एक मानव जो सारी सृष्टि में श्रेष्ठ कहलाने का दम भरता है वह दो रोटी के लिए भाई के गले काटता है। माता-पिता से मुकदमें चलाता है और दरिद्रों का शोषण करता है। जो पेट घास और पात से भरा जा सकता है उसके लिए यह निर्मम संहार। आदमी को पेट के लिये दो रोटी चाहिये। तन ढाकने को चार गज कपडा चाहिये और रहने को साढ़े तीन हाथ की जगह चाहिये। इससे अधिक उसके लिये सब व्यर्थ है। जो करोड़पति हैं उनको तो दो रोटियां भी नहीं पचती, उनके लिये तो मूंग की दाल का पानी ही पर्याप्त है फिर क्यों आदमी का पानी ही पर्याप्त है फिर क्यों आदमी पाप का भागी बनता है? इसलिये भगवान ने इतना ही मांगना चाहिए जिसमें अपना काम चल जायें। किसी ने ठीक ही कहा था-
साईं इतना दीजिये, जा में कुटम् समाय।
मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय ।।
आवश्यकताओं को जितना चाहें बढ़ाया जा सकता है और जितना चाहे घटाया जा सकता है। भर्तृहरि जी के जीवन की घटना सुनाते हैं।
भर्तृहरि जी को जिस समय वैराग्य हो गया तो राज पाट छोड़ कर जंगल में चलने का कार्यक्रम बनाया गया। सोचने लगे कि जंगल में रहने के लिए कुछ सामान साथ लेकर चलना चाहिये। पहनने को कुछ वस्त्र भी चाहिए, खाने को आटा दाल, चावल चाहिये, सोने को चारपाई चाहिये। इस प्रकार सब मिलाकर एक छकड़े का सामान हो गया। प्रातःकाल सब गाड़ी में सामान भरकर चलने लगे तो विचार आया कि मुझ में और एक गृहस्थी में क्या अन्तर है। इतना सामान लेकर क्या मैं वैरागी हूं क्या मैं साधना कर सकूंगा। पुनः विचार हुआ कपड़ों के बिना काम चल सकता है, वस्त्र छाल की लंगोटी बना लेंगे और दाल चावल के बिना काम चल जायेगा। भिक्षा का अन्न अथवा वृक्षों के फलमूल खा लेंगे। पात्रों के बिना भी के चल जायेगा। हाथों को ही पात्र बना लेगे। चारपाई के बिना काम चल जायेगा। भूमि को चारपाई बना लेंगे। यूं करते करते सारा सामान त्याग दिया और एक लंगोटी लगाकर चल पड़े। तपस्या के अनन्तर लिखते हैं कि :-
मही रभ्या शय्या विपुलमुपधानं भूजलता, वितानं चाकाशं व्यजन-मनुकूलोsयमनिलः।
स्फुरद्दिपश्चंडो विरतिवनिता संगमुदितः, सुखं शान्तः शेते मुनि-रतनुभूतिर्नृय इव।।
अर्थ - मुनियों के सोने के लिए रभ्य भूमि ही चारपाई है, भुजा ही तकिया है, विस्तृत आकाश उनका महल है, वायु पंखा है, चंद्र ही दीपक है, उनकी स्त्री वैराग्य है इस प्रकार योगी राज के समान आनन्द से रहते हैं। महात्मा इस त्याग से ही आनन्द में रहते हैं।
