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इंसान की पहचान संस्कारों से

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जीवन निर्माण में संस्कारों का बहुत ही बड़ा महत्व है। सुसंस्कारों के अभाव में व्यक्ति सभ्यता एवं संस्कृति से दूर हो जाता है। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है, जिसके आगे संस्कार की धन-दौलत कुछ भी मूल्य नहीं है। मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है। सुसंस्कारों के जागरण से ही व्यक्ति आत्मोपलब्धि को प्राप्त होता है। संस्कार जीवन निर्माण का द्वार हैं। शरीरधारी प्राणी के लिए भोजन, हवा आवश्यक है, उसी प्रकार आत्म-विशुद्धि के लिए संस्कारों का जागरण जरुरी है। संस्कारों के जागरण के लिये सयंम, सदाचार, सहीविष्णुता आदि सद्गुण जरुरी है।

विनीत शिष्य ने गुरुदेव को वंदना कर जिज्ञासा की-भन्ते! इंसान की असली पहचान क्या है? क्या वह अपने देश-प्रदेश, रहन-सहन से जाना जाता है या फिर उसकी भाषा या जाति उसकी पहचान बनती है। बल शिष्य की मन में उठी जिज्ञासाओं को समाहित करते हुए गुरुदेव ने कहा-वत्स! इंसान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार उसके समूचे जीवन को व्याख्यायित करते हैं। शिष्य ने बड़ी निनम्रता से गुरुदेव से पूछा-गुरदेव मैं संस्कारों के अमूल्य इतिहास को समझना चाहता हूँ। गुरुदेव ने विनीत शिष्य को बड़े प्यार से समझाते हुए कहा-वत्स संस्कार हमारी जीवन शक्ति है, यह एक निरन्तर चलने वाली एक ऐसी दीपशिखा है जो जीवन के अंधरे मोड़ों पर भी प्रकाश की किरणें बिछा देती हैं। उच्च संस्कार मानव को महामानव बनाते हैं।

गणाधिपति श्री तुलसी ने संस्कार बोध में लिखा है- संस्कारों की सम्पदा है उत्कृष्ट, अमूल्य। - धन वैभव संस्कार का रखता है क्या मूल्य। संस्कारों के बजारोपण का समय बचपन है। संस्कार वह जन्मघूंटी है जिसे ग्रहण करने वाले बालक का जीवन सफर खुशनुमा बन जाता है। बचपन से ग्रहण किये गए संस्कार जीवन के अंत तक बने रहते हैं। बचपन जीवन के महा की नींव है। इसे मजबूत बनाएं। यह जीवन की वृक्ष की जड़ है। इसे अच्छी आदतों और अच्छे संस्कारों के मधुर जल से सिंचित करें, ताकि वह हरा-भरा रहे और समाज को मीठे फल प्रदान कर सके। बालक कोरे कागज के समान होते हैं। उसमे चाहें जैसे चित्र उकेरे जा सकते हैं। अपेक्षा है बालक रूपी कोरे कागज पर पुरुषार्थ रूपी तूलिका से सम्यग ज्ञान का रंग भरकर सुंस्कारों के चित्र उकेरे जाएँ, जिससे बालक का भविष्य उज्जवल बन सके। सुसंस्कारों के अर्जन से ही श्रेष्ठ जीवन का सर्जन होता है। एक संस्कारी कर असंस्कारी बालक उतना ही अन्तर जितना देशी घी और डालडा घी में होता है। जिस प्रकार सुगन्ध के बिना फूल का, स्नेह के बिना दीपक का कोई मूल्य नहीं होता उसी प्रकार सुसंस्करों के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता है -''संस्कारी जीवन हो ऐसा, रामायण ज्यूं जिल्द बँधी, - इसेक बिना जिन्दगी जैसे बाढ़ उगलती हुई नदी।''

बालक जगत की अनुपम कृति है। बालक संस्कारों की संस्कृति है, संसुति है। आज का बच्चा ही कल के देश का कर्णधार है। बाल्यवस्था अर्जन की, युवावस्था सर्जन की व व्रद्धावस्था विसर्जन की अवस्था होती है। अगर बाल्यकाल विजय, विवेक, अचार, विचार और व्यवहार के संस्कारों का अर्जन नहीं किया गया तो युवावस्था में सर्जन वृद्धावस्था में विसर्जन नहीं किया जा सकता।

वर्तमान युग में विज्ञान की तरक्की एवं अभिनव बौद्धिक शिक्षा प्रणाली से व्यक्ति एक अच्छा डॉक्टर, इंजिनीयर, प्रोफेसर, कलेक्टर तो बन सकता है, पर एक अच्छा इंसान नहीं बन सकता। अच्छा इंसान बनने के लिये आवश्यक है बौद्धिक, भौतिक शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारों व जीवनोपयोगी शिक्षा, जो सर्वांगीण विकास कर सके। आज नई पीढ़ी में धर्म के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही है। केवल धर्म के प्रति ही नहीं परिवार, समाज, राष्ट्र आदि दायित्वों के प्रति भी अधिकाधिक लापरवाह होता जा रहा है। भौतिकवादी, भोगवादी मनोवृत्तियाँ उसके मानस पर इतनी अधिक हावी होती जा रही है कि केवल आमोद-प्रमोद मनोरंजन, समय का अपव्यव करने वाली प्रवृतियों के प्रति उसका आकर्षण बढ़ता जा रहा है। साथ ही स्वार्थ भाव, श्रमविमुखता, अनैतिकता, प्रमाद-हिंसा अदि का प्रभाव सामान्य से अधिक दृष्टिगोचर होता जा रहा है। सभी धर्म, सम्प्रदायों के लोगों के लिए यह चिंतनीय विषय हो गया है। सभी चिंतित है कि नई पीढ़ी को कैसे संस्कारी बनायें, कैसे धर्म के प्रति उसका आकर्षणहो? कैसे वह उत्साह से धर्मकार्यों में भाग लें? यह निश्चित है कि जब तक उसे प्रेरित व् आकर्षित करने वाला कोई सशक्त माध्यम प्रस्तुत नहीं होगा, इस समस्या का समाधान भी नहीं हो सकेगा।