वैदिक काल में विद्यार्थी काल से ही मनुष्य में वनस्पतियों की रक्षा करने की भावना भर दी जाया करती थी, ताकि पर्यावरण की शुद्धि बनी रहे। इसी कारण ब्रह्मचारी को यज्ञ के लिए स्वयं गिरी हुई समिधा लाने का निर्देश दिया जाता था-
अहिंसन्नरण्यात्समिध आहृत्य तस्मिन्नग्नौ पूर्ववदाधाय वाचं विसृजते॥9
यदि वनस्पति को काटना भी पड़े तो ऐसा काटा जाए कि उसमें अनेकों स्थानों पर फिर से अंकुर फूट जाएँ-
अयं हि त्वा स्वधितिस्तेतिजानः प्राणिनाय महते सौभगाय।
अतस्वत्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम।10
हे वनस्पति! इस तेज कुल्हाड़े ने महान् सौभाग्य के लिए तुझे काटा है, तू शतांकुर होती हुई बढ़, तेरा उपयोग करके हम सहस्रांकुर होते हुए वृद्धि को प्राप्त करें।
अथो त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा वि रोहतात्॥11
हे औषधि! तू दीर्घायु होती हुई शत अंकुरों से बढ़।
आज जिस तरह से वन सम्पदा का दोहन किया जा रहा है, उसके परिणाम आगामी समय में अत्यन्त घातक हो सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार अन्धाधुन्ध कटाई के चलते 1990 तक दुनिया के कुल जंगलों का आधा भाग समाप्त हो गया था। यदि शेष बच रहे जंगलों के दोहन की प्रक्रिया न रोकी गई तो सन् 2090 तक मनुष्य का सांस लेना भी बोझिल बन जाएगा।12
वैदिक काल से ही वृक्षों का लगाना पुण्य कार्य तथा काटना पाप समझा जाता रहा है। इसी कारण देश में वर्षा ठीक समय पर होती रही तथा देश धन-धान्य से परिपूण हो रहा। वनों में होने वाले आम, जामुन, महुआ, बेर आदि के वृक्ष उचित समय पर फल देकर जनता की खाद्य समस्या को हल करने में सहायक होते रहे। नीम, पीपल, चन्दन आदि के वृक्ष समाज के स्वास्थ्य को ठीक रखते तथा अनेकों पेड़ों एवं वनस्पतियों की औषधियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती रही।
तैत्तिरीय संहिता में वनस्पति को देव कहते हुए उससे रक्षा की प्रार्थना की गई है-
देवो वनस्पतिरुर्ध्वो मा पाहि॥13
मैत्रायणी संहिता में वनस्पति को चराचर का हित करने वाली कहा गया है-
चराचरा हि वनस्पतयः।14
वनस्पतियाँ वायु की रक्षक है.-
वायुगोपा वै वनस्पतयः॥15
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि पृथ्वी पर जहाँ पौधे बहुत होते है, वहाँ जीविका भी बहुत होती है-
यत्र वाऽअस्यै बहुलतमा
ओषधयस्तदस्या उपजीवनीयतमम्॥16
यजुर्वेद में वृक्षों को रुद्र की संज्ञा दी गई है। यजुर्वेद में ‘रुद्राध्याय’’17 नामक एक पूरा अध्याय है। इसमें ‘रुद्रदेव’ के विभिन्न रूपों का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि ‘रुद्र’ अनेक हैं। ये आकाश, मध्यस्थान तथा पृथ्वी पर विद्यमान हैं।
असंख्यता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम्॥18
अस्मिन् महत्त्वर्णवेऽन्तरिक्षे भवा अधि॥19
इन रुद्रों के दो रूप हैं। कल्याणकारी रूप में ये ‘शिव’ कहलाते हैं तथा विनाशकारी रूप में ये ‘रुद्र’ बन जाते हैं। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ जब समुचित रीति से प्रयुक्त किया जाता है, तब वह ‘शिव’ होता है, परन्तु इसके विपरीत प्रयुक्त होने पर वह ‘रुद्र’ रूप धारण कर लेता है।
‘रुद्राध्याय’ में ‘रुद्र’ रूप वृक्षों, पौधों तथा वनों के प्रति एवं इनके पालकों के प्रति आदर प्रकट किया गया है-
नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः॥21
वृक्षाणां पतये नमः। कक्षाणां पतये नमः।
ओषधीनां पतये नमः॥22
पौधे पृथ्वी की रक्षा करते हैं। उनके हरे पत्तों को उनके केश कहा गया है। ‘रुद्र’ को ‘विषपायी’ और ’शंकर’ तथा ‘अमृतदाता’ भी कहा जाता है। वृक्ष कार्बनडाईआक्साइड के रूप में विष का पान करते हैं तथा आक्सीजन के रूप में अमृत का दान करते हैं। इस प्रकार वृक्षों को ‘रुद्र’ का रूप कहा जा सकता है तथा वृक्षारोपण को रुद्र की सेवा। यदि ‘कार्बनडाईआक्साइड’ तथा ‘आक्सीजन’ का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो ‘रुद्र’ हानि पहुँचाने लगते हैं। इसीलिए यजुर्वेद में रुद्रों से रक्षा करने एवं वरदान देने की प्रार्थना की गई है-
