नैन नशीले हों अगर तो सुरमे दी की लोड फिल्म के गीत अंबरसरिया की ये पंक्तियाँ बार-बार आकर्षित करती हैं। हम सब सुंदर व आकर्षक दिखने के लिए बनाव-श्रृंगार करते है। सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग करते हैं। विभिन्न प्रकार की क्रीम, पाउडर व दूसरी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। शरीर की दुर्गंध को दबाने के लिए शरीर पर इत्र मलते हैं अथवा अन्य सुगंधित द्रव छिड़कते हैं। आँखे के सौंदर्य में वृद्धि करने के लिए काजल लगाते है। उपरोक्त पंक्ति में सही ही तो कहा गया है कि यदि नायिका की आँखे मादक हों तो उसे काजल लगाने की क्या जरूरत है। वास्तव में हमरे शरीर के विभिन्न अंगो-उपांगों का जो स्वाभाविक प्राकृतिक सौंदर्य है उसके सामने बाह्य उपचार व्यर्थ हैं। तो फिर सौंदर्य प्रसाधनों का क्या औचित्य है? रोग की अवस्था में औषधि का प्रयोग अनुचित नहीं लेकिन शुद्ध-सात्विक भोजन व स्वास्थ्य ने नियमों की उपेक्षा करके मात्र औषधियों के बल पर शरीर को स्वस्थ बनाए रखने का प्रयास हास्यास्पद ही नहीं घातक भी है। वास्तव में शरीर में जब कोई छोटी-मोती बाह्य कमी या दोष हो तो उसे बाह्य सौंदर्य प्रसाधनों द्वारा दूर किया जा सकता है लेकिन संपूर्ण व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का आधार सौंदर्य प्रसाधन नहीं हो सकते।
सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से मन की घातक नकारात्मक वृत्तियों तथा उनसे उत्पन्न अनुचित व्यवहार को न तो दबाया जा सकता है और न उसमें सुधार ही किया जा सकता है। वैसे भी हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व का मुश्किल से दस प्रतिशत भाग ही हमारी कद-काठी व नैन-नक्श अथवा बाह्य व्यक्तित्व द्वारा निर्धारित होता है। शेष नब्बे प्रतिशत व्यक्तित्व तो आंतरिक व्यक्तित्व ही होता है जिसका विकास अनिवार्य है। आज मेकअप की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है और इसमें लगातार वृद्धि होती जा रही है। सौंदर्य प्रसाधनों द्वारा नायिका के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का प्रयास किया जाता है। आज भी भाषा में कहें तो उसकी आँखों को अधिकाधिक सेक्सी बनाने व दिखाने का प्रयास किया जाता है। एक युवा नायिका की आँखों में मादकता होना स्वाभविक है लेकिन वो मादकता आंतरिक भावों की अभिव्यक्ति होती है। आँखों का वास्तविक सौंदर्य उनके भावों में है सुरमे में नहीं। यदि युवा नायिका की आँखों में मादकता नहीं, एक माँ की आँखों में वात्सल्य नहीं और हम सब की आँखों में वात्सल्य नहीं और हम सब की आँखों में करुणा व सवेंदशीतला नहीं तो आँखों का बाह्य सौंदर्य व्यर्थ है। आँखों की संवेदनशीलता, करुणा, वात्सल्य, मादकता अथवा जितने भाव है मन से उत्पन्न होते है अतः मन का सौंदर्य सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
अतः मन के सौंदर्य पर अधिक ध्यान देना अपेक्षित है। एक माँ अपनी ममता अथवा वात्सल्य को शब्दों में नहीं अपने व्यवहार से व्यक्त करती है और उस व्यवहार का कारण होता है मन की सोच। मन में जैसी सोच होगी वैसी ही हमारे व्यवहार में परिलक्षित होगी। अतः शरीर की अपेक्षा मन को सुंदर बनान अधिक जरूरी है। तरबूज को मीठा बनाने के लिए उसमें स्वास्थ्य के लिए घातक सैक्रीन के इंजेक्शन लगाने के बजाय उसे प्राकृतिक अवस्था में खाना ही ठीक है। व्यक्तित्व के संपूर्ण व सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य है आंतरिक सौंदर्य का विकास जो व्यक्ति के नैतिक व चारित्रिक विकास में ही निहित है। हमने सुकरात, महात्मा गांधी अथवा मदर टैरेसा का मूल्यांकन कभी उनके बाह्य व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर नहीं अपितु उनकी आत्मा अथवा मन के सौंदर्य को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। अपेक्षित यही कि पर हम बाह्य सौंदर्य के साथ-साथ आंतरिक सौंदर्य के विकास पर अधिक ध्यान दें। आंतरिक सौंदर्य के समक्ष बाह्य सौंदर्य कितनी देर टिक सकेगा।