हजारों-लाखों सदियाँ बीत गईं। काल का प्रवाह गंगोत्री की पवित्र गंगा की तरह अविच्छित बहता रहा। हजारों-लाकों पुस्तकें (शास्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, काव्य, साहित्य) लिखी गई- सब पुस्तकों के लेखकों का नाम सुरक्षित रहा। पर किसी देहधारी ने वेदों के बनाने वाले को साक्षात् कभी नहीं देखा। किसी भी भारतीय ऋषि, मनीषी, पण्डित को कभी यह सन्देश नहीं हुआ कि वेद सृष्टि के आरम्भ में प्रकाशित नहीं हुए तथा ईश्वरीय ज्ञान नहीं हैं। महर्षि व्यास ने दोनों हाथ उठाकर महाभारत में घोषणा की-
अनादिनिधना नित्या वाग् उत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौवेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तय॥ (महा., शान्तिपर्व, 23)
स्वयम्भुव ब्रह्मा प्रजापति ने आदि और निधन रहित नित्य वाक् का उत्सृष्ट किया, सृजन किया। आदि में वेदमयी दिव्यवाक् थी। उस वाक (वाणी) से संसार की सब प्रवृत्तियाँ हुई।
वेदज्ञान सृष्टि के आदि में मनुष्य मात्र के लिये देव वाणी में दिया गया। जहाँ ईश्वर-परम चेतन तत्व हमारे विषय का मूल हो, जहाँ शुद्ध आत्माओं द्वारा ईश्वर के अमरज्ञान वेद को हृदयंगम करने के सवाल की वैज्ञानिक जाँ करनी हो तो, आश्चर्यजनक व क्रान्तिकारी प्रगति वाला आधुनिक विज्ञान से भी छोटा पड़ा जाता है। अभी साइंस की दुनिया में जानने के लिए इतना कुछ बाकी है कि सहसा मुझे महान् वैज्ञानिक न्यूटन की उक्ति याद आ जाती है। अपने स्वागत-सम्मान समारोह में न्यूटन ने कहा था- “मैं तो ज्ञान समुद्र के किनारे सिर्फ कुछ अच्छी कंकरियाँ चुनने में सफल हुआ हूँ- जल रूपी विशाल ज्ञानराशि को तो मैं अभी स्पर्श भी नहीं कर पाया।’’ पिछले कुछ वर्षों में विज्ञान ने खगोल विज्ञान, ह्यूमन जिनोम (मानव संरचना) आदि क्षेत्र में अनेक नये तथ्यों का पता लगाया। पर आधुनिक विज्ञान वाणी के क्षेत्र में, भाषा का मूल को जानने के लिए कोई विशेष उपलब्धि न कर पाया।
जहाँ तक वेद की प्राचीनता का सवाल है इसमें विद्वानों में कोई अधिक भेद नहीं है। वेद की पुस्तको प्राचीनतम है ऐसा दूसरे धर्म वाले लोग भी मानते हैं। मुसलमानों की कुर्आन शरीफ में बाईबिल का जिक्र है तथा खुदा चार सन्दूकों से निकालकर ज्ञान देता है ऐसा लिखा है। चार सन्दूक, चार वेद ही हैं ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं। बाइबिल में पारसी धर्म-पुस्तक जन्दा-अवेस्ता का वर्णन है तथा जन्दा-अवेस्ता में वेदों का वर्णन है। चारों वेदों में कहीं किसी विशेष जाति का, समय का, जगह का वर्णन नहीं आया। उसमें मनुष्य के काम आने वाली सभी बातों का वैज्ञानिक वर्णन है।
विज्ञान के हिसाब से “वेद ईश्वरीय ज्ञान’’ इस पर चार विभिन्न तरीकों से, तर्कों से में अपने विचार विद्वज्जनों के सामने रखने की कोशिश कर रहा हूँ।
1. वैज्ञानिक दृष्टि- विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईस्टीन के अनुसार अगर किसी बात को वैज्ञानिक सिद्धात की तुला पर तोलना हो तो उसकी तीन कसौटियाँ हैं- सरलता, एकात्मकता एवं प्रकाशमयता।
