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सुख और कल्याण का मार्ग

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परमपिता परमात्मा की पावन वाणी वेद जिसका ज्ञान सबसे पवित्र अन्तःकरण वाले ऋषियों के हृदय में सृष्टि के आरम्भ में परमपिता परमात्मा स्वयं देते हैं। पावन वेद में देवयज्ञ का विधान है और देवयज्ञ सबके कल्याण के लिए होता है। दुनिया में जितने भी मनुष्य हैं या मनुष्य से इतर अन्य प्राणी हैं, सब सुख चाहते हैं। मनुष्य भी सुख चाहता है और अन्य सब प्राणी भी सुख चाहते हैं। इस सुख की प्राप्ति के लिए ही हमारी सब गतिविधियाँ होती हैं। वैदिक संस्कृति की एक बड़ी अद्भुत विशेषता है। चाहे वेदों के माध्यम से, चाहे अन्य लौकिक मन्त्रों के माध्यम से जो भी हम कामना या प्रार्थना करते हैं केवल अपने लिए ही नहीं करते। सबके कल्याण के लिए हम प्रार्थना करते हैं। वैदिक ऋषि और वेद के अनुयायी सामान्य जन सबके भद्र की, हर समय हर परिस्थिति में सबके सुख व कल्याण की कामना करते हैं। आप नियमित रूप से यज्ञ में या अन्य अवसरों पर पाठ करते हैं। अभी आपने यज्ञ के पश्‍चात् ये कामना की-
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्‍चिद् दुःखभाग् भवेत्॥
हमने यह तो नहीं कहा, यह प्रार्थना तो नहीं की कि हे प्रभो! मुझे सुखी कर दो। सर्वे भवन्तु सुखिनः। क्योंकि सबके सुख में ही मेरा सुख है। सबके कल्याण में ही मेरा कल्याण है। यदि आपने अपने सुख की कामना कर ली, आप सुखी हो गए। परमपिता परमात्मा प्रार्थनाओं को स्वीकार करते हैं। आपको सब कुछ मिल गया। आप सुखी हो गए। परन्तु आपके पास में रहने वाला जो व्यक्ति है, यदि वह दुखी है, तो वह अपनी गतिविधियों के द्वारा आपको भी दुःख देगा। आपको भी पीड़ा देगा। इसलिए वैदिक ऋषि वेदमन्त्र के माध्यम से कामना करता है-
विश्‍वानि दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।
लोकभाषा में जैसे आप प्रार्थना करते हैं- सर्वे भवन्तु सुखिनः, सब सुखी हों। वैदिक भाषा में भी प्रार्थना है कि हे प्रभो- विश्‍वानि दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।

