर्थिक दृष्टि से यह प्रक्रिया विशेष महँगी पड़ती जा रही है।
शरीर का स्वस्थ रहना अत्यन्त स्वाभाविक है, उसका सहज धर्म है और रोगी होना एक आकस्मिक घटना है। हमारा वर्तमान जीवन इतना अस्त-व्यस्त तथा तेज हो गया है कि अब किसी-न-किसी रोग से पीड़ित रहना उसका स्वभाव बन गया है। आज का व्यक्ति यह मानता है कि थोड़ा-बहुत अस्वस्थ रहना शरीर की स्वाभाविक अवस्था है। आधुनिक जीवन-क्रम में स्वस्थ रहने के लिये मनुष्य को विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, क्योंकि वर्तमान जीवन-क्रम शरीर को रोगी बनाये रखने का एक व्यवस्थित प्रयास ही है।
वर्तमान आहार-विहार में पञ्चतत्त्व के आधार पर मौलिक परिवर्तन किये बिना शरीर तथा मन को स्वस्थ रखना केवल हवाई-कल्पना सिद्ध होगी।
शरीर में रोग क्यों और कैसे होता है, इस पर थोड़ा विचार कर लें। गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जायगा कि हम लोग प्रतिदिन निःसंकोच प्राकृतिक नियमों का जाने-अनजाने उलंङ्गन करते रहते हैं।
आहार में असंयम- आहार-सम्बन्धी अनेक गलत धारणाओं तथा आदतों के कारण पेट की गड़बड़ी प्रायः सर्वदा बनी रहती है। यदि कभी एकाध दिन पेट साफ हो गया तो अहोभाग्य मानते हैं। कई लोगों को बचपन से कभी अच्छी तरह खुलकर दस्त होने की बात करते नहीं सुना तथा उन्होंने कभी तेज भूख का आस्वादन नहीं किया। बहुत-से बच्चे सब्जी खाना पसंद नहीं करते। मिठाईयाँ तथा तली हुई वस्तुएँ हमारे भोजन में प्रतिदिन होने का आग्रह हम लोगों का रहता है। फलतः होटलों तथा दवाखानों की संख्या बढती जा रही है।
श्रम की कमी या अभाव- आहार की ज्यादती तथा श्रम या व्यायाम की कमी अथवा पूर्णतः अभाव हमारे जीवन के कटु सत्य हैं। परिणामतः शरीर एक चलता-फिरता रोग-खाना बना रहता है, अर्थात् कोई-न-कोई रोग शरीर को खाता रहता है। पेट में वायु हो रही है, सिर भारी है, भूख नहीं लगती, मन में अस्थिरता है। इस रोग-खाने वाले शरीर को दवाखाने की आवश्यकता रहती है। इसी कारण श्रम किये बिना खाना हजम करने तथा दस्त साफ लाने के लिये पाचक एवं दस्तावर औषधियों का प्रचुर प्रचार बढ रहा है।
आजकल लोगों का जीवन मानसिक तनाव से परिपूर्ण है, जिससे शरीर की स्वाभाविक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। चिन्ताओं से घिरे रहने के कारण सिर में भारीपन, अनिद्रा, कब्ज, मन्दाग्नि आदि लक्षण स्वाभाविक हो गये हैं।
हलका व्यायाम जैसे- खुली-ताजी हवा में घूमना या खोखो, रूमाल-चोर, बैडमिंटन, रिंग आदि खेल खेलने से मानसिक तनाव तुरंत कम होता है। इससे प्रसन्नता बढती और शरीर में हलकापन आता है। मीठी थकान लगने पर नींद भी अच्छी आती है और सिर-दर्द तथा कब्ज भी दूर हो जाता है।
दैनिक जीवनचर्या में मानसिक तथा शारीरिक श्रम का संतुलन आरोग्य की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। शक्ति के अनुसार श्रम या व्यायाम के बिना शरीर को स्वस्थ रखना असम्भव है।
युक्त विश्राम का असंतुलन- रात को देर से भोजन करना, देर तक जागते रहना, सिनेमा या क्लबों में जाना आदि प्रवृत्तियाँ दिन-पर-दिन सभ्यता में गिनी जाने लगी हैं। बड़े शहरों में सम्भवतः ही कोई साढे दस या ग्यारह बजे के पूर्व सोता हो। देर से सोने के कारण प्रातःकाल भी ये देर से अर्थात् साढे छः-सात बजे तक उठते हैं। कभी-कभी नींद न आने पर भी प्रातःकाल का अमूल्य समय बिस्तर में सिर ढँककर कृत्रिम अँधेरे में बिता देते हैं। कई लोग तो आठ बजे के पूर्व उठते ही नहीं और इसका वर्णन वे ऐसे करते हैं, मानों वह कोई शानकी या वीरता की बात हो।
प्रातःकाल का अमूल्य समय नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रार्थना, स्वाध्याय, शरीर-श्रम या व्यायाम, घूमने में व्यतीत करने से तन और मन दोनों स्वस्थ-प्रसन्न रहते हैं।
शक्ति के अनुसार श्रम किये बिना अच्छी सुखद निद्रा दुर्लभ है। अनेक उच्चवर्गीय लोगों की रातें अनिद्रा या तन्द्रा में कटती हैं। कभी-कभी ये लोग नींद की गोलियों का प्रयोग करते हैं, जिससे कुछ तन्द्रा-सी आ जाती है, किंतु प्रातः ताजगी नहीं आती।