अ. सरलता- सरलता के पहलू हैं- पहला है इसका विस्तार- अर्थात् यह छोटी से छोटी बात से लेकर बड़े से बड़े रहस्य को समझा सके। तथा दूसरा है इसकी संक्षिप्ता, अर्थगम्यता न इसमें कुछ बेकार हो और न दुनिया का कोई ऐसा विषय हो जो उसमें न आया हो। वेद के अन्दर मनुष्य जीवन की छोटी-छोटी सभी विधाओं का सरलता से, सुन्दरता से वर्णन किया गया है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक विषयों से लेकर गम्भीर खगोलीय आदि विद्या तक सभी विषयों का समावेश है। वेद का एक-एक छन्द, एक-एक शब्द, एक-एक वर्ण सार्थक व वैज्ञानिक है।
ब. एकात्मकता- मानव शरीर की तरह जहाँ सब घटक एक दूसरे के पूरक हैं तथा सम्पूर्ण से पूरी तरह जुड़े हैं। वेद के अन्दर चार विषय-ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान एक दूसरे के साथ सन्निहित हैं। आपस में कहीं कोई विरोध नहीं है। सभी मनुष्य-निर्माण व उसकी प्रगति के लिये समर्पित हैं। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे के अनुसार आरम्भ से लेकर अन्त तक सभी जगह शक्ति और सुन्दरता का समन्वय है।
स. प्रकाशमयता- जो सिद्धान्त सूर्य की तरह स्वयं प्रकाशित है तथा दूसरी चीजों को भी प्रकाशित करता है। स्वयं सत्य है तथा दूसरे तथ्यों को परख सके। वेद तो स्वयं ज्ञान प्रकाश का स्रोत है, स्वयं प्रमाण है ता सब सत्य विद्याओं का प्रकाश तथा पक्षपात हीन धर्म का प्रतिपादन करता है। उसे अन्य किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं।
इन तीनों कसौटियों पर वेद खरा उतरता है- अर्थात् पूर्णतया वैज्ञानिक है। जिन्होंने भी वेद के अन्दर असत्य, अनर्गल, असम्बद्ध तथा ऐतिहासिक बातें होने का विधान सिद्ध किया है वे या तो वैदिक वैङ्मय से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं अथवा विदेशी जूठन का रसास्वादन करने वाले पूर्वाग्रस्त लोग हैं।
2. वाक् एवं भाषाविज्ञान- आधुनिक भाषाशास्त्री मानते हैं कि मनुष्य ने धीरे-धीरे पक्षियों व जानवरों को देखकर बोलना सीखा। शुरु में मानव भाषा बहुत ही संक्षिप्त, कामचलाऊ थी। समय के प्रवाह के साथ भाषा समृद्ध होती गई और उसके विभाग, परिवर्तन होते गए। पर ये भाषाशास्त्री इस बात को मानने में असमर्थ हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में भी अगर किसी नवजात शिशु को जंगल में छोड़ दिया जाये तो वह भाषा सीखना और बोलना तो दूर, दो पैरों पर खड़ा होना भी नहीं सीख सकता। तो सृष्टि के आरम्भ में बिना किसी के सिखाये मनुष्य कैसे सीखा? वेद को कहता है कि सृष्टि यज्ञ में मनुष्य बनने से पूर्व अग्नि, पृथ्वी, चन्द्र, ग्रह आदि देवताओं की विचित्र गतियों से जो ध्वनियाँ उठीं, और जो देवी गान होते थे, वे ही ये वेदमन्त्र हैं। यह देववाणी पहले आकाशीय ऋषियों में आयी और बाद में पार्थिव ऋषियों की हृदयगुहा में प्रकट हुई। इसलिये वेद को श्रुति प्रकृति की आवाज कहा गया है।
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे, यजुस्तस्माद् अजायत॥ (ऋ. 10.90.9)
