विशेष :

वानस्पतिक पर्यावरण

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औषधि-वनस्पति वातावरण से कार्बन डाइआक्साइड नामक विषैली वायु को पीकर बदले में ओषजन (आक्सीजन) नामक प्राणप्रद वायु को देकर पर्यावरण को शुद्ध करने में सहायक होते हैं। इस कारण वायु शोधन के साथ ही वृष्टि में भी सहायक होते हैं।

जल तथा वनस्पति एक दूसरे के पूरक हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में औषधियों आदि को ‘वर्षवृद्ध’ कहते हुए वर्षा से बढ़ने वाली तथा वर्षा को बढ़ाने वाली कहा गया है- वर्षवृद्धा वा ओषधयः॥39

यजुर्वेद में जल को औषधियों से बढ़ने वाला तथा औषधियों को जल से बढ़ने वाला कहा गया है- समाप ओषधीभिः समोषधयो रसेन॥40

औषधी-वनस्पति, वृक्ष आदि को जल से जीवन प्राप्त होता है, जल से इनकी तृप्ति होती है तथा उसी से ये उत्पन्न होते हैं। यजुर्वेद में उल्लेख है- ओषधीर्जिन्व।41
अर्थात् औषधियों को जल से तृप्त करना चाहिए।
औषधियों का केवल बाह्य पर्यावरण को सन्तुलित रखने में ही योगदान नहीं है, अपितु औषधियाँ हर प्रकार से मनुष्य के लिए लाभदायी होती हैं। औषधियाँ, माता के समान हितकारिणी तथा रोगों से रहित करके नीरोग करने वाली होती है-
शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः।
अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत॥42

हे माता के समान पुष्टि करने वाली औषधियो! तुम्हारी सैकड़ों जातियाँ हैं तथा सहस्रों शाखाएँ हैं। सैकड़ों कार्यों की साधक औषधियो! तुम सब मेरे इस यजमान को नीरोग करो।
ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः।
अश्‍वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः॥43

हे औषधियो! तुम पुष्पों से युक्त, फल उत्पन्न करने वाली, घोड़ों के समान वेगवान् तथा अनेक प्रकार की व्याधियों को दूर करने वाली हो। तुम हम पर प्रसन्न रहो।
इष्कृतिर्नाम वो माताऽथो यूयं स्थ निष्कृतीः।
सीरा पतत्रिणी स्थान यदामयति निष्कृथ॥44

हे औषधियो! ‘निष्कृति’ नाम से प्रसिद्ध भूमि तुम्हारी माता है तथा तुम भी निष्कृति अर्थात् व्याधि को दूर करने वाली हो एवं क्षुधा की निवृत्ति करने के कारण अन्न के समान होकर मनुष्य के रोगों का विनाश करती हो।
अति विश्‍वाः परिष्ठास्तेन इव व्रजमक्रमुः।
ओषधीः प्राचच्यवुर्यत्किं च तन्वो रपः॥45

जैसे कोई चोर गौशाला में घुसकर गायों पर हावी हो जाता है, उसी प्रकार सर्वत्र व्यापनशील औषधियाँ भी रोगों पर आक्रमण करके शरीर के रोगों को दूर करती हैं।
यदिमा वाजयन्नहमोषधीर्हस्त आदधे।
आत्मा यक्ष्मस्य नश्यति पुरा जीवगृभो यथा॥46

जब मैं इन औषधियों को अधिक बलशाली बनाकर अपने हाथ से ग्रहण करता हूँ, उस समय जीव का व्याधि तथा क्षयादि राजरोग का मूल तन्त्र नष्ट हो जाता है।
यस्यौषधीः प्रसर्पथाङ्गामङ्गं परुष्परुः।
ततो यक्ष्मं वि बाधस्व उग्रो मध्यमशीरिव॥47

हे औषधियो ! जिस रोगी के शरीर के प्रत्येक अवयव में तुम अच्छी प्रकार फैल जाती हो, तदनन्तर शत्रु के मर्मस्थल को काटने वाले प्रचण्ड वीर ‘बलवान्’ की तरह तुम उस शरीर से रोगों को नष्ट कर देती हो।
अन्य वो अन्यामवत्वन्यान्यस्या उपावत।
ताः सर्वाः संविदाना इदं मे प्रावता वचः॥48

हे औषधियो! तुम्हारे मध्य में एक औषधी दूसरी की रक्षा करे अर्थात् एक के प्रभाव से दूसरी वृद्धि करे। रक्षित हुई औषधियाँ परस्पर एक-दूसरी की रक्षा करें। वे सब परस्पर सहयोग करती हुई मेरे इस वचन की रक्षा करें।
यत्रौषधीः समग्मतः राजानः समिताविव।
विप्रः स उच्यते भिषग्रक्षोहामीवचातनः॥49

राजाओं के युद्ध में सम्प्राप्त होने के समान जिस मेधावी में हे औषधियो! तुम रोग निवारणार्थ एकत्रित हो (जो विद्वान औषधि-ज्ञान को प्राप्त करता है) वह विद्वान् वैद्य कहा जाता है। वह औषधि के द्वारा रोग रूपी राक्षसों को नष्ट करने वाला होता है।

