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हम ऋणी हैं महर्षि दयानन्द सरस्वती के

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Ham rini hai rishi dayanand ke

महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। उन्होंने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूँका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति के कारण उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लिखा है-
‘‘अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।

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विद्वान् सन्तों की परम्परा में- महर्षि दयानन्द सरस्वती के हृदय में भारत को स्वाधीन कराने की इच्छा उत्कृष्टतम रूप में थी। स्वराज्य की उनकी अवधारणा नितान्त मौलिक थी। वे आपसी वैमनस्य को समाप्त कर समान पूजा पद्धति, समान शिक्षा और एकभाषा के पक्षधर थे। एक शताब्दी से अधिक समय हो चुका है, परन्तु समाज में उसी प्रकार की कुरीतियाँ आज भी विद्यमान हैं। बल्कि समाज और भी ज्यादा टुकड़ों में बँट गया है। यहाँ पर आए दिन प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता, जातीयता, भाषा, समुदाय के नाम पर झगड़े होते रहते हैं। कभी-कभी तो आर्यसमाज जो एक सार्वभौम वैदिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए कार्यरत हैं, उस पर भी साम्प्रदायिक होने के आरोप लगाये जाते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती के निधन पर अलीगढ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खाँ के शब्द ध्यान देने योग्य हैं। इनके शब्दों से उन लोगों की आँखें खुल जानी चाहिएं, जो उन्हें मुसलमानों का शत्रु समझते थे। महर्षि दयानन्द का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बहुत ही ऊँची कोटि का था। वे कर्मयोगी एवं महान सुधारक थे। उन्होंने जाति भेद और अस्पृश्यता की बुराईयों को दूर करने के लिए घोर परिश्रम किया था। उनमें साम्प्रदायिक द्वेष अथवा संकीर्णता का तो लेशमात्र भी न था।

सर सैयद अहमद खाँ के अलीगढ इंस्टिट्यूट मैगजीन 6 नवम्बर 1883 में प्रकाशित विचार इस प्रकार हैं-
‘‘निहायत अफसोस की बात है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो संस्कृत के बड़े आलम (विद्वान) और वेद के बड़े मुहक्किल (समर्थक) थे, 30 अक्तूबर 1883 को 7 बजे शाम को अजमेर में इन्तकाल किया। वे इलावा इलमी फजल (उत्तम विद्या के अतिरिक्त) निहायत नेक और दरवेश सिफत (साधु स्वभाव) आदमी थे। इनके मोहत किद (अनुयायी) इनको देवता मानते थे। और बेशक वे इसी लायक थे। वे सिर्फ ज्योति स्वरूप निराकार के सिवाय, दूसरे की पूजा जायज (विहित) नहीं मानते थे। हममें और स्वामी दयानंद मरहूम (स्वर्गीय) में बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत अदब (आदर) करते थे। जबकि हरेक मजहब वाले को इनका अदब लाजिमी (आवश्यक) था। बहरहाल वे ऐसे शख्स थे, जिनका मसल (उपमा) इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। और हरेक शख्स को उपकी वफात (मृत्यु) का गम (शोक) करना लाजिमी है कि ऐसा बेनजीर शख्स (अनुपम मनुष्य) इनके दरमियान से जाता रहा।’’

युग-प्रवर्तक- महर्षि दयानन्द सरस्वती युग-प्रवर्तक महापुरुष थे। उन्होंने भारत के शक्ति शून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। जगविख्यात विचारक श्री रोम्या रोलां ने रामकृष्ण की जीवनी के पृष्ठ 146 पर ठीक ही लिखा है-
‘‘ऋषि दयानंद ने भारत के शक्ति शून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। स्वामी दयानन्द उच्चतम व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष थे। कर्मयोगी, विचारक और नेता के उपयुक्त प्रतिभा ये सभी प्रकार के दुर्लभ गुण उनमें विद्यमान थे। वह सिंह समान व्यक्तियों में से एक हैं। यूरोप भारत के विषय में निर्णय करते हुए सम्भवतः भारत को तो भूल जाए, पर शायद उसे दयानन्द को याद करने को बाध्य होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें प्रतिभाशाली नेतृत्व से युक्त कर्मशील विचारणा का अद्भुत संगम था।