अर्थात् उस (दैवी) यज्ञ से जो सर्वहुत यज्ञ था, उससे ऋचाएं, यजुः, साम उत्पन्न हुए। वेद की वाणी आकाशीय है। इसी तर्ज पर मुस्लिम लोग कुर्आन शरीफ को ‘आसमानी किताब’ कहते हैं।
वैदिक भाषा अपौरुषेय है क्योंकि वर्णमाला अपौरुषेय है। वर्णमाला का प्रत्येक वर्ण सार्थक है। वेद का प्रत्येक शब्द वर्णानुसार अर्थ रखता है। प्रत्येक वर्ण का प्रत्येक शब्द वर्णानुसार अर्थ रखता है। प्रत्येक वर्ण का अपनी बनावट के आधार पर अर्थ है। अक्षर तो अविनाशी हैं। शब्द नित्य हैं आकाश की तरह। शब्द तो ऊर्जा हैं तथा आकाश में फैले हैं। जिसके पास जितना अच्छा व शक्तिशाली ऐंटिना है, रेडियो है वह उतनी ही अच्छी तरह उसको पकड़ सकता है। वेद ने कहा कि ग्रहों आदि की गतियों से जो आवाज पैदा हुई वही तो वेदवाणी थी, उसी देववाणी से मानुषवाणी बनी और उस आरम्भिक वाणी से दुनिया की अलग-अलग भाषाएं, बोलियाँ बनीं।
सभी वैज्ञानिक तथा विचारशील लोग इस बात को मानते हैं कि यह दुनिया कभी बनी। इसके समय के बारे में लोगों में मतभेद हो सकते हैं पर यह बनी जरूर, चाहे करोड़ों वर्ष पूर्व अथवा अरबों वर्ष पूर्व। क्या उस आरम्भिक अवस्था के, उस समय के वातावरण के कुछ अवशेष कहीं ब्रह्माण्ड में होंगे? जैसे बहुत चीजों के बारे में वैज्ञानिक पता लगा चुके हैं। विश्व की उस प्रारम्भिक अवस्था का नाम वैज्ञानिकों ने कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउण्ड (सी.एम.बी.) दिया। आकाश में इसका पता लगाने के लिए वर्ष 1998-99 में अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय ने तीन बड़े गुब्बारे युक्त तप्रयोग किये जिनके नाम थे- मैक्सिमा, बूमरंग, एवं डासिल। ये नासा से छोड़े गये। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह पता चला कि शुरु का सघन ब्रह्माण्ड संगीतमय ध्वनि तरंगों से भरा था। विशाल विस्फोट से लगभग तीन लाख वर्ष तक पदार्थ तथा विकिरण दोनों सूप की तरह मिल गय थे जिससे ध्वनि अथवा दबाव तरंगे आन्दोलित हो उठीं। जब ब्रह्माण्ड ठण्डा हुआ तो फोटोन (प्रकाश कण) दूसरे प्राथमिक कणों से अलग हुए। उस समय ध्वनि तरंगों ने सी.एम.बी. के अन्दर तापपरिवर्तन के रूप में अपनी बड़ी कहानियों के निशान छोड़ दिये। इन निशानों ने यह मिशन हाथ में लिया। इन प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि प्रारम्भिक अवस्था का, उस समय का ब्रह्माण्ड गीत गा रहा था। जिसने उन गीतों को सुना, उन देवों की वाणी को सुना उन ऋषियों के हृदयों में ही वेद प्रकट हुए।
प्रकृति के कोने-कोने में संगीत भरा है- इस धरती में संगीत है, नदियों और समुद्र के पानी में संगीत है, हवा में संगीत है, पक्षियों के बोलने में संगीत है, आकाश में संगीत भरा पड़ा है। पर जैसे योगी अरविन्द ने कहा था- प्रकृति बोल रही है, गा रही है पर कोई सुनता नहीं है। जो इस संगीत को समझ लेता है वह तो ऋषि बन जाता है मित्रो! हारमोनियम के अन्दर तो संगीत पहले से ही है, उसे निकालने के लिये किसी की सधी हुई उंगलियों की जरूरत है। संगीत नित्य है, उसे निकालने के लिये, उसे सुनने के लिये समय-समय पर नये-नये साज बनते रहते हैं। आकाश में गाने हैं, समाचार हैं, हवनमन्त्र हैं, पर उन्हें सुनने के लिये किसी रेडियो, टी.