विशेष :

बहुत पहले की बात है कि मथुरा में 'राजा बाबू' नाम के एक सेठ रहते थे। धर्म की ओर उनकी बहुत रूचि थी। कितने ही मन्दिर उन्होंने बनवाए। एक पाठशाला बनवाई जिसमें विद्वान सन्यासी पढ़ते थे। राजा बाबू का एक और सेठ लक्ष्मीचन्द्र से झगड़ा था, जो जमीन के सम्बन्ध में था। झगड़ा बढ़ते-बढ़ते न्यायलय में पहुँचा। अभियोग चलने लगा। कई वर्ष अभियोग चलता रहा। राजा बाबू यह अभियोग भी लड़ते थे और अपने घर का काम भी करते थे। उनकी बनवाई हुई पाठशाला में प्रत्येक रात्रि को कथा होती थी। राजा बाबू सवर्दा उसे सुनने जाते। कथा सुनते-सुनते संसार में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अपने गुरु से पूछकर वे पाठशाला में रहने लगे। एक कमरे में पड़े रहते थे। खाना घर से आ जाता; वे खा लेते और जाप करते रहते। बहुत समय बीत गया।

एक दिन उन्होंने गुरु को कहा- ''यदि उनकी कृपा हो तो संन्यास ले लूं।'' गुरु ने कहा- ''नहीं राजा बाबू, अभी तुम संन्यासी के योग्य नहीं हुए।'' राजा बाबू ने सोचा, 'मैं घर नहीं जाता परन्तु मेरी रोटी तो घर से आती है। अब घर से रोटी नहीं मँगाऊँगा। यहीं एक नौकर रख लूँगा; वही बना दिया करेगा। ' ऐसा ही किया उन्होंने और फिर कुछ दिन बाद यह सोचकर कि अब तो घर से कोई सम्बन्ध नहीं, वे फिर बोले- ''गुरु महाराज! अब यदि संन्यास ले लूँ तो?'' गुरु ने कहा- ''नहीं, अभी समय नहीं आया।'' राजा बाबू ने सोचा- ''मैं अभी नौकर से रोटी बनवाता हूँ, इसलिए गुरु जी नहीं मानते। यह भी छोड़ दूँ। भिक्षा माँगकर खाऊँगा और आराम की सब वस्तुएँ भी छोड़ दूँ।' तब ऐसा ही किया उन्होंने। सुबह के समय नगर में जाते, भिक्षा करके लाते और सारा दिन आत्म-चिंतन में मस्त होकर बैठे रहते। पर्याप्त समय बीत गया। फिर प्रार्थना की गुरु से- ''गुरु जी, मुझे संन्यास दे दीजिए!'' गुरु ने सोचकर कहा- ''अभी नहीं राजा बाबू!'' और राजा बाबू आश्चर्यचकित कि अब क्या त्रुटि रह गई? सोचकर देखा और फिर अपने-आपको कहा- 'मैं सभी जगह माँगने गया हूँ, परन्तु सेठ लक्ष्मीचन्द्र के यहाँ माँगने नहीं गया। इसलिए शत्रुता की पुरानी भावना अब भी मेरे ह्रदय में बसी हुई है। इस भावना को छोड़ देना होगा।' और दूसरे दिन प्रातः काल ही सेठ लक्ष्मीचन्द्र के मकान पर पहुँच गये। जाकर अलख जगाई- '' भगवान् के नाम पर भिक्षा दे दो!'' सेठ लक्ष्मीचन्द्र के नौकर ने राजा बाबू को देखा तो दौड़े-दौड़े सेठ के पास गए; हाँफते हुए बोले- '' सेठ जी! राजा बाबू आपके यहाँ भीख माँगने आया है।''

लक्ष्मीचन्द्र आश्चर्य से बोले- ''यह कैसे हो सकता है? तुम्हें भ्रम हुआ है। कोई और होगा वह। '' नौकरों ने कहा- '' नहीं, सेठ जी! यह राजा बाबू ही है। यदि आप कहें तो खाने में विष मिलाकर दे दें। सर्वदा के लिए झगड़ा समाप्त हो जाएगा।'' लक्ष्मीचन्द्र उच्च स्वर में बोले- ''नहीं मुझे देखने दो। '' मकान के द्वार पर आकर देखा कि राजा बाबू झोली पसारे खड़े हैं। राजा बाबू ने उन्हें देखा और झोली फैलाकर बोले - ''सेठ जी ! भिक्षा'' लक्ष्मीचन्द्र दौड़कर आगे बढे, चिल्लाकर बोले- ''राजा! '' राजा बाबू को अपनी छाती से लगा लिया उन्होंने। राजा बाबू ने झुककर उनके चरणों का स्पर्श किया। लक्ष्मीचन्द्र भी उनके पैरों में जा गिरे; बोले- '' राजा बाबू! ऊपर चलो, मेरे साथ बैठकर खाना खाओ।'' राजा बाबू बोले- '' नहीं सेठ जी! मैं तो भिखारी बनकर आया हूँ, भीख डाल दो मेरी झोली में! '' 

उसी समय एक नौकर भागता हुआ आया; बोला- ''सेठ जी तार! देखिए, इस तार में क्या लिखा है।'' लक्ष्मीचन्द्र ने खोकर पढ़ा। तार राजा बाबू के बेटों का था; कलकत्ता से आया था- ''हमारे पिता राजा बाबू का कहीं पता नहीं लगा। भूमि का झगड़ा अभी समाप्त नहीं हुआ, किन्तु इस जमीन को लेकर हम क्या करेंगे? इस तार द्वारा हम भूमि से अपना अधिकार वापस लेते हैं। हमारे पिताजी नहीं हैं। आप कृपा हमारे पिताजी बनिये। हमें अपनी रक्षा में लीजिए!'' लक्ष्मीचन्द्र रोते हुए बोले- '' नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा! उन्हें लिखो कि उनकी भूमि उनकी है, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं पिता बनकर उनकी रक्षा करूँगा। आज से केवल राजा बाबू के नहीं, मेरे भी बेटे हुए। ''पश्चात् राजा बाबू भिक्षा लेकर मुड़े तो देखा-सामने गुरूजी खड़े हैं, हाथ में गेरुए वस्त्र लिये हुए। राजा बाबू को छाती से लगाकर बोले- '' अब तू संन्यास के योग्य हुआ राजा बाबू ! अब ये कपडे पहन!''