या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया न मृडजीवसे॥23
हे रुद्र! जो तुम्हारा शान्त, निरन्तर कल्याणकारी, संसार की व्याधि निवृत्त करने वाली औषधि तथा शारीरिक रोग की सम्यक् औषधिरुप शक्ति है, उस शक्ति हमारे जीवन को सुखी करो।
यजुर्वेद के रुद्राध्याय में वनस्पति संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। यथा ‘वृक्षाणां पतये नमः’ में वृक्षों की समुचित देखभाल करने वालों के प्रति नम्रभाव दर्शाया गया है। इसी प्रकार ‘नमो वृक्षेभ्यो’ कहकर वृक्षों के प्रति नम्रभाव अर्थात् उनकी उचित देखभाल का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।
वृक्ष ऐश्वर्य देने का भारी साधन है। इसलिए राज्य का कर्त्तव्य है कि इनका पालन तथा रक्षण करे। राज्य को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि जंगलों में से राज्य की स्वीकृति के बिना कोई भी लड़कियाँ आदि न ले सके। जंगलों के पालन एवं रक्षण के लिए विशेष वन-रक्षक या वनपाल रखे जाने चाहिएं। यजुर्वेद में इस बात का उल्लेख मिलता है तथा वनों और अरण्यों के पालकों के प्रति आदर प्रकट किया गया है-
वनानां पतये नमः॥24 अरण्यानां पतये नमः॥25
यहाँ ‘वन’ तथा ‘अरण्य’ दो शब्दों का इकट्ठा प्रयोग हुआ है। सामान्य रूप में इन दोनों शब्दों का प्रयोग ‘जंगल’ अर्थ में होता है। वेद और लोक दोनों में ही इन शब्दों का एक सामान्य अर्थ जंगल है। परन्तु यहाँ ये दोनों शब्द साथ-साथ आए हैं। इसलिए इनके अर्थों में कुछ भेद अवश्य होना चाहिए। दोनों शब्दों के धात्वर्थ को देखने से यह भेद स्पष्ट हो जाता है।26 ‘अरण्य’ शब्द ‘ऋगतौ’ धातु27 से अथवा नञ् पूर्वक ‘रमु क्रीडायाम्’28 धातु से निष्पन्न होता है। अतः ‘अरण्य’ वह जंगल होगा, जो नगर से दूर हो अथवा जिसमें क्रीडा न की जा सके- अपार्णं ग्रामाद् अरमणं भवतीति वा।29 अतः नगर से दूर तथा सघन जंगलों को ‘अरण्य’ कहा जाता है, जिसमें मनुष्यों का विहार तथा संचार न हो सके।30 ‘वन’ शब्द ‘वन संभक्तौ’31 धातु से बनता है। ‘संभक्ति’ का अर्थ सेवन, दान तथा विभाग होता है। जो सड़कों द्वारा सुविभक्त हो, जिसमें पथ-विभाग के कारण लोग वायु आदि का सेवन करने के लिए भ्रमण करने जा सकते हों, जो शुद्ध वायु द्वारा लोगों को स्वास्थ्य, प्रसन्नता आदि देता हो- ऐसे जंगल या वृक्षों के समूह को ‘वन’ कहते हैं। ऋग्वेद में ‘स वनान्मृञ्जते’32 कहते हुए राजा को वनों को प्रसाधित अर्थात् सजाकर रखने के लिए कहा गया है। जो वृक्ष-समूह मार्ग-विभागादि के द्वारा सजाए गए हों, जिससे कि लोग उनमें भ्रमण कर सकें उन्हें ‘वन’ कहा जाएगा। आधुनिक प्रचलित भाषा में जिस वृक्ष समूह को ‘उद्यान’ कहते हैं, उसी को यहाँ ‘वन’ कहा गया है।33 ‘वन’शब्द लौकिक संस्कृत में भी ‘उद्यान’ के लिए प्रयुक्त होता है। आम्रवन, पुष्पवन आदि शब्दों में ‘वन’ के प्रयोग से यह बात स्पष्ट है। आम्रोद्यान तथा पुष्पोद्यान के लिए कभी भी आम्रारण्य तथा पुष्पारण्य का प्रयोग न होकर आम्रवन और पुष्पवन का ही प्रयोग होता है। इससे वन एवं अरण्य का भेद स्पष्ट हो जाता है।
यजुर्वेद में वनों तथा अरण्यों के रक्षकों का सत्कार करने का उल्लेख होने से स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में ऐसे वनपाल, राष्ट्र के वनों की रक्षा के लिए रखे जाते थे। क्योंकि वनपाल न होने की अवस्था में उनका सत्कार सम्भव ही नहीं है। वनों की रक्षा करने वाले को ही राजा बनने का अधिकार है-
अक्रन्ददग्निस्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद् वीरुधः समंजन्।
सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः॥34
अर्थात् जैसे सूर्य प्रकाशकर्त्ता है, वैसे विद्या और न्याय का प्रकाश करने तथा अग्नि के समान शत्रुओं को नष्ट करने वाला विद्वान् विद्युत् के समान गर्जता तथा वन के वृक्षों की अच्छे प्रकार रक्षा करता हुआ पृथ्वी पर युद्ध करे, राजनीति से प्रसिद्ध हुआ शुभ लक्षणों से प्रकाशित शीघ्र धर्मयुक्त उपदेश करे तथा पुरुषार्थ के प्रकाश से ही अग्नि और भूमि को राजधर्म में स्थिर करता हुआ अच्छे प्रकार प्रकाश करता है, वह पुरुष राजा होने के योग्य है।
अभिप्राय यह है कि राजा को वृक्षों की रक्षा करनी चाहिए, ताकि वर्षा समय पर होती रहे एवं रोगों की वृद्धि न हो। युद्ध के समय भी राजा को वृक्षों की रक्षा करने के प्रति सावधान रहना चाहिए।
निम्न मन्त्रों में वनस्पति को वर्षा कराने वाला कहा गया है-
देवो देवैर्वनस्पतिर्हिरण्यगर्णो मधुशाखः, सुपिप्पलो देवमिन्द्रमवर्धयत्।
दिवमग्रेणास्पृक्षदान्तरिक्षं पृथिवीमदृं हीद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज॥35
हे होता! जैसे दिव्य प्रकाशमान् गुणों से युक्त, सुवर्ण के समान चमकते हुए पत्तों वाला, मधुमय शाखाओं से युक्त तथा अति स्वादिष्ट फलों से भरा हुआ वनस्पति देव उत्तम गुणों वाले मेघ (इन्द्र) को बढावे तथा जो वनस्पति अग्रभाव से द्युलोक को, मध्यभाग से अन्तरिक्ष को और मूल भाग द्वारा पृथ्वी को स्पर्श कर दृढ़ करता है। इन गुणों से युक्त वनस्पति देव यजमान को भी समृद्ध तथा दृढ़ करे, वैसे तुम भी यजन करो।
देवो वनस्पतिर्दिवमिन्द्रं वयोधसं देवो देवमवर्धयत्।
द्विपदा छन्दसेन्द्रियं भगमिन्द्रे वयो दधद्वसुवने।
वसुधेयस्य वेतु यज॥36
हे होता! दीप्तिमान वनस्पति देवता, द्विपाद छन्द द्वारा सौभाग्य रूप इन्द्रिय तथा आयु को इन्द्र में धारण करके दीप्तिमान आयु प्रदान करने वाले देवता इन्द्र को बढ़ाते हुए यजमान की समृद्धि तथा दृढ़ता करे, वैसे तुम भी यजन करो।
आशय यह है कि वृक्षादि जल को पृथ्वी से खींचकर वायु एवं मेघमण्डल में फैलाकर वर्षा कराने में सहायक होते हैं, इसलिए वृक्षादि की रक्षा रूप यज्ञ करना चाहिए।
यजुर्वेद में मेघ को वनस्पति के निमित्त से उत्हन्न होना वाला कहा गया है-
अद्रिरसि वानस्पत्यः॥37
बृहद्ग्रावासि वानस्पत्यः॥38
सन्दर्भ सूची
9. पारस्कर ग्रह्यसूत्र 2.5.9
10. यजुर्वेद संहिता 5.43
11. यजुर्वेद संहिता
12. ‘अणुव्रत’ पाक्षिक 16 जून 1997 के
पृष्ठ 11 पर श्री विवेकशुक्ल का ’पेड़-पौधों पर प्रहार कब
तक’ शीर्षक आलेख
13. तैत्तिरीय संहिता 1.2.2.23
14. मैत्रायणी संहिता 2.3.2
15. मैत्रायणी संहिता 3.9.4
16. शतपथ ब्राह्मण 1.3.3.10
17. यजुर्वेद संहिता 16 वाँ अध्याय
18. यजुर्वेद संहिता 16.54
19. यजुर्वेद संहिता 16.55
20. यजुर्वेद संहिता 16.56
21. यजुर्वेद संहिता 16.17
22. यजुर्वेद संहिता 16.19
23. यजुर्वेद संहिता 16.49
24. यजुर्वेद संहिता 16.18
25. यजुर्वेद संहिता 16.20
26. वेदों के राजनैतिक सिद्धान्त-2
पृ.- 50 आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
27. पाणिनीय धातुपाठ, जुहोत्यादिगण
28. पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण
29. निरुक्त 9.3.25
30. वेदों के राजनैतिक सिद्धान्त-2
पृ.- 50 आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
31. पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण
32. ऋग्वेद संहिता 1.143.5
33. वेदों के राजनैतिक सिद्धान्त-2
पृ.- 51 आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
34. यजुर्वेद संहिता- 12.33
35. यजुर्वेद संहिता- 28.20
36. यजुर्वेद संहिता- 28.43
37. यजुर्वेद संहिता- 1.14
38. यजुर्वेद संहिता- 12.33 - (दिव्ययुग- अक्टूबर 2012)
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