स्वामी दयानंद ने अस्पृश्यता के अन्याय को भी सहन नहीं किया। उनसे अधिक अस्पृश्यों के अपहृत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई नहीं हुआ।’’
भारत में स्त्रियों की शोचनीय दशा को सुधारने में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बड़ी उदारता एवं साहस से काम लिया। ऋषि के आगमन से पूर्व स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् अर्थात् स्त्री और शूद्र पढने के अधिकारी नहीं हैं, इस विचारधारा का प्रसार था। ऋषिवर ने सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में लिखा- ‘‘राजनियम और जाति नियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ महर्षि के इस मन्तव्य का हिन्दुओं ने कड़ा विरोध प्रकट किया। आर्यसमाज ने कन्या पाठशालाएँ खोलीं। आज सर्वत्र कन्याओं को पढने की सुविधा मिल चुकी है और महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय योगदान कर रही हैं।

वर्णाश्रम के समर्थक- महर्षि दयानंद सरस्वती ने पुरातन वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वास्वत में अमर्यादित वर्ण व्यवस्था ने हिन्दू धर्म को खोखला कर रखा था। यह वर्ण व्यवस्था जन्म पर आश्रित हो गई थी। इस व्यवस्था में दलित वर्ग का स्थान बहुत ही निम्न स्तर का बन चुका था। सर्वत्र लोग हरिजनों की छायामात्र से मलिन हो जाते थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सभी को आर्य नाम से पुकारा। सभी को एक समान स्थान दिया। आर्यसमाज का सदस्य बनने का अधिकार मानव-मात्र को दिया। महात्मा गांधी ने आर्यसमाज से प्रभावित होकर हरिजनोद्धार का कार्यक्रम बनाया। ऋषिवर ने शुद्धि कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने पर भी बल दिया। उन्होंने मानव-मात्र को आर्य बनाने का सन्देश दिया। बन्द दरवाजों को विधर्मियों के लिए अपने मूल धर्म में लौट आने हेतु खोल दिया। महर्षि का यह कार्य बड़ा क्रान्तिकारी रहा। आज तो हमारे सनातन धर्मी भाईयों ने भी इसे अपना लिया है।

वेदों के उद्धारक- महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेद को ही परम प्रमाण माना। वेद स्वतः प्रमाण हैं। महर्षि ने वेदों के उद्धार के लिए अत्यधिक परिश्रम किया। वेद ईश्‍वरीय ज्ञान हैं। उनमें कोई बात ईश्‍वर के गुण-कर्म-स्वभाव से विपरीत नहीं है। कोई बात सृष्टि क्रम के विपरीत नहीं है। वेद का ज्ञान परमात्मा ने मनुष्यों को उन्नति करने में सहायता देने के लिए दिया है। वेद का अर्थ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के अनुकूल होना चाहिए। वेद में सभी सत्य विद्या एवं विज्ञानों का वर्णन है। महर्षि के प्रभाव के परिणामस्वरूप आज वेदों का अध्ययन भारत में ही नहीं, विश्‍व के अनेकों देशों में किया जा रहा है। साथ ही वर्तमान वेद भाष्य ऋषि दयानन्द सरस्वती की भाष्य शैली से प्रभावित एवं अनुप्राणित है।

सुप्रसिद्ध योगी श्री अरविन्द ने महर्षि का चरित्र-चित्रण इस प्रकार किया है- ‘‘दयानन्द दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक तथा विश्‍व को प्रभु की शरण में लाने वाला योद्धा था। वह मनुष्यों और संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था। उसके व्यक्तित्व की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
एक मनुष्य जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन तत्व में से अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति गढ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वे स्वयं एक दृढ चट्टान थे। उनमें ऐसी दृढ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ और सुड़ौल बना सकें।

महर्षि दयानन्द की यह धारणा कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सच्चाईयाँ पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद अथवा कल्पित बात नहीं है। वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्‍वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या कोई भी हो महर्षि दयानन्द का यथार्थ निर्देशों के प्रधान आविर्भावक के रूप में सदा मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग को मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उनकी दृष्टि थी कि जिसने सच्चाई को निकाल लिया और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था उनकी चाबियों को उन्होंने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उन्होंने तोड़कर परे फेंक दिया।’’

सुप्रसिद्ध योगी श्री अरविन्द जी ने ये विचार निश्‍चय ही ऋषिवर के जीवन को स्पष्ट एवं मूर्त विचारणा विच्छिति प्रदान करते हैं। धार्मिक नेता के रूप में उभरे ऋषिवर ने सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सभी क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। शिक्षा और सत्य धर्म के लिए उन्होंने अपनी मौलिक व्याख्या प्रदान की। जिन्होंने उनका घोर विरोध किया था, वे भी भले ही शब्दों में उनका आभार न मानें, पर कार्य रूप में उनका अनुसरण कर रहे हैं। सामाजिक-राजनैतिक कार्यक्रम इसके स्पष्ट एवं सबल प्रमाण हैं। - डॉ. धर्मपाल (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)


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