इन उल्लेखों के द्वारा वनस्पतियों से आरोग्य देने की अपेक्षा और कामना की गयी है। शारीरिक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वनस्पतियों की उपयोगिता और उपादेयता का निरूपण किया गया है।

बरसात होने पर औषधियाँ प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होती हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली छा जाती है तथा प्राणियों का मन मयूर नाच उठता है।

औषधियों को पर्यावरण में सन्तुलन रखने वाली होने के कारण वैदिक ऋषि कहता है कि हे देवयजन स्थलि पृथ्वी! मैं तेरी औषधियों के मूल को नष्ट न करूँ-
पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलं मा हिं सिषम्॥50

आज जबकि अन्धाधुन्ध वृक्षों तथा वनों की कटाई की जा रही हैं तथा उनके स्थान पर अन्य वृक्ष नहीं लगाए जा रहे, ऐसी स्थिति में वैदिक ऋषि का यह सन्देश आदर्श राह दिखा सकता है।

ऋषि-मुनियों का वृक्षादि वनस्पतियों से अपार प्रेम रहा है। रामायण तथा महाभारत में वृक्षों-वनों का चित्रण पृथ्वी के रक्षक वस्त्रों के समान प्रदर्शित है। वनों-वृक्षों को ऋषियों द्वारा ‘पुत्रवत् परिपालित’ करते हुए वर्णित किया गया है।51

मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों में इन्धनार्थ अथवा स्वार्थ के लिए हरे-भरे पेड़ों को काटना पाप घोषित किया गया है। अनावश्यक रूप से काटे गए वृक्षों के लिए दण्ड का विधान है। यथा-
इन्धनार्थमशुष्काणां द्रुमाणामवपातनम्।
आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा॥52

अर्थात् ईन्धन के लिए हरे वृक्षों का काटना तथा स्वार्थ के लिए पाकादि कार्य करना और निन्दित अन्न का भक्षण ये पाप कहे गए हैं।
वनस्पतीनां सर्वेषामुपभोगं यथा यथा।
तथा तथा दमः कार्यो हिंसायामिति धारणा॥53

अर्थात् सम्पूर्ण वनस्पतियों का जैसा-जैसा उपभोग करे, वैसा-वैसा हिंसा (हानि) में दण्ड दिया जाए, यह मर्यादा है।
मत्स्य पुराण में वृक्ष की महिमा का वर्णन इस प्रकार है-
दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हृदः।
दशहृदसमः पुत्रः दशपुत्रसमो द्रुमः॥

अर्थात् लोककल्याण की दृष्टि से दस कुओं के समान एक बावड़ी का महत्व है। दस बावड़ियों के समान एक तालाब का, दस तालाबों के समान एक पुत्र का तथा दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्व है। आशय यह है कि दस पुत्र अपने जीवन काल में जितना लाभ पहुँचाते हैं, उतना लाभ एक वृक्ष पहुँचा देता है। पुत्र तो अपने परिवार का ही हित करते हैं, पर वृक्षादि वनस्पति हम सबको सुख देने वाली होती है-
शमिता नो वनस्पति॥54
वनस्पतिरवसृष्टो न पाशैस्त्मन्या समञ्जञ्छमिता न देवः।55

इन उल्लेखों से सर्वभूतहित में वनस्पतियों का उपयोग तो प्रमाणित ही होता है साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वनस्पति जगत् के अक्षत पोषण के लिए वैदिक वाङ्मय में पर्याप्त सचेष्टता है। सामान्य प्राणधारियों के समान जीवनादायक वनस्पतियों की संरक्षा का विधान और उल्लेख वैदिक वाङ्मय में प्राप्त होता है। इससे वैदिक ऋषियों की पर्यावरण की सुरक्षा विषयक चेतना की सूचना मिलती है। आज भी वे निर्देश प्रासंगिक हैं। इनके पालन के बिना हमारा जीवन सदा असुरक्षित ही है।

सन्दर्भ-सूची
39. तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.2.5.10, 3.2.2.5
40. यजुर्वेद संहिता- 1.21
41. यजुर्वेद संहिता- 14.8
42. यजुर्वेद संहिता- 12.76
43. यजुर्वेद संहिता- 12.77
44. यजुर्वेद संहिता- 12.83
45. यजुर्वेद संहिता- 12.84
46. यजुर्वेद संहिता- 12.85
47. यजुर्वेद संहिता- 12.86
48. यजुर्वेद संहिता- 12.88
49. यजुर्वेद संहिता- 12.80
50. यजुर्वेद संहिता- 1.25
51. वाल्मीकि रामायण- 4.11.57, 5.14.13
52. मनुस्मृति- 11.64
53. मनुस्मृति- 8.285
54. यजुर्वेद संहिता- 12.21
55. यजुर्वेद संहिता- 20.45 - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- नवंबर 2012देवी अहिल्या विश्‍वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध

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