विशेष :

जागतिक पर्यावरण

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‘पर्यावरण’ जगत् के जीवों के जीवन पर केन्द्रित रहता है। जीवन सन्तुलित पर्यावरण से ही पूर्ण एवं दीर्घकालिक होता है। इसके असन्तुलित या प्रदूषित होने पर जीवन में विघ्न या रोग पैदा हो जाते हैं। प्राणियों के जीवन की पूर्णता में वनस्पतियों, खाद्यपदार्थों, पशुओं, पक्षियों एवं कृषि आदि कर्मों का हानोपादान प्रभावी होता है।

सारी वनस्पतियाँ कहीं न कहीं पर्यावरण को प्रभावित करती हैं। कभी ये आक्सीजन (ओषजन) बाँटती हैं,

कभी रोगों को दूर करती हैं, तो कभी परिसर को मानसिक प्रसन्नता में परिणत करती हैं। इनका पत्र हो या मूल, फूल हो या फल, त्वचा हो या अन्तःसार सब कुछ किसी न किसी प्रकार से जीवनीय द्रव्यों में उपयोग किया जाता है। इनके द्वारा ही वर्षा-चक्र नियन्त्रित होता है, जिससे कृषि-प्रधान देश में कृषि-कर्म का संचालन होता है। बिना कृषि-कर्म के खाद्य वस्तुओं का जीवन में विनियोग अथवा उपयोग सम्भव नहीं हो सकता।

कृषि हो या वनस्पति, पशु-पक्षियों के बिना सब अधूरा रहता है। पारिस्थितिकी के नियन्त्रण में पशुओं एवं पक्षियों की भूमिका जीवन को सदैव प्रभावित करती है। धरती पर जीवन की सफलता के लिए जगत् में होने वाले वान्स्पतिक एवं उत्पाद्य कृषि, खाद्य, खनिज आदि सभी कभी अनिवार्य तो कभी आवश्यक होते हैं। इस प्रकार पर्यावरण के लिए जागतिक उपादानों का प्रयोग-अप्रयोग वैदिक ऋषियों की मनीषा से ओझल नहीं था। यजुर्वेद वाङ्मय में यथोपलब्ध इस प्रकार के उल्लेखों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।

वानस्पतिक पर्यावरण- प्राणियों का जीवन वनस्पतियों पर आश्रित है। पर्यावरण की रक्षा में वनों का अत्यधिक महत्व है। धरती माता को ‘शस्य-श्यामला’ वनस्पतियों के कारण ही कहा गया है। प्रकृति ने वनों के रूप में मानव को सुन्दर उपहार दिया है, जिस पर उसका अस्तित्व, उन्नति एवं समृद्धि निर्भर है। वन पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तथा वे आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का आधार भी हैं। वन-वृक्ष आदि वनस्पतियाँ पाणिमात्र की सेवक हैं। उनके ऋण से कोई भी प्राणी उऋण नहीं हो सकता। भोजन, छाया, लकड़ी, बहुमूल्य रासायनिक तत्व सभी वृक्षों से ही प्राप्त होते हैं।

पशु घास तथा पेड़ों के पत्ते खाते हैं। मनुष्य का आहार अन्न, शाक, फल व वनस्पति है। यह खाने को न मिले तो जीवित रहना सम्भव नहीं। मांसाहारी भी शाकाहारी प्राणियों का ही मांस खाते हैं। इस प्रकार जीवन की निर्भरता घास तथा वृक्ष स्तर की वनस्पतियों पर ही अवलम्बित है।

वृक्ष दिन भर आक्सीजन उगलते हैं तथा प्राणियों के द्वारा ही छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड को निगलते हैं, इसलिए उन्हें नीलकण्ठ की उपमा दी गई है। आग लगने तथा कारखानों से निकलने वाली विषैली वायु का शोधन वनस्पतियों द्वारा ही किया जाता है। वस्तुतः वनसम्पदा पेड़-पौधे या वनस्पतियों की उपयोगिता के विषय में जितना कहा जाए वह अल्प ही है।