संसार के सभी लोग सब दुःखों से, सब दोषों से, सब दुर्गुणों से दूर हो जाएं। सब प्रकार के दोष, सब प्रकार के दुःख, सब प्रकार के दुर्गुण और दुर्व्यसन हमसे दूर हो जाएं। और जो-जो अच्छी चीजें हैं, जो-जो सुख और कल्याण के कारक हैं, जो-जो भद्र हैं वो हमें प्राप्त हो जाएं। क्या प्रार्थना करते हैं- सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। भद्र क्या है! हमारे देश में हम क्या कहते हैं भद्र पुरुष। अंग्रेजी में कहते हैं ‘जेण्टलमेन’ सज्जन को। वैदिक संस्कृति में और पाश्‍चात्य संस्कृति में एक मूलभूत अन्तर है। पाश्‍चात्य संस्कृति में बाहर से जो अच्छा दिखता है, जिसकी वेशभूषा अच्छी है, जिसका चेहरा अच्छा है उसे जेण्टलमेन कहते हैं। पर वैदिक संस्कृति में जो अन्दर से अच्छा है उसे जेण्टलमेन कहते हैं, उसे भद्र पुरुष कहते हैं। भद्र की परिभाषा है-
यत् कल्याणं सर्वदुःखरहितं सत्यविद्या प्राप्त्याऽभ्युदय निःश्रेयस सुखकरं भद्रमस्ति।
जिससे सुख भी हो, कल्याण भी हो उसे भद्र कहते हैं। इस लोक में अभ्युदय की प्राप्ति हो तथा परलोक में भी निश्रेयस की प्राप्ति हो उसे भद्र कहते हैं। सुख में और कल्याण में क्या अन्तर है? सुख शरीर को मिलता है। शारीरिक सुख-सुविधाएँ जिससे शरीर की तृप्ति होती है, उसे सुख कहते हैं। और जिससे आत्मा की तृप्ति होती है, मन का सन्तोष होता है उसे कल्याण कहते हैं। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। केवल जो बाहर से दिख रहा है उसी से व्यक्ति अच्छा नहीं बनता। उसके अन्दर की भावनाएँ कैसी हैं? वह सदाचारी है या दुराचारी है। वह केवल अपने हित के लिए सोचता है या दूसरों का भी भला सोचता है। अन्दर के विचारों को भी देखा जाता है। जिसके अन्दर के विचार अच्छे हैं। वैदिक संस्कृति में वह भद्र पुरुष होता है। आपके शरीर की सुख-सुविधाएं और आपके अन्तःकरण की भावनाएँ दोनों को मिलाकर ’भद्र’ बनता है। धर्म भी यही है। वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा यही है- यतो अभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धि सः धर्मः।
जिससे इस लोक में उन्नति हो और परलोक में निःश्रेयस की प्राप्ति हो वह धर्म है और वो धर्म ही भद्र है। धर्म ही अथवा भद्र ही सुख का मूल है। सुख को प्राप्त करना चाहते हो, कल्याण को प्राप्त करना चाहते हो तो धर्म की शरण में आओ। और ऐसे धर्म का सन्देश वेद देता है- वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।
आप कोई भी वस्तु खरीदते हैं बाजार से। गाड़ी खरीदते हैं, फ्रीज, कूलर, वाशिंग मशीन, मोबाईल या अन्य कोई वस्तु खरीदते हैं। उसके साथ एक पुस्तिका होती है। उस पुस्तिका में क्या होता है? जो वस्तु आपने ली है, उसके बारे में सारी जानकारी होती है। कब किस अवयव में, किस भाग में खराबी आ जाए तो आप उसको कैसे ठीक करेंगे? उस वस्तु को, उस यन्त्र को चलाएंगे कैसे? आदि-आदि उन सभी की जानकारी उस पुस्तिका में होती है। परमपिता परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की। जब साधारण मशीन आप खरीदते हैं, उस मशीन की भी पुस्तिका दी जाती है। तो इतनी बड़ी सृष्टि परमात्मा ने रची उसकी जानकारी के लिए भी कोई पुस्तिका होनी चाहिए। ऐसी पुस्तिका परमपिता परमात्मा ने सृष्टि की समस्त जानकारी के लिए और आपकी गतिविधियाँ कैसी हों, वो सब बताने के लिए सब मनुष्यों के कल्याण के लिए- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। सब मनुष्यों के कल्याण के लिए परमपिता परमात्मा ने वेद का ज्ञान दिया। उस वेद में जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं- विश्‍वानि दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।
हम कामना करते हैं कि हे प्रभो! हमारे सभी प्रकार के दोष, दुर्गुण और दुःख दूर हो जाएं ताकि हम भद्र की प्राप्ति कर सकें। जब सब प्रकार के दोष, दुर्गुण और दुःख दूर होंगे तभी तो भद्र की प्राप्ति होगी। और केवल मुझे ही नहीं सबको भद्र की प्राप्ति हो। देखो, गायत्री मन्त्र जिसके माध्यम से उपासना आप करते हैं। ये भी गायत्री मन्त्र है। गायत्री वेदों में एक छन्द है। ये जो मन्त्र है ये भी गायत्री मन्त्र है और जिसका आप नियमित रूप से पाठ करते हैं जो सर्वप्रसिद्ध मन्त्र है-
ओ3म् र्भूर्भुवःस्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्। भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
ये भी गायत्री मन्त्र है। और इन दोनों मन्त्रों के द्वारा वैदिक ऋषियों ने विधान किया है कि जब आपको हवन के समय अधिक आहुतियाँ देनी हों तो इस गायत्री मन्त्र से दें या विश्‍वानि देव सवितः इस गायत्री मन्त्र से दें। जिस गायत्री मन्त्र को आप जानते हैं उसमें भी कामना कैसी की है? धियो यो नः प्रचोदयात्। हे प्रभो! हमारी बुद्धि को प्रचण्ड गति से प्रेरित कर दो। केवल मेरी बुद्धि को नहीं। विश्‍वानि दुरितानि परासुव । सब मनुष्यों के सभी प्रकार के दोष, दुर्गुण और दुःखों को दूर कर दीजिए।

