* पढने-पढाने की सार्थकता तभी है, जब आदमी की समझ बढे।
* विचार शक्ति ही हमें शक्तिशाली कमजोर, सक्रिय-निष्क्रिय, मित्र-शत्रु आदि बनाती है।
* यदि हमारे विचार उन्नत होंगे तो हमारे कर्म भी श्रेष्ठ होंगे।
* हर व्यक्ति अपने मन में उठ रहे विचारों का प्रतिबिम्ब ही होता है।
* जन्म से कोई व्यक्ति महान नहीं होता। मनुष्य की महानता उसके कर्मों से होती है।
* संस्कृत से संस्कारों का निर्माण होता है।
* दिव्य संस्कारों से मनुष्य का गौरव बढता है।
* भारत की संस्कृति का आधार विश्व बन्धुत्व की भावना है।
* इतिहास में विश्व-पटल पर भारत की पहचान विश्व बन्धुत्व की भावना के आधार पर रही है।
* चिन्तन करना मान-मस्तिष्क का प्रधार गुण है।
* सकारात्मक चिन्तन से ही मानव महान बन सकता है।
* विचार ही मानव की प्रेरणा शक्ति होती है।
* सकारात्मक सोच हमें सक्रिय तथा नकारात्मक सोच हमें निष्क्रिय बनाती है।
* संस्कार हीन विचारों के कारण मनुष्य के अन्तःकरण में विकृतियाँ जन्म ले लेती हैं।
* वर्तमान को प्रसन्नता के साथ जीना सीखें। जीवन का हर दिन बची हुई शेष जिन्दगी का पहला दिन होता है।
* जब हम रात्रि में विश्राम के बाद प्रातः सोकर उठते हैं तो हमारा हर दिन बची हुई शेष जिन्दगी का पहला दिन होता है।
* जो बीत चुका उसके बारे में पछताना नहीं चाहिए और आने वाले समय का क्या भरोसा, हाथ लगेगा भी या नहीं।
* सूर्योदय से पूर्ण ब्रह्म मुहूर्त में व्यक्ति जितना अच्छा चिन्तन कर सकता है, उतना दूसरे समय में नहीं कर सकता। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यही समय सर्वोत्तम है।
* हर व्यक्ति को खुश करने का प्रयास करना अवश्य ही असफल होने की कुंजी है। सभी को तो परमात्मा भी खुश नहीं कर सकते।
* हमें न तो अध्यात्मिकता की उपेक्षा करनी चाहिए और न ही भौतिक सुख-सुविधाओं की।
* मनुष्य को सदा सम्मानपूर्वक और धर्मपूर्वक धन कमाना भी चाहिए और आवश्यकतानुसार उसका संग्रह भी करना चाहिए, लेकिन अधर्मपूर्वक कभी नहीं।
* सुख-दुःख कोई भी स्थायी नहीं होते। इनका आना-जाना तो लगा ही रहता है।
* हमारे व्यक्तित्व और चरित्र में जितना विकास होगा। उसी विकास के अनुपात में हमें सब प्रकार की सफलताएँ भी मिलेंगी।
* ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले मनुष्यों को नीन्द, तन्द्रा, डर, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता इन छह अवगुणों को त्याग देना चाहिए।
* मनुष्य को कभी भी काम से, लोभ से या जीवन रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। क्योंकि धर्म नित्य है और सुख अनित्य। जीव नित्य है तथा जीवन का हेतु अनित्य है।
* जरूरतमन्दों की आवश्यकता और अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे का सहयोग करने वाले व्यक्तियों को कभी निराश नहीं होना पड़ता।
* सुख-दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसे सुख चाहिए, उसे दुःख भी लेना होगा।
* सामान्य लोग पसन्दगी या नापसन्दगी की पृष्ठभूमि से कर्म करते हैं और यदि पसन्दगी का उद्देश्य पूरा न हो तो दुःख महसूस करते हैं। सुख का आधार है निष्काम कर्म।
* तनावमुक्त रहने का सरल उपाय है कि हम इस सच पर विश्वास कर लें कि हमारी अपनी इच्छाओं की अपेक्षा ईश्वर की इच्छा महान होती है।
* यदि मनुष्य अपनी योग्यता और क्षमता को समझकर उन्हें जाग्रत करने की कला भी सीख ले तो निश्चय ही मनुष्य जाति की यह दुर्दशा न हो जो आज हो रही है।
* वास्तविक सुख स्वार्थपरता को नष्ट करने में है और इसे अपने सिवा कोई दूसरा व्यक्ति कर ही नहीं सकता।
* जप और जाप में अन्तर है कि जप कल्याण भाव से होता है, जबकि जाप स्वार्थ भाव से होता है। भले ही वह स्वार्थ कितना ही श्रेष्ठ व पवित्र क्यों न हो।
* अच्छे समाज के निर्माण के लिए लोगों को जागरूक होना चाहिए।
* मनुष्य वही काम करता है, जिसे करने के लिए उसका दिमाग निर्देश देता है।
* आज का मानव दानव बन गया है।
* आज विज्ञान का विकास अभिशाप बन गया है।