जो पेड़-पौधे मनुष्य को आक्सीजन के रूप में प्राणवायु देकर जीवित रखे हुए हैं तथा जिनके कारण यह पृथ्वी मनुष्य और अन्य प्राणियों के रहने योग्य बनी है, जिनके कारण पर्यावरण शुद्ध होता रहता है, उन्हीं पेड़-पौधों पर कुल्हाड़ियाँ तथा आरियाँ चलाकर उनका कत्ल किया जा रहा है। विश्‍वविख्यात वनस्पतिशास्त्री प्रो. जगदीशचन्द्र बसु ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया था कि पेड़-पौधों या वनस्पतियों में भी मनुष्य की तरह संवेदनाएँ व्याप्त होती हैं। इनके भी अपने सुख-दुःख हैं। पर ऐसा लगता है कि मनुष्य की संवेदनाएँ तो मर गई हैं, पर मूकसेवी पेड़-पौधों में संवेदनाएँ अवश्य शेष हैं।

आज जिस अन्धाधुन्ध तरीके से मनुष्य अपने तुच्छ स्वार्थों के कारण जंगलों का विनाश करता जा रहा है, उसको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का यह कदम स्वयं कहीं, उसके लिए आत्मघाती न बन जाए। क्योंकि पेड़-पौधे कन्द-मूल-फल ही नहीं देते, बल्कि ये अस्वस्थ मनुष्य को स्वस्थ बनाने वाली औषधियों की आश्रयस्थली भी हैं। ऐलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी इन सब चिकित्सा पद्धतियों की समस्त औषधियाँ विभिन्न वनस्पतियों से ही तैयार की जाती है। वहीं आयुर्वेद तो पूर्णतः वनस्पति जन्य औषधियों पर ही अवलम्बित है।

वृक्ष भमि पर नमी बनाकर बादलों को बरसने के लिए प्रेरित करते हैं तथा जड़ों के माध्यम से जल को भूमि में ले जाकर जलस्तर को बनाए रखते हैं तथा भूमि के कटाव को रोकते हैं। भूमि के जिस स्तर को बनाने में प्रकृति को हजारों वर्ष लगते हैं, वृक्ष न होने पर वह कुछ समय में ही नष्ट हो सकता है। पृथिवीस्थ पर्यावरण दोष को सुधारने का कार्य वृक्ष बड़ी सरलता से करते हैं। वर्तमान कल-कारखानों से निकलने वाले वायवीय प्रदूषण को ये शिव की भांति पी जाते हैं। पत्तियाँ वायु में मिले प्रदूषक पदार्थों के सूक्ष्म कणों को रोक एवं सोख लेती हैं। इसीलिए यजुर्वेद वाङ्मय में वृक्षादि वनस्पतियों को दुष्प्रभावों का शमन करने वाला कहा गया है। यजुर्वेद में लिखा है- वनस्पतिः शमिता॥1
वनस्पतिं शमीतारम्॥2

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण का भी मत है कि औषधियाँ प्रदूषकों का अवशोषण करती है- ओषं धयेति तरुः ओषधयः सम्भवन्॥3

संहिता ग्रन्थों में भी औषधियों के लिए रपस् (प्रदूषण) नाशक एवं शान्तिप्रद होने का उल्लेख हुआ है-
ओषधीरिति मातरस्तद्वो देवीरुपब्रुवे।
रपां सि विघ्नतीरित रपश्‍चातयमानाः।4
पृथिवी शान्तिः सौषधीभिश्शान्तिः॥5

यजुर्वेद वाङ्मय में वृक्षादि औषधि- वनस्पतियों का बहुत उल्लेख हुआ है तथा स्थान-स्थान पर इनकी रक्षा की प्रेरणा की गई है। आज वनों की कमी से रोगों की वृद्धि हो रही है। वनस्पति से ओत-प्रोत वायुमण्डल संसार को आरोग्य, जीवन, दीर्घायु एवं सजीवता देता है। पहाड़ी प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियाँ उगती हैं, जिनका आरोग्यप्रद जलीय अंश सूर्यताप के कारण वायु में घुल जाता है। इस कारण वनस्पतियों की अधिकता होने से पर्वतीय क्षेत्रों में वायु शुद्ध रहती है। यही कारण है कि आरोग्य लाभ के लिए औषधि-वनस्पतियों से युक्त पर्वतीय स्थानों पर जाने वाले व्यक्ति वहाँ की शुद्ध वायु में नैसर्गिक जीवन जीकर स्वास्थ्य तथा दीर्घायु को प्राप्त करते हैं।

