सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का अध्ययन मनन एवं गहन विचार मन्थन करने पर पता चलता है कि उसमें आदिकाल से प्रकृति की अर्चना आराधना और पूजा के भाव पूर्णतया व्याप्त हैं। हमने प्रकृति में ईश्वर का साक्षात् रूप देखा। हमारे वेद पुराण और उपनिषद् आगम-निगम तथा समस्त लौकिक साहित्य यही संकेत करते हैं कि मनुष्य और प्रकृति के बीच गहरी आत्मीयता व्याप्त है। हमारी संस्कृति के पौर-पौर में प्रकृति का वास है। भारतीय संस्कृति की जड़ों में जिन सूत्रों ने अमृत सिंचन किया वे सभी प्रकृति से प्राप्त हुए हैं। संस्कृति ने ही हमारे विचारों को पवित्र रखा और इन्हीं विचारों के आधार पर हम प्रकृति को प्रदुषण रहित रखने में सफल हुए हैं। हमारी यही विशेषता है कि हमने प्रकृति और संस्कृति के सहचर्य के महत्व को शताब्दियों पूर्व से ही स्वीकारा है। भारतीय मनीषा ने सबसे पहले उसे पहचाना और लोक मंगल के लिए इसका उपयोग किया। जो संस्कृति तपोवनों में पल्लवित और पोषित हुई उसकी आत्मा में प्रकृति का वास था। शुद्ध पर्यावरण ही उसकी शक्ति थी। भारतीय वाङ्मय ने तो आदिकाल से ही प्रकृति के महत्व को स्वीकार कर लिया था। वैदिक ऋचाएं था पौराणिक आख्यान, उपनिषद्या गीता का दर्शन या पंचतंत्र और जातक कथाओं का सार सभी में वह महातत्व निरन्तर प्रवहमान रहता है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।
भारतीय लोक जीवन प्रकृति की गोद में पला, प्रकृति में उसे मां का वात्सल्य मिला। यही कारण है कि प्रकृति-हवा जल, मिट्टी वृक्ष सम्पदा के प्रति सहृदय रहे। कभी भी निर्दय और कठोर होकर प्रकृति पर कुठारघात नहीं किया। हमारी इस प्रकृति स्तुति का अन्य लोगों ने गडरिया गीत कहकर मखोल उड़ाया किन्तु आज उसके महत्व को सभी स्वीकारने लगे है।
आज समस्त संसार में पर्यावरण रक्षण की चेतना जग चुकी है। पर्यावरण के प्रदुषण ने सारे संसार के अस्तित्व को ही चातरे में डाल दिया है। विकसित देशों की आर्थिक लिप्सा ने ही प्रकृति के इस तरह के विध्वंस का सूत्रपात किया है। परन्तु भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की रक्षा संवर्ध्दन, उसका पोषण, उसकी शुद्धि और पवित्रता उतनी ही आवश्यकता समझी गई जितनी हमारे जीवन की ललक और अन्तर चेतना रहती है। हमारा पुरातन साहित्य शब्दों की खोखली यात्रा भर नहीं है। वह तो प्रकति की महा आरती है। इसे शुद्ध रखने के लिए हम तपोवनी में भी महायज्ञ करते रहे। हमने जिस समष्टि में विचार किया उसमें वनस्पति जगत से लेकर सम्पूर्ण जीवन-जगत सम्मिलित था। न तो हमने पशुओं के साथ कभी पाशविकता बरती और न वनस्पति जगत का शील भंग किया। हरियाली से भरे पर्वत वनखण्ड शीतल डाल और निर्मल जल की सरिताएं शुद्ध और स्वास्थ्य वर्धक पवन के झकोरे और प्रदुषण रहित अग्नि पिंड सभी हमारे जीवन के आवशयक तत्व थे। कुछ आग भी है। यह भी सत्य है कि पर्यावरण के सरंक्षण के लिए भारतीय समाज ने अनेक बलिदान दिए हैं। प्राणों का उत्सर्ग करके भी पर्यावरण की रक्षा की है।
प्रकुति में देव के वास को माना है किन्तु सभ्यता के पट-परिवर्तन के साथ ही समूचा विश्व पर्यावरण की समस्याओं से परेशान है, उद्वेलित है। प्रकृति के सतय अमानुषिक छेड़-छाड़ करके इंसान ने अपनी आत्म हत्या का नुस्खा स्वयं तैयार किया है। विकास के नाम पर विश्व ने जो अराजक विजय यात्रा की है। उसकी आखरी मंजिल विनाश के स्टेशन की ओर ले जाने वाली है। भारतीय मनीषा इस स्थिति में सजग है। मानवता के स्वास्थ्य के हितमें आवश्यक है कि पर्यावरण भी स्वस्थ रहे। उसका मिजाज नहीं बिगड़े और लगातार आक्रमण झेलने के कारण गुस्से में आकर कहीं वह प्रतिशोध के भाव नहीं जमा बैठे। यदि ऐसा हुआ तो करोड़ों को काल अपना ग्रास बना बैठेंगे। रहेगा सिर्फ पछतावा, सिर्फ पछतावा।
पर्यावरण ने हमें वह सारी भौतिक सम्पदा दी है जो हमारे जीवन को आत्म निर्भर बनाने के लिए प्राप्त है। धुप पवन, पानी धरती बिना किसी बंटवारे के मानव को बख्श दी गई। कहीं कोई प्रदुषण नहीं था। शुद्ध अन्य और शुद्ध मन साथ-साथ चल रहे थे कि अचानक प्रदुषण राक्षसी जग गई और उस पिशाचिनी ने पाश्चात्य देशों के 'घट' में आकर संसार को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया। जंगल साफ हो गए, लाचार वन वृक्षों को बिलखने लगे, पशु-पक्षी और अन्य जीवों की प्रजातियां होने लगी। वातावरण धुएं से भरा गया। फेफड़े शुद्ध वायु को तरस गए। ओजोन की परत पतली होती गई और उसमें छेद भी हो गया। कार्बन डाइऑक्साइड कहर ढाने लगीं। ग्रीन हाऊस गैसें अपनी पूरी तीव्रता के साथ धरती को तपाने लगी। तापमान बढ़ता चला गया, मिट्टी रसायन पी-पी कर उर्वरा शक्ति से हाथ धो बैठी। पानी में कचरा अपशिष्ट और दूषित पदार्थ मिलते-मिलते उसका शीलभंग हो गया। विकास के नाम पर मनुष्य की ताबड़ तोड़ यात्रा कहीं भोपाल की गैस त्रासदी, कहीं धरती धसकना, कहीं भूकम्प, अकाल हमारी किस्मत की रेखा बन चुके हैं। भारतीय संस्कृति का अनुसरण ही एक बचाव का उपाय है। वन सम्पदा की सुरक्षा व बढ़ावा ही प्रदुषण से बचा सकती है। इसका विनाश जीवन के विनाश का न्यौता है। अत्यधिक भौतिक साधन नहीं, शुद्ध पर्यावरण को खतरे हैं। इनका सिमित प्रयोग ही जीवन की सुरक्षा है। आइये इन खतरों से निजात पाने के लिए पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्रकृति की आरती में लग जाएं।
Indian Culture and Environment | Importance of Nature |