यहाँ बैठे हुए बालकों में से किसी एक बालक ने कामना की कि हमें भोजन करा दो। भोजन का समय है। और एक बालक ने केवल अपने लिए ही भोजन की कामना की। वो बालक केवल अपने लिए ही भोजन ले आया। अन्य बच्चे भी भूखे हैं। यदि वह केवल अपने लिये भोजन ले आया तो दूसरे बच्चे छीना-झपटी करेंगे। और एक बालक कहता है कि हम इतने हैं 10 है 20 है, 25 हैं, 50 हैं। इतनों के लिए भोजन की व्यवस्था कर दो। वो बालक कैसा बालक है? अच्छा बालक है और जो केवल अपने लिए भोजन की मांग करता है वह? वो बालक, अब आप सोच लो वो कैसा बालक है? देखो एक प्रकृति होती है, एक विकृति होती है, एक संस्कृति होती है। प्रकृति क्या होती है? केवल अपने बारे में सोचना प्रकृति होती है। दूसरों की छीनकर खा लेना विकृति होती है। और अपने हिस्से को भी दूसरों को दे देना संस्कृति होती है। इसलिए अपने हिस्से को भी दूसरों को दे देने वालों की संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहते हैं। वह वैदिक संस्कृति ही है जिसमें कामना की जाती है- विश्‍वानि दुरितानि परासुव।
हमारे सब प्रकार के, केवल मेरे नहीं हमारे! देखो! महर्षि दयानन्द इस मन्त्र का अर्थ करते हुए कहते हैं, उन्हीं के शब्दों में सुनाता हूँ-
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता! समग्र एश्‍वर्य युक्त, सब सुखों के दोता परमेश्‍वर! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए जो कल्याणकारक गुण-कर्म स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कराइए। (वो भी किसको? हमको केवल, मुझे नहीं। हम सबको।)

आज संसार में जितनी भी विषमताएँ हैं, जितनी भी समस्याएं हैं, चाहे आतंकवाद की समस्या हो, चाहे भ्रष्टाचार की समस्या हो, चाहे अशान्ति की समस्या हो, इन सब समस्याओं का समाधान वेद के इस मन्त्र में निहित है। और जिस दिन हम इस मन्त्र के भावों को अपने जीवन में ढाल लेंगे उस दिन इस दुनिया में कोई भी दुखी न होगा। कोई भी पीड़ित न होगा, कोई भी भूख से नहीं मरेगा। विश्‍वानि दुरितानि परासुव।

प्रत्येक व्यक्ति का जीवन पाँच प्रकार का जीवन होता है- व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और वैश्‍विक जीवन। केवल व्यक्तिगत जीवन से व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। उदाहरण के लिये मुझे भोजन करना है। मैं भोजन करने में स्वतन्त्र नहीं हूँ। ये जो कहा जाता है कि आज हमारा देश स्वतन्त्र है। ठीक है, विदेशियों का राज्य नहीं है। सामुहिक रूप से देश स्वतन्त्र है। किन्तु व्यक्तिगत रूप से कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं है। परमेश्‍वर ने कुछ परिस्थितियों में, कुछ सीमाओं में प्रत्येक जीव को स्वतन्त्र किया हुआ है। स्वतन्त्रः कर्त्ता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है।

कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए भी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है। भोजन को बनाने के लिए गेहूँ मैं पैदा नहीं करता। गेहूँ मुझे कहीं से लाना होगा। और जहाँ से मैं लाया हूँ उस दुकानदार ने भी गेहूँ पैदा नहीं किया। वो भी कहीं से लाया है। उसे किसान ने उगाया है और किसान ने भी केवल स्वयं की स्वतन्त्रता से उस गेहूँ को नहीं उगा दिया। उसको भी उगाने के लिये ट्रैक्टर की आवश्यकता पड़ी है या बैल की आवश्यकता पड़ी है। और अन्य सहयोगियों की आवश्यकता पड़ी है। अन्य यन्त्रों की भी आवश्यकता पड़ी है। उन यन्त्रों का या उन ट्रैक्टरों का भी उसने स्वयं निर्माण नहीं किया है। जिन यन्त्रों का इस्तेमाल वो कर कर रहा है उन यन्त्रों के निर्माण के लिये भी हजारों हाथों का उपयोग हुआ है। और वो गेहूँ की रोटी मैं जिस चुल्हे पर बना रहा हूँ उस चुल्हे की ईंट का निर्माण भी मैंने नहीं किया। या गैस का चुल्हा है तो उस चुल्हे का निर्माण भी मैंने नहीं किया। और उस रोटी को पकाने के लिये जो तवा प्रयोग हुआ है उसका निर्माण भी मैंने नहीं किया। और न ही मैं कर सकता हूँ। बस मैंने यही किया कि मैं गेहूँ ले आया, उस गेहूँ का आटा मैंने बनवा लिया। उसकी रोटी बनाने के लिये मुझे जल भी कहीं से लाना होगा। परमपिता परमात्मा की व्यवस्था तो है ही। परन्तु मेरे घर तक लाने के लिये हजारों हाथों की जरूरत तो पड़ती ही है। हजारों हाथों के, लाखों हाथों के प्रयोग होने के बाद ही गेहूँ की रोटी बनाने की स्थिति में मैं आता हूँ। मैं या कोई भी व्यक्ति यदि यह सोचा जाए तो स्वतन्त्र कैसे है? दूसरे के सहयोग की अपेक्षा हमेशा होती है। इसलिए कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं है। सब परस्परतन्त्र हैं? क्या हैं? परस्पर तन्त्र हैं। सबको सबकी सहायता की जरूरत होती है। आज मैं यहाँ बैठा हूँ। आपको ज्ञान का उपदेश दे रहा हूँ। आपको वेद का सन्देश दे रहा हूँ। यह मंच मैंने नहीं बनाया। ये माईक जिसके माध्यम से आपको आवाज सुनाई दे रही है, उसको भी मैंने नहीं बनाया। मैंने यहाँ रखा भी नहीं है।

सबके सहयोग से सब कार्य होते हैं। इसलिए परमपिता परमात्मा की पावन वाणी वेद के माध्यम से वैदिक ऋषि सबके कल्याण की बात करता है। और इसलिए कहता है- विश्‍वानि दुरितानि परासुव। और आप यज्ञ करते हैं न प्रतिदिन। पाँच आहुतियाँ तो एक ही मन्त्र से देते हैं- ओ3म् अयं त इध्म आत्मा जातवेदः....।
इस मन्त्र से पाँच बार आहुतियाँ क्यों देते हैं? इस दुनियाँ में पाँच प्रकार के लोग हैं। ब्राह्मण केवल जाति से या जन्म से नहीं होता। जो समाज को पढ़ाता है, सिखाता है, आगे बढ़ने का सन्देश देता है वो ब्राह्मण है। शिक्षक वर्ग। क्षत्रिय जो इस समाज की, राष्ट्र की रक्षा करता है वो क्षत्रिय है। वैश्य जो समाज के लिए वस्तुओं का उत्पादन करता है। अन्न आदि की उत्पत्ति करता है, पशुपालन, खेती, पशुपालन इत्यादि करता है वो वैश्य है। और शूद्र जो सेवा का कार्य करता है। जो श्रम करता है, परिश्रम से आप सबकी सेवा करता है, राष्ट्र की सेवा करता है वो शूद्र है। इन चारों वर्णों में कोई भी ऊँचा-नीचा नहीं है। और इन चारों के अलावा एक और वर्ण भी है। पाँच प्रकार के वर्ण होते हैं। जो इस वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते, जो वेदों में विश्‍वास नहीं करते, जो वैदिक संस्कृति के विरोधी हैं, वैदिक संस्कृति तो उनके भी कल्याण की कामना करती है। और यज्ञ के बाद हम यह प्रार्थना करते हैं- हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। हम यह तो नहीं कहतेकि जो हमारी बात मानता है, जो वेद का अनुयायी है वो तो सुखी हो जाए और जो वेद को नहीं मानते, जो हमारी विचारधारा के अनुकूल नहीं हैं, उनका सिर धड़ से अलग कर दिया जाए। ऐसा तो हम नहीं कहते। हमारी बात को मानता हो या नहीं मानता हो, वेद को मानता हो या न मानता हो, हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। सबका कल्याण हो। इसी बात को इस मन्त्र में कहते हैं- विश्‍वानि दुरितानि परासुव।