आहार में संयम तथा श्रम या व्यायाम में नियमित होने पर शरीर अपने विश्राम का स्वाभाविक मार्ग अपना लेता है।
मानसिक तनाव- मानसिक तनाव हमारे जीवन का सबसे कमजोर पहलू है। शरीर अस्वस्थ रहने के कारण मन खिन्न बना रहता है। स्वभाव कुछ चिड़चिड़ा हो जाता है। परिणामतः ईर्ष्या, द्वेष, लोभ आदि विकार मन में अनजान में पलते रहते हैं। इससे मनुष्य स्वयं तथा दूसरों का कष्ट में डालता है।
प्रार्थना, सद्ग्रन्थों का अध्ययन, नामस्मरण, ध्यान तथा विवेक एवं विचार के अनुसार जीवन व्यतीत करने का प्रयास किया जाय तो गलत आदतें अनायास छूटती जाती हैं। ऐसे व्यक्ति का आहार-विहार क्रमशः संयमित तथा प्राकृतिक होता जायगा। ईश्वर की सत्तापर दृढ विश्वास रखने से मन का बोझ हलका होने लगता है।
महातत्त्वों से दूरी- बच्चों को आवश्यकता से अधिक कपड़ों में लपेटकर रखना, वर्षा और धूप से बच्चों को सदा डरते हुए बचाते रहना आदि सभी आदतें शरीर के स्वाभाविक विकास में बाधक हैं।
गाँवों की मजदूर माताएँ अपने बच्चों को टोकरी में रखकर लाती, ले जाती हैं। ठंड के मौसम में ये बच्चे टोकरी में खुले बदन या बहुत कम कपड़े पहनकर खेलते रहते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार में गरीब माताएँ कड़ाके की सर्दी में बच्चों को गोद में उठाकर बाहर घूमती हैं। इन बच्चों का स्वास्थ्य प्रायः सुन्दर रहता है।उधर अमीर या मध्यम वर्ग के बच्चे सिल्क, नायलान, टेरेलीन आदि के कीमती, लेकिन हवा से आरक्षित अवस्थाओं में पलते हैं। जिन बच्चों को इस प्रकार हवा, धूप, पानी आदि से बचाया जाता है, उन्हें थोड़ी खुली हवा लगने पर सर्दी, जुकाम, खाँसी तथा धूप में थोड़ा चलने पर ज्वर भी आ सकता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर प्रकृति से दूर रहने का प्रयास करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य नाजुक बना रहता है।
श्रम, व्यायाम या कसरत आदि के अभ्यास से ये नाजुक बच्चे प्रकृति की गोद में पूरी आजादी से खेल सकते हैं। इससे उनके ऊपर कोई प्रतिकूल परिणाम नहीं होगा, अपितु ये शरीर और मन से अधिक स्वस्थ और सुन्दर बनेंगे।
आजकल वातानुकूल घर में रहने या आफिसों में काम करने वालों का सर्दी या गरमी दोनों सहन नहीं होती। ऐसा प्रसंग आने पर उनको प्रायः जुकाम या सिर-दर्द हो जाता है। बहुत सर्दी या गरमी के अवसरों में ये लोग वातानुकूल स्थान में रहें तो इससे शरीर पर कोई विशेष प्रतिकूल परिणाम नहीं पड़ता। फिर भी सामान्यतः जितना हो सके, स्वाभाविक तापमान के वायुमण्डल में रहना सदा हितकर है। इससे जीवनी-शक्ति बढती है और शरीर की रोग-प्रतिकार-शक्ति में भी वृद्धि होती है।
प्रकृति ईश्वर का ही स्वरूप- मन दुःख से भरा हो, किसी कठिन समस्या में उलझा हो, तो ऐसी अवस्था में किसी सुन्दर पहाड़ी झरने के पास केवल शान्त बैठे जाने मात्र से प्रकृति माता व्यक्ति के मानसिक कष्ट को अनजान में ही हर लेती है। जो प्रकृति सूक्ष्म मानसिक कष्टों को दूर कर सकती है, वह स्थूल शरीर के कष्ट को भी सरलता से दूर कर सकेगी, इसमें शंका नहीं है, बशर्ते कि हम उसके पास जाने का कष्ट करें।
कृत्रिम शहरों से दूर, प्रकृति के बीच जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोग हृदय से कितने उदार, निर्मल और भोले हैं। प्रकृति स्वयं उदार और निर्मल है। वह तो ईश्वर का प्रत्यक्ष स्वरूप ही है। इसीलिये प्रकृति के बीच रहनेवाले लोग तन और मन दोनों से स्वस्थ और सुन्दर होते हैं। ऋषि, मुनि या साधक लोग इसी कारण पहाड़ों और जंगलों में जाकर साधना करते हैं, जिससे उनके ईश्वरीय गुण उच्चतम भूमिका में पहुँचकर स्वयं ईश्वरस्वरूप हो जाये।
प्रकृति से सम्यक् सम्बन्ध साधकर मनुष्य आसानी से तन और मन के कष्टों से छुटकारा पा सकता है। केवल प्रकृति के निकट जाने मात्र से मानव में कुछ गुण अवश्य आते हैं, लेकिन मानव की पूर्णता प्रकृति के नियम का पालन करने में है। जब दीर्घकाल तक नियम-पालन किया जाता है, तो फिर उसका बोझ मन पर नहीं होता और वह मनुष्य का स्वभाव बन सकता है। कहावत है- आदत मनुष्य का स्वभाव बन जाती है।
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