अज्ञान के बिना दुःख भोग नहीं होता है दुःख भोग से अज्ञान बढ़ता है। अज्ञान का फल दुःख होता है. सांसारिक सुख भी चार प्रकार के दुःखों से युक्त है, दुःख भोग से ही अज्ञान बढ़ता है। दुःखानुभूति हो तो मौन हो जाओ, दुःख से निष्क्रिय हो जाओ और चित्त मे अज्ञान की खोज करो, जिससे दुःख भोग हो रहा है। इसका विसर्जन करो नये अज्ञान के संस्कारों का संग्रह न करो। पिछले अज्ञान के संस्कारों का क्रिया योग से निष्कासन करो। उससे दुःखों को उत्पन्न करने वाले क्लेशों के संस्करों का निर्बल होना होगा और समाधि की ओर गति होगी। ऐसा न करोगे तो दुःख भोग से द्वेष होगा और सुख भोग से राग होगा। उससे नये कर्माशय का संग्रह होगा, जो शुभाशुभ कर्मों से बनेगा।
इस प्रकार पुनः फल भोग, सुख-दुःख, राग-द्वेष वासना, शुभाशुभ कर्म और भव चक्र गतिमान होता रहेगा, इसलिए कहा कि दुःख भोग से प्रतिकार, विरोध, हिंसा व क्रोध के भाव उत्पन्न होते हैं। उन भावों से व्यवहार अज्ञान को बढ़ाएगा। अज्ञान से दुःख इसी प्रकार सुख भोग से लालसा, तृष्णा व अशान्ति पैदा करेगा।
योगाभ्यासी इसे विवेक से प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। तब व्यवहार मैत्री। करुणा, मुदिता व उपेक्षा का व्यवहार करेगा। उससे प्रसन्न रहेगा। प्रसन्नता से ज्ञान बढ़ेगा, ज्ञान बढ़ने से प्रसन्नता बढ़ेगी, इसका फल दुःख व ज्ञान का नाश होना है तथा प्रसन्नता और ज्ञान की वृद्धि होगी जो अंत में बन्धन से छुड़ाकर दुःखों का नाश कर, मुक्ति को प्राप्त कर विद्या को स्थिर क्र अखण्ड आनन्द को प्राप्त कराएगी। अविद्या की वासनाओं के बिना भोग नहीं होता है। भोग होने पर उससे वासनाएँ निर्मित हटी हैं, उससे प्रेरित कर्म बन्धन देते हैं। विद्या की वासनाओं के बिना दुःखों का छूटना नहीं होता है। मिथ्या स्व-स्वामी को समझाना वर्मतान स्व-स्वामी को समझना पश्चात् जीवात्मा को भोगाभ्याश मिथ्या ज्ञान छूटना वर्तमान के यथार्थ से अविद्या की वासना का नाश कर विद्या की उन्नति कारण उससे शाश्वत् सुख की उपलब्धि होगी।