अच्छा! हर व्यक्ति अपने कल्याण की कामना करता है। हम इस मन्त्र में सबके कल्याण की भी कामना करते हैं, क्योंकि सबके कल्याण में ही हमारा कल्याण निहित है। तो सब व्यक्ति सुख तो चाहते हैं, भद्र तो चाहते हैं। परन्तु समस्या यह होती है कि आलस्य और प्रमाद के कारण से व्यक्ति सुख और कल्याण चाहते हुए भी वैसी गतिविधि नहीं करता। वैसा प्रयास नहीं करता। चाहता तो हैकि मैं सुखी हो जाऊं। मुझे भद्र प्राप्त हो जाए, परन्तु गतिविधि ऐसी नहीं करता। इससे भद्र नहीं हो पाता।

कई बार संकल्प दिलवाया जाता है, व्रत दिलवाया जाता हैकि तुम्हारे जीवन में यह दुर्गुण, या दुर्व्यसन है। इस दुर्गुण को, दुर्व्यसन को छोड़ो तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। और व्यक्ति कई बार प्रयास करता है अपने दुर्गुण, दुर्व्यसन को छोड़ने का। परन्तु वह सोचता है कि कल से मैं इस बुराई को छोड़कर अपने जीवन में अच्छाई को धारण करूँगा। सबके जीवन में अपने कल्याण के भाव तो उठते हैं, परन्तु त्रासदी यह है कि व्यक्ति उसी समय से अपने कल्याण के लिये या दूसरे के कल्याण के लिये प्रयास नहीं करना चाहता। परन्तु वह यह सोचता है कि मैं कल से इस बुराई को छोड़कर अपने जीवन में अच्छाई को धारण करूँगा। एक शराबी शराब पीता है। पत्नी और बच्चे उसके इस दुर्व्यसन से परेशान हैं। बच्चों हेतु शिक्षालय में फीस जमा करने के लिये पैसा नहीं है। और सन्तुलित भोजन उसके इस दुर्व्यसन के कारण बच्चों को प्राप्त नहीं हो पाता। वह व्यक्ति अपनी पत्नी की, अपने बच्चों की, अपने परिवार की दुर्दशा देखकर यह सोचता है कि मैं कल से शराब नहीं पीऊँगा, आज से नहीं। ऐसे ही जुआरी भी सोचता है। ये जो शेयर मार्केट चल रहा है न। बिना मेहनत के ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति का नाम जुआ होता है। चाहे वह किसी भी रूप में हो। शेयर के रूप में या सट्टे के रूप में। तो जुआरी भी सोचता है मैंने बहुत ज्यादा धन का अपव्यय कर दिया। कल से जुआ नहीं खेलूँगा। एक भ्रष्टाचारी, अपराधी चोर जा रहा है। उसके हाथों में हथकड़ियाँ डली हुई है। रास्ते में चलने वाले लोग उसे घृणित नजरों से देख रहे हैं। उसके बच्चे और उसकी पत्नी भी उसे घृणा की नजर से देख रही है। ऐसा अपराधी, चोर, भ्रष्टाचारी यही सोचता है कि मैं कल से अपराध, चोरी, भ्रष्टाचार नहीं करूंगा। ये कल्याण का मार्ग नहीं है। दुनियाँ के लोगो! यदि कल्याण चाहते हो, सुख चाहते हो तो वैदिक ऋषि कहता है कि आज से ही भद्रता धारण करो, आज से ही शुभ संकल्प धारण करो। आज से नहीं अभी से संकल्प करो। और जो व्यक्ति ये सोचता है कि-
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्या पड़ी है अभी जीना है बरसों॥

ये आलसी और प्रमादी व्यक्ति अपने जीवन में सुख की प्राप्ति कभी नहीं कर सकते। जो सुख की प्राप्ति के लिये प्रयास करता है वह कल की उपासना नहीं करता। वह कहता है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होयगी, बहुरी करोगे कब।
अपने कल्याण की, अपने परिवेश में आने वाले सबके कल्याण की कामना करने वाला व्यक्ति कल की उपासना नहीं करता। इसलिए वैदिक ऋषि यजुर्वेद के प्राचीनतम भाष्य शतपथ ब्राह्मण में कहता है- न श्‍वः श्‍वमुपासीत को हि मनुष्यस्य श्‍वोवेद।

जो कल्याण चाहते हैं वे कल की उपासना न करे। आज ही अपने जीवन में भद्रता को धारण करें। आज ही संकल्प लें। आज ही व्रत को धारण करें। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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