एक घटना और देखिये। स्वामी सर्वदानन्द जी वीतराग महात्मा थे, त्याग की तो वे मूर्ति ही थे। अपने साथ केवल एक कम्बल रखते थे ओढ़ने बिछाने का सारा कार्य वही पूरा कर देता था। कड़कड़ाती सर्दी में भी सब कुछ वही था। एक बार वे आर्य समाज के किसी उत्सव में गये स्वामी नित्यानन्द जी जो राजसी ठाठ से रहते थे वे भी वहीँ पहुंचे हुए थे। रात्रि में स्वामी नित्यानन्द जी ने स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज को कम्बल में चाकू असान लगाये देखा उस समय तो कुछ नहीं प्रातः उपहास करते हुए बोले महाराज! आपने रात्रि में चाकू आसन लगा रखा था। इस बात को सुनकर सर्वदानन्द जी बोले, ''हां'' आप ठीक कह रहे हैं हम सर्दी में चाकू आसन लगाया करते हैं।'' यह कह कर मन में सोचा कि समय आने पर उचित उत्तर देंगे। कुछ समय के बाद उत्सव समाप्त हो गया तो त्यागी स्वामी सर्वदानन्द जी तो अपना कम्बल उठाकर चल पड़े परन्तु स्वामी नित्यानन्द जी कुलि की खोज में घूमने लगे। जब कोई नहीं मिला तो स्वयं ने सिर पर बिस्तरा अटेची आदि सामान उठाकर चले तो ठीक मौका पा विनोद करने के लिये स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज बोले स्वामी जी! चाहे तो रात्रि में चाकू आसन लगा लो और चाहे दिन में गधा बन लो एक ही बात है'' स्वामी नित्यानन्द जी महाराज गये। स्वामी जी ने नहले पर दहला लगा दिया है अपना सा मुंह लेकर रह गया। सामान वाले सारा जीवन गधे की तरह लदे रहते हैं और इन सांसारिक भोगों में फंसे रहते हैं। संसार में हर जगह चमक दमक है जो मनुष्य को फंसा लेती है। ये इन्द्रियों के जो मुख, भोग, आराम, धन, माल यश है मनुष्य का असली मार्ग इससे बच कर जाता है। जीवन में प्रतिदिन मनुष्य की परीक्षा होती है। एक और इन्द्रियों को लुभाने वाले रूप, रस, स्पर्श शब्द विषय हैं दूसरी ओर अध्यात्मक आनन्द है, एक तरफ एक मिनट का नकली सुख है दूसरी ओर ३१ नील वर्ष से अधिक रहने वाले श्रृंगार, एक ओर धन वैभव दूसरी ओर सरलता, एक ओर आराम दूसरी ओर तप, एक ओर हिंसा दूसरी ओर दया, एक ओर छल कपट दूसरी ओर सत्य, एक ओर चोरी दूसरी ओर त्याग, एक ओर असंयम दूसरी ओर संयम, एक ओर तृष्णा दूसरी ओर संतोष, एक ओर धन वैभव है दूसरी ओर प्रभु दर्शन, एक ओर प्रेम मर और दूसरी ओर श्रेय है।
ऋषियों का संकेत है जो प्रेम मार्ग को चुनता है उनका विनाश हो जाता है और जो श्रेय का मार्ग आलम्बन करता है उसका कल्याण हो जाता है। इसलिये कल्याण के पथिक खूब सोच लें और समझ लें कि किधर लाभ है इसी में तुम्हारी परीक्षा है जो श्रेय को चुनता है वह पास और जो प्रेम को चुनता है वह फेल है।
परिग्रह परिणाम आपने पढ़ा और अपरिग्रह का फल सुनें योगिराज पतञ्जलि जी महाराज लिखते हैं :-
अपरिग्रह स्थैर्य जन्म कथन्ता सम्बोधः।
अपरिग्रह की प्रतिष्ठा होने पर योगिराज को अपने पूर्व जन्म का पता चल जाता है कि मैं क्या था और कहां था त्याग से अन्तःकरण निर्मल और सात्विक हो जाता है और अन्तःकरण के निर्मल होने पर जन्मान्तर के संस्करों का साक्षात कार करने में योगी सफल हो जाता है। हर मनुष्य को अपने अतीत को जानने की इच्छा लगी रहती थी परन्तु सर पटकने पर भी कोई कुछ जान नहीं पता। परन्तु योगी इसमें सफल हो जाता है। यह साधारण कार्य नहीं है। इसीलिए तो योग से बढ़कर कुछ नहीं।