प्राचीनकाल में वन संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग थे। ऋषि-मुनियों के आश्रम वनों में ही होते थे। वनों के बिना वैदिक संस्कृति की कल्पना असम्भव लगती है। वैदिक संस्कृति के अनुसार बनायी गयी आश्रम व्यवस्था में मनुष्य के जीवन का तीन चौथाई भाग वन में ही बीतता था। जीवन के प्रथम भाग ‘ब्रह्मचर्यावस्था’ में अध्ययन के स्थल गुरुकुल आदि जंगलों में ही होेते थे। तृतीय भाग ‘वानप्रस्थाश्रम’ में भी वनों में ही रहकर साधना की जाती थी। चौथा ‘संन्यासाश्रम’ भी ऐसा है कि इसमें जो गिरि, पर्वत, आरण्य आदि संन्यासी होते थे तथा जो लोकोपदेश कार्य को प्रधानता न देकर योगमार्ग में रत रहकर समाधि के लिए प्रयत्नशील होते थे, वे भी जंगलों का ही आश्रय लेते थे। क्योंकि वहाँ का पर्यावरण विशुद्ध एवं प्रदूषण से मुक्त होता था। प्राचीन ऋषियों ने पर्यावरण के महत्व को समझा था।

प्रदूषण से बचने तथा स्वस्थ रहने की दृष्टि से यजुर्वेद में वनों में रहकर अध्ययन का उल्लेख आता है-
उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्।
धिया विप्रो अजायत ॥6

अर्थात् पर्वतों की निकटता तथा नदियों के संगमों के पर्यावरण में उत्तम बुद्धि से युक्त होकर विचारशील बुद्धिमान् होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि पर्वतों तथा नदियों के निकट वृक्षों की अधिकता रहने से वहाँ का पर्यावरण अधिक शुद्ध रहता है। वहाँ अध्ययन करना अधिक लाभप्रद होता है तथा विचारशीलता को प्रभावित करता है। पर्वतों की उपत्यकाओं तथा नदियों के संगमों पर प्राचीन ऋषियों के शिक्षा केन्द्र (आश्रम) वहाँ के विशुद्ध पर्यावरण को दृष्टिगत रखते हुए ही बनाए जाते थे। वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त स्थलों में रहकर विद्यार्थियों का प्रकृति के साथ सीधा सम्पर्क स्थापित हो जाता था।

आज दुनिया भर के बुद्धिजीवी तथा संगठन पर्यावरण की समस्या से चिन्तित हैं तथा अधिकाधिक वृक्षारोपण की बात कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि वैदिक ऋषियों ने दूरदृष्टि से सदियों पूर्व इस स्थिति की कल्पना कर ली थी, तभी तो वैदक ऋषि औषधि-वनस्पतियों की हिंसा न करने की प्रेरणा देता है-
मौषधीर्हिं सीः॥7
ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिं सीः॥8

औषधियों की हिंसा न करने का अभिप्राय है, उन्हें नष्ट न करना उनकी रक्षा करना। क्रमशः

सन्दर्भ सूची
1. यजुर्वेद संहिता 29.35
2. यजुर्वेद संहिता 28.10
3. शतपथ ब्राह्मण 2.2.4.5
4. तैत्तिरीय संहिता 4.2.6.1
मैत्रायणी संहिता 2.7.13
काठक संहिता 16.13
5. मैत्रायणी संहिता 4.9.27
6. यजुर्वेद संहिता 26.15
7. यजुर्वेद संहिता 6.22
8. यजुर्वेद संहिता 4.1

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