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महर्षि दयानन्द स्वदेशी के प्रथम प्रणेता थे

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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लोकमान्य महात्मा तिलक से भी पहले 1873 में वायसराय लार्ड नार्थब्रुक्स के सम्मुख कहा था कि मेरा यह अडिग विश्‍वास है कि मेरे देशवासियों की निर्बाध राजनीतिक उन्नति तथा संसार के राष्ट्रों में भारत को समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिये मेरे देश का शीघ्रातिशीघ्रपूर्ण स्वतन्त्र होना आवश्यक है।

महर्षि ने स्वराज, स्वदेशी, स्वभाषा, देशी वेष-भूषा, देशी खान-पान को बहुत महत्व दिया। स्वामी जी के कार्यकाल में अनेकों वस्तुएं इग्लैण्ड से आने लगी थीं। स्वामी जी इनके विरोधी थे। वे चाहते थे कि भारत के धन-कुबेर अपने देश में कल-कारखाने लगाकर उत्तम सामानों का निर्माण प्रारम्भ करें, जिससे लोगों में विदेशी वस्तुओं की ललक कम हो। वे मन्दिरों पर धन खर्च करने की अपेक्षा कल कारखानों के निर्माण को अधिक अच्छा समझते थे। एक बार स्वामी जी पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश का दौरा करते हुए कानपुर पहुंचे। कानपुर के निकट दो भव्य मन्दिरों कैलाश तथा बैकुण्ठ की उन दिनों बड़ी चर्चा थी। क्षेत्र के दो प्रतिष्ठित सज्जन श्री प्रयाग नारायण एवं श्री गुरु प्रसाद जी स्वामी जी से मिलने आये थे। प्रसंगवश उन लोगों ने उपर्युक्त दोनों मन्दिरों की चर्चा छेड़ दी। उनकी बात सुनने के बाद स्वामी जी ने कहा कि ईंट पत्थरों पर लाखों रुपयों का व्यय करके उन्हें नष्ट कर दिया। इससे अच्छा होता कि आप इस धन से किसी कल-कारखाने की स्थापना करके स्वदेश कल्याण में सहयोगी बनते।

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अलीगढ में स्वामी जी का प्रवचन चल रहा था। एक दिन छावनी निवासी कुंवर उधोसिंह अपने पिता भूपाल सिंह के साथ महर्षि का दर्शन करने के लिये आये। उधोसिंह विदेशी वस्त्रों में सजे हुए थे। उनके पिता जी स्वदेशी वस्त्रों में थे। स्वामी जी ने उधोसिंह से कहा कि ‘‘उधव, देखो! तुम्हारे पिताजी कितने सादे, मोटे तथा स्वदेशी वस्त्र धारण करते हैं। उनको सबका सम्मान प्राप्त है। क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इन वस्त्रों को धारण कर अपने पिता से अधिक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत हो गये हो? भइया, स्वदेश की वस्तु का उपयोग और व्यवहार ही श्रेयस्कर है।’’ उधव सिंह ने स्वामी जी की बातों से प्रभावित होकर सदा के लिये विदेशी वस्त्रों का त्याग कर दिया। अन्य लोगों पर भी इस घटना का प्रभाव पड़ा।

देशी वेष-भूषा के प्रति स्वामी जी के आग्रह का एक उदाहरण देखें। स्वामी जी एक दिन आगरा स्थित सेण्ट पीटर चर्च देखने गये। जब महर्षि चर्च में प्रवेश करने लगे तो एक ईसाई सज्जन ने कहा कि ’’महाराज सिर से पगड़ी उतार कर ही आप चर्च में प्रवेश कर सकते हैं।’’ स्वामी जी रुक गये और बोले हमारे देश की रीति के अनुसार सिर पर पगड़ी धारण करके ही किसी जगह जाना प्रतिष्ठा का चिन्ह है। मैं अपने देश की सभ्यता के प्रतिकूल आचरण नहीं करूंगा। स्वामी जी वहाँ से लौट आये।

राष्ट्र भाषा हिन्दी के सम्बन्ध में महर्षि के विचारों से सभी अवगत हैं। वे इसे स्वभाषा कहा करते थे। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए (प्रारम्भ में वे अपना प्रवचन सरल संस्कृत में करते थे) तथा मूल रूप से गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने अपना अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखा। राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान की दृष्टि से उन्होंने सम्पूर्ण भारत में देवनागरी लिपि एवं हिन्दी भाषा के प्रचार पर बल दिया।

नौ सौ वर्षों की गुलामी के कारण राष्ट्र अपना गौरव अभिमान भूल चुका था। हिन्दू हीन भावना से ग्रस्त था। इस निराशा और हताशा की घड़ी में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंग्रेजी शासन की परवाह किये बिना राष्ट्रवाद, स्वराज्य तथा स्वदेशी का शंखनाद करके हिन्दुओं के सुप्त शौर्य को जागृत किया। थियोसोफिकल सोसायटी की महान नेत्री श्रीमती एनीबेसेण्ट के शब्दों में ’’स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लिखा कि भारत भारतीयों के लिये है। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों ने स्वदेश और स्वदेशी के प्रति प्रेम का संचार किया।

स्वामी दयानन्द ने केवल राष्ट्रवाद, स्वराज्य तथा स्वदेशी का मन्त्र ही नहीं दिया, अपितु उन्होंने वैदिक धर्म और संस्कृति से जोड़कर इन भावनाओं को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान किया। महर्षि के शिष्य उपदेशकों तथा भजनोपदेशकों ने सारे देश में आर्यसमाज के माध्यम से उपर्युक्त विचारों का प्रचार किया।

हमारे सभी प्रमुख राष्ट्रनायक जैसे स्वामी विवेकानन्द, क्रान्तिदर्शी दार्शनिक योगी अरविन्द घोष, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, भाई परमानन्द इत्यादि किसी न किसी रूप में महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित थे।

यदि महात्मा गांधी ने पूर्ण रूप से महर्षि के विचारों के अनुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन किया होता तो देश का बटवारा नहीं हुआ होता और अब तक भारत विश्‍व का सिरमौर बन गया होता। - हर्षनारायण प्रसाद (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)

All our prominent nationalists like Swami Vivekananda, revolutionary philosopher Yogi Arvind Ghosh, Lokmanya Tilak, Lala Lajpat Rai, Pt. Ramprasad Bismil, Sardar Bhagat Singh, Veer Savarkar, Bhai Parmanand etc. were influenced by Maharishi Dayanand's ideas in one way or the other.