वी. की जरूरत है। रेडियो में गाने आते हैं, समाचार आते हैं, पर क्या गाने रेडियो के अन्दर बनते हैं? क्या फिल्म टी.वी. के अन्दर छिपी पड़ी है? सब जानते हैं कि यह सब तो आकाश में है किसी और ने बनाया है। यह संगीत, यह ध्वनि, ये शब्द, ये भाषा सब अपौरुषेय हैं। चार आदि ऋषियों ने टी.वी./रेडियों का काम किया, आकाश से पकड़ा और विश्व मानवता को सुना दिया।
3. विकासवाद की असफलता- डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त भाषा और ज्ञान के क्षेत्र में असफल रहा है। आज भी बिना ज्ञान के, बिना सिखाये। मनुष्य का बच्चा अपने आप कुछ नहीं सीख सकता। मनुष्य की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी माँ-बाप से शारीरिक, मानसिक, आत्मिक गुणों में, ज्ञान में आगे बढ़ेगी, यह बहुत कम केसों में ही होता है। समय के साथ यदि ज्ञान हमेशा बढ़ता तो आज हम दिल्ली-महरौली की लाट, मिस्र के पिरामिड तथा आयुर्वेद की चन्द्रकान्त मणि दुबारा बना सकते। हमारी भाषाओं की समृद्धि कम हो रही है। भाषाओं में वर्णमाला कम हो रही है। दुनिया के अन्दर अभी तक वेद जैसा वैज्ञानिक, पूर्ण सत्य विद्याओं का ग्रन्थ लिखने की बात तो कोसों दूर है, उसे पूरा समझने की योग्यता भी हमारे पास नहीं है। कालिदास का काव्य लिखना भी आज मुश्किल है। भाषा से ज्ञान बना, भाषा से हम कुछ जान पाये। ज्ञान से भाषा नहीं बनी जैसा आधुनिक भाषाविद् मानते हैं। आज भी बिना भाषा सिखाये किसी बच्चे को ज्ञान नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले गुरु को भाषा किसने सिखाई? भाषा अपौरुषेय है। वेद की तरह बाईबिल भी कहती है- शब्द (भाषा) भगवान् का ही रूप है, उसी की तरह अक्षर व अपौरुषेय है।
4. वेद की अपनी अलौकिक विशषताएँ- प्राचीन ऋषियों तथा आधुनिककाल में महर्षि दयानन्द तथा गम्भीर गवेषक पं. भगवद्दत्त जैसे वैदिक विद्वानों के अनुसार वेद की अपनी कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो उसको मनुष्य की बुद्धि से परे ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध करती हैं। जैसे-
1. श्रुति वेद को ही कहा गया है, और किसी अन्य पुस्तक व ज्ञान को नहीं।
2. वेद के मूल मन्त्रों में आनुपूर्वी- शब्दों व अक्षरों का क्रम आज तक सुरक्षित रहा। आज तक अग्नि के स्थान पर वह्नि, पावक आदि शब्द कभी प्रयुक्त नहीं हुआ। संहिता-पाठ में ‘अग्निमीळे’ के स्थान में ‘ईळे अग्निम्’ कभी नहीं हुआ।
3. वेदों में छान्दसी मुद्रा है। वेदानुकरण पर कोई रचना कर भी ले तो वेद के विद्वान् उसमें छान्दसी मुद्रा का अभाव तत्काल बात देंगे।
4. वेदों शब्द सर्वतोमुख है अर्थात् लोकभाषा की तरह वैदिक शब्दों का अर्थ निश्चित् नहीं है।
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