विशेष :

आकाश (2)

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महर्षि पाणिनि के अनुसार शब्द को कर्ण इन्द्रिय के द्वारा सुना जाता है, बुद्धि से इसका ग्रहण होता है तथा यह प्रयोग से प्रकट होता है और आकाश इसका आश्रय स्थल है- श्रोत्रोपलब्धिः बुद्धिर्निग्राह्यः प्रयोगेणाभिज्वलितः आकाशदेशः शब्दः।250

 महर्षि पाणिनि ने सामान्य रूप से ध्वनि के दो भेद किए हैं-

आकाशवायु प्रभवः शरीरत् समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नादः।
स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति यः स शब्दः॥251

अर्थात् आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला तथा नाभि के नीचे से ऊपर उठता हुआ जो मुख को प्राप्त होता है, उसे ‘नाद’ कहते हैं। वह कण्ठ आदि स्थानों में विभाग को प्राप्त हुआ वर्णभाव को प्राप्त होता है, उसको शब्द कहा जाता है।

‘ध्वनि’ आकाश का वह गुण है, जिसका प्रदूषण या शोधन इसकी तीव्रता अथवा मन्दता से होता है। इसलिए ध्वनि-शोधन से अभिप्राय इसके सन्तुलित प्रयोग से है। ध्वनि के उत्पादक कारकों के नियन्त्रण से ही ध्वनि प्रदूषण में न्यूनता लाई जा सकती है।

शतपथ ब्राह्मण में देवों तथा असुरों के बीच भेद को प्रकट करने के लिए सर्वाधिक महत्व उनकी वाणी के अन्तर को दिया गया है-
तां देवाः असुरेभ्योऽन्तरायन्॥252

वाणी का उच्चारण स्पष्ट होना चाहिए। वाणी में यह शंका नहीं होनी चाहिए कि वह क्या बोल रहा है। जो मनुष्य इस उपजिज्ञास्य (सन्देहयुक्त) वाक् को बोलता है, उसे म्लेच्छ अर्थात् असुर कहा जाता है। असुर ऐसी उपजिज्ञास्य वाणी (सन्देहयुक्त वाणी) बोले, यही उनके पराभव का कारण था-
तत्रैतामपि वाचमूदरूपजिज्ञास्याम्॥253

अतः देवताओं को सन्देहयुक्त भाषा नहीं बोलनी चाहिए, क्योंकि यही वाक् असुर्या है। ब्राह्मण को सदा दैवी भाषा बोलनी चाहिए-
तस्मान्न ब्राह्मणे म्लेच्छेत्, असुर्या हैषा वा वाक्॥254

क्योंकि अशुद्ध वाक् ही देवताओं के पराभव का कारण थी- तेऽसुरा आत्तवचसो हेऽलवो हेऽलव इति वदन्तः पराबभूवः।255

शतपथ ब्राह्मण में देवता अथवा ब्राह्मण तथा असुर अथवा म्लेच्छ कोई वर्ग विशेष न होकर गुणों के वाचक हैं। दोनों ही मनुष्य हैं, मात्र गुणों का अन्तर है।
वैदिक सन्ध्या का प्रारम्भ ‘ओ3म् वाक् वाक्’ अर्थात् वाणी की उपासना से होता है। वाणी की यह विशेषता है कि यह मनुष्यों को ही प्राप्त है। इस वाणी में ही विश्‍व का समस्त ज्ञान-विज्ञान सुरक्षित है। यदि यह वाणी मनुष्य के पास न होती, तो उसमें तथा अन्य प्राणियों में कोई अन्तर नहीं रहता। इसीलिए कामना की जाती है कि मेरे मुख में वाणी के रूप में सदा अमृत भरा रहे- अमृतं म आसन्॥256

सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में वाणी का विशेष महत्व अंकित है। यह एक ऐसी देवी है, जो मानव जीवन में सुख और शान्ति का आधार बनती है।
बृहदारण्यकोपनिषद में पिता ब्रह्म के सप्त अन्नों का उल्लेख है, जिनमें तीन आत्मिक अन्न हैं। इन आत्मिक अन्नों में वाक् प्रमुख है-
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत् पिता। एकमस्य साधारणम्, द्वे देवानभाजयत्। त्रीण्यात्मने कुरुतेति मनो वाचं प्राणमिति। पशुभ्य एकं प्रायच्छत्॥257

