विशेष :

आकाश (3)

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श्रवणेन्द्रिय का सम्बन्ध पञ्चमहाभूतों में सर्वत्र व्यापक और विस्तृत आकाश तत्व से होने से तथा आकाश का गुण शब्द होने से इसका सम्बन्ध विश्‍वव्यापक शब्दों से है। इस यन्त्र की यह विशेषता है कि यह मानव तथा मानवेतर दोनों प्रकार के प्राणियों में है।

जहाँ मनुष्य इस ज्ञानेन्द्रिय से गहन ज्ञान व संगीत द्वारा नाद की सहायता से आनन्द प्राप्त कर सकता है, वहाँ अन्य प्राणी, सामान्य ज्ञान ही प्राप्त कर सकते हैं। संगीत का प्रभाव मृग, नाग आदि जीवों में भी विशेष रूप से सुना जाता है।

वैदिक ऋचाओं में ज्ञानेन्द्रिय के रूप में श्रवणेन्द्रिय के प्रति दो प्रकार की भावनाओं की कामना की गई है- एक तो सुनने की शक्ति अन्त तक बनी रहे, जिससे अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके तथा दूसरी यह कि हम इस इन्द्रिय के द्वारा सदा भद्र सुनें, अभद्र नहीं। कानों से अच्छा या बुरा दोनों प्रकार का सुना जा सकता है। इसलिए यजुर्वेद वाड़्मय में यह कामना की गई है कि कानों से हम अधिकाधिक ज्ञान श्रवण करें- कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम्॥263

हम कानों से सदा भद्र सुनें- भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः॥264

समावर्तन संस्कार में गुरु गृह से विदा होते हुए आचारनिष्ठ ब्रह्मचारी स्नातक एक संकल्प यह धारण करता है कि मैं कानों से सदा ‘सुश्रुत’ (अच्छा श्रोता) बना रहूँ- सुश्रुत कर्णाभ्यां भूयासम्॥265

गत्यर्थक ‘ऋच्छ’ धातु266 से ‘कर्ण’ शब्द बनता है- ‘ऋच्छन्ति गच्छन्ति खे अभिव्यक्ताः शब्दा यौ तौ कर्णो’ तथा ‘शब्द गह्णाय, शरीरे उद्गन्ताम्, उद्गच्छन्तां यौ तौ कर्णों।’ अर्थात् आकाश में अभिव्यक्त शब्द उनकी ओर आते हैं और उन शब्दों के ग्रहण के लिए ये कान ऊपर गए हुए हैं। ऊपर स्थित हैं, इसलिए उन्हें ‘कर्ण’ कहते हैं।267

श्रवणेन्द्रिय (कर्ण) सुश्रुत होकर जहाँ मानव को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करती है, वहाँ यह ‘कुश्रुत’ होकर कुमार्गगामी भी बना देती है तथा पूरा समाज प्रदूषित हो जाता है।

यजुर्वेद में उल्लेख है कि जो सबका मंगल करने वाली दिव्य वाणी से युक्त होकर उत्तम कर्मों को करते हैं, वे दिव्य सुखों को प्राप्त होते हैं-
अक्रन् कर्म कर्मकृतः सह वाचा मयोभुवाः।
देवेभ्य कर्म कृत्वास्तं प्रेतं सचाभुवः॥268

हृदय तथा मन से शुद्ध की हुई वाणी ही बोलनी चाहिए। क्योंकि हृदय और मन से पवित्र हुई वाणियाँ नदियों के समान ठीक प्रकार से प्रवाहित होती है- सम्यक् स्रवन्ती सरितो न धेना अन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः।269

आचार्य भी सर्वप्रथम शिष्य की वाणी को ही शुद्ध करता है- वाचं ते शुन्धामि॥270

वाणी के मधुर होने की कामना की गई है- वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥271

वाणी से ही मनुष्य की पहचान होती है। वाणी का प्रभाव व्यापक होता है। इसलिए वाणी का अच्छा ही प्रयोग करना चाहिए। वाणी को देवता तथा ब्रह्म कहा गया है- वाचा देवताः॥272
वाचा ब्रह्म॥273

अतः मैत्रायणी संहिता में भी कामना की गई है कि वाणी का स्वामी पवित्र करे- वाचस्पतिस्त्वा पुनातु॥274

संस्कारों के माध्यम से वाणी का शोधन, वाणी के प्रयोग का उपदेश और वाणी को ही ब्रह्म कहते हुए एक से दूसरे को सहयोजित करने का माध्यम यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है। अभिव्यक्ति का माध्यम ‘वाणी’ होने से अपशब्द वाचिक प्रदूषण को न फैला सकें, इसलिए कल्याणकारी वाणी को सुनने और बोलने का उपदेश किया गया है। जीवन में व्यावहारिक आचरणों के लिए भी शुद्ध वाणी का प्रयोग करने एवं कराने का उपदेश किया गया है।

यजुर्वेद में आकाशीय पर्यावरण के सन्दर्भ में स्पष्ट निर्देश भले ही न मिलता हो, परन्तु आकाश के गुण ‘शब्द’ के विषय में विविध उल्लेख प्राप्त होते हैं। शब्दों के द्वारा मनुष्य का अन्तःपर्यावरण आचार-विचार के द्वारा सुरक्षित रहता है। शब्दों की साधुता, अनुकूल प्रयोगशीलता एवं प्रभावशीलता का जीवन में उपयोग विषयक तत्कालीन उल्लेख आज भी प्रासंगिक है।

सन्दर्भ-सूची

263. तैतिरीयोपनिषद् 1.4.1
264. यजुर्वेद संहिता 25.21
265. पारस्कर गृह्यसूत्र 2.6.19
266. पाणिनीय धातुपाठ, तुदादिगण
267. निरुक्त 1.3
268. यजुर्वेद संहिता 3.47
269. यजुर्वेद संहिता 13.38
270. यजुर्वेद संहिता 6.14
271. यजुर्वेद संहिता 30.1, 11.7
272. काठक संहिता 35.15
273. तैत्तिरीय संहिता 7.3.14.1
274. मैत्रायणी संहिता 1.2.1

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