मेधा और तप द्वारा पिता ब्रह्मा ने सात अन्न उत्पन्न किए। एक (आहार अन्न) सर्वसामान्य है। दो अन्न (हुत तथा प्रहुत) देवों को विभाजित कर दिए। तीन अन्न आत्मिक हैं- मन, वाणी तथा प्राण। एक (सातवां अन्न-दूध) पशुओं को प्रदान किया।

बृहदारण्यकोपनिषद् में ही ऋषि याज्ञवल्क्य तथा राजा जनक का संवाद है। उसमें ‘वाग् वै ब्रह्म’258 कहकर वाणी को ब्रह्मरूप कहा है।

जीभ के द्वारा कर्णप्रिय तथा कणकटू दोनों प्रकार की वाणी का प्रयोग किया जा सकता है। श्रेष्ठ व्यक्ति इसके कर्णप्रिय तथा सुन्दर रूप से अपना तथा अन्यों का भला करते हैं, जबकि अधम इसी के द्वारा दूसरों को कष्ट पहुंचाकर उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं।

प्रभाव शून्य वाणी को निस्तेज वाणी कहा जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में आख्यान द्वारा वाणी के इस तेजोमय रूप को और अधिक स्पष्ट किया गया है। जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि इन तीनों से भी ज्योति प्राप्त नहीं होती, तब वाणी ही मनुष्य को ज्योति प्रदान करती है।259

तलवार का घाव शीघ्र भर जाता है, किन्तु कटू वाणी का घाव नहीं भरता। सत्यभाषण से वाणी पवित्र होती है।

‘मन सत्येन शुध्यति’ तथा ‘सत्यपूतां वदेद् वाचम्’ इत्यादि वचनों के पीछे यही भावना है। इसी कारण सत्यभाषण को जीवन का परम तप कहा गया है।

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि वह पुरुष अपवित्र है, जो झूठ बोलता है, इसके कारण उसके भीतर से दुर्गन्ध उत्पन्न होती है-
अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति तेन पूतिरन्तरतः॥260

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वाणी से ही सब उत्पन्न होता है- वाचो वा इदं सर्वं प्रभवति।261

अशुद्ध उच्चारण से वाणी दूषित तथा अपवित्र होती है। इसलिए अपभाषण या मिथ्याभाषण की घोर निन्दा की गई है। वेदांग ग्रन्थों, शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण तीनों का लक्ष्य वाणी का ऐसा ही प्रशिक्षण है। महाभाष्य में आता है कि एक ही शब्द को जीवन में यदि सम्यक् रूप से जान लिया जाए तथा उसका सम्यक् प्रयोग हो तो वह इहलोक तथा परलोक में भी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है- एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक् भवति। 262 (क्रमशः)


सन्दर्भ सूचीः -
250. वर्णोच्चारण शिक्षा
251. वर्णोच्चारण शिक्षा
252. शतपथ ब्राह्मण 3.2.1.23
253. शतपथ ब्राह्मण 3.2.1.24
254. शतपथ ब्राह्मण 3.2.1.24
255. शतपथ ब्राह्मण 3.2.1.23
256. यजुर्वेद संहिता 18.66
257. बृहदारण्यकोपनिषद् 1.5.1.3
258. बृहदारण्यकोपनिषद् 4.1.2.3
259. बृहदारण्यकोपनिषद्, चतुर्थ अध्याय
260. शतपथ ब्राह्मण 1.1.1.1
261. शतपथ ब्राह्मण 1.3.2.16
262. महाभाष्य प्रदीप टीका प्रथम आह्निक

सं न शिशीहि भुरिजोरिव क्षुरम्। (ऋग्वेद 8.4.16)
प्रभो ! हमारी बुद्धियों को छुरे की भांति तीक्ष्ण बना दो।
त्वं विष्णो सुमतिं विश्‍वजन्यामप्रयुतमेवयावो मतिं दाः। (ऋग्वेद 7.100.2)
हे सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले सर्वव्यापक प्रभो ! मुझे वह सद्बुद्धि प्रदान करो जो सर्वजनहितकारी और दोष रहित हो।

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