प्रयाग उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री शम्भूनाथ श्रीवास्तव ने 10 सितम्बर 07 को एक ऐतिहासिक निर्णय द्वारा ‘गीता’ को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने का आह्वान किया। विश्व के अधिकांश जनों की यह धारणा है कि श्रीमद्भगवत्गीता एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। किन्तु वास्तविकता यह है कि गीता महाभारत ग्रन्थ का एक अंश मात्र है। इस समय जो एकमात्र महाभारत ग्रन्थ प्राप्य है, वह गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित छ: खण्डों वाला ग्रन्थ है। सम्भवतया अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित कोई अन्य प्रति भी प्राप्त हो। इस ग्रन्थ में लगभग एक लाख श्लोक बताये जाते हैं और उन एक लाख श्लोकों में से गीता की श्लोक संख्या मात्र सात सौ है। महाभारत के तृतीय खण्ड के भीष्मपर्व में अठारह अध्यायों की गीता ‘श्रीमद्भगवद्गीता पर्व’ नाम से अभिहित है। भीष्मपर्व के 25 वें अध्याय से प्रारम्भ होकर 42 वें अध्याय में गीता और गीतापर्व की समाप्ति होती है।
जिस प्रकार यजुर्वेद के 40 वें अध्याय को पृथक कर उसको ‘ईशोपनिषद्’ नाम दिया गया है, उसी प्रकार महाभारत के भीष्मपर्व से 18 अध्याय निकालकर उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता नाम दिया गया। विदुरनीति और शुक्रनीति नामक ग्रन्थ भी महाभारत से निकालकर ही अलग से बनाये गये हैं। गीता, विदुरनीति और शुक्रनीति के किसी भी प्रकाशक ने इनमें ग्रन्थों के रचयिता का नाम नहीं दिया है, जबकि ऐसा करना आवश्यक है।
गीता का वर्णन संजय द्वारा एक प्रकार से फ्लैश बैंक में किया गया है। भीष्म पितामह युद्ध में धराशायी हो गये हैं, संजय ने युद्धभूमि से लौटकर धृतराष्ट को यह समाचार दिया, तब धृतराष्ट्र ने उससे युद्ध की सारी स्थिति का सम्यक् वर्णन करने की प्रार्थना की, तो संजय ने सारा विवरण धृतराष्ट्र को सुनाया। भीष्मपर्व के 24 अध्यायों में संजय ने युद्धभूमि का विस्तृत विवरण सुनाने के बाद 25 वें अध्याय से गीता का प्रकरण प्रारम्भ किया है। भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के साढे 21 श्लोकों में दोनों ओर की सेनाओं की स्थिति का एक बार फिर से वर्णन कर फिर गीता का वर्णन किया है, जो 18 वें अध्याय के 73 वें श्लोक पर परिपूर्ण होता है। 73 वें श्लोक द्वारा अर्जुन घोषणा करता है कि उसका मोह नष्ट हो गया है और अब वह श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करेगा। उसके शब्द हैं- करिष्ये वचनं तव।
इस प्रकार गीता के आगे पीछे के श्लोकों को छोड़कर छ: सौ साढे सतसठ श्लोकों में कृष्णार्जुन संवाद संकलित है। सामान्यतया एक श्लोक में दो वाक्य समाहित हैं, कहीं कम और अधिक भी हैं, तब भी औसत इतना ही बैठता है । दोनों ओर की सेनायें युद्ध के लिये सन्नद्ध खड़ी हैं। दोनों ओर युद्धारम्भ में की जाने वाली शंखध्वनि की जा चुकी है। उस समय अर्जुन श्रीकृष्ण से दुर्योधन की सेनाओं के प्रमुख योद्धाओं को देखने की लालसा प्रकट करता है। तब श्रीकृष्ण रथ को रणभूमि के मध्य में खड़ा कर उसको वह सब दिखाते हैं। उन योद्धाओं में अपने निकट सम्बन्धियों, पुरखों, भाई-भतीजों आदि को देखकर अर्जुन को युद्ध से वितृष्णा होने लगती है और वह कहता है कि इनको मारकर मुझे विजय और राज्यसुख नहीं चाहिये। तब श्रीकृष्ण उसको समझाने का यत्न करते हैं। इस प्रकार रणभूमि के मध्य में उनका संवाद प्रारम्भ होता है, जो निरन्तर चलता रहता है और इसी प्रक्रिया में अर्जुन को प्रोत्साहित करने के लिये श्रीकृष्ण अपना विराट स्वरूप प्रदर्शित कर अर्जुन को दिखाते हैं कि ये सब योद्धा तो पहले ही मरे पड़े है, वे सब उनके मुख में समा रहे हैं। अर्जुन को समझाते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि इनको मारने से तुम किसी प्रकार पाप के भागी भी नहीं बनोगे।
अर्जुन श्रीकृष्ण का यह विराट रूप देखकर सन्तुष्ट हो गया और वह युद्ध के लिये भी प्रवृत्त हो गया। इस प्रसंग में यह विशेष उल्लेखनीय है कि श्रीकृष्ण ने कौरव पक्ष के योद्धाओं को तो अपने विराट मुख में समाते हुए दिखाया, किन्तु पाण्डव पक्ष के योद्धाओं को इस प्रकार अपने मुख में समाते हुए नहीं दिखाया। यदि वे अपने उस विराट मुख में अर्जुन के प्रिय पुत्र अभिमन्यु अथवा किसी अन्य प्रिय योद्धा को तथा युद्ध के अन्त में जब एक रात्रि में अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश का ही उच्छेद कर दिया, उस दृश्य को दिखा देते तो कदाचित् अर्जुन कभी भी युद्ध के लिये प्रवृत्त नहीं होता। अस्तु । यह विषय सम्यक् विवेचना चाहता है।
जैसा कि हमने पूर्व पंक्तियों में गीता के श्लोकों की संख्या और दोनों ओर की सेनाओं के युद्ध के लिये प्रवृत्त होने और शंखध्वनि किये जाने के बाद अर्जुन के विषाद उत्पन्न होने का विस्तार से वर्णन किया है, उसमें समाहित श्लोकों की संख्या पर यदि विचार किया जाये तो इस कार्य में सामान्यतया एक दिन से कम का समय नहीं लग सकता, जो कि उस समय की स्थिति को देखते हुए सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण द्वारा जिस विराट रूप का प्रदर्शन किया गया और अर्जुन भावविभोर होकर उस दृश्य को देखता रहा, उसमें भी समय तो लगा ही होगा। इतना ही नहीं, अपितु महाभारत भीष्मपर्व के अध्याय 23 श्लोक 2 के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- ‘दुर्गास्तोत्रमुद्गीथ’ । अर्थात् इस संकट की घड़ी में दुर्गास्तोत्र का पाठ करो। अर्जुन ने दुर्गास्तोत्र का पाठ किया, उसमें भी समय लगा होगा। समझ में नहीं आता कि यह महाभारत का युद्ध था कि मेले की ‘नूरा कुश्ती’ या क्रिकेट का ‘फ्रैंडली मैच’? इस प्रकार की घटनायें तो हमारे धर्मशास्त्रों पर अनास्था को आमन्त्रित करती हैं।
ऐसा माना जाता है कि आरम्भ में महाभारत में मात्र दस हजार श्लोक थे। किन्तु आज का महाभारत ग्रन्थ एक लाख के लगभग श्लोकों का उपलब्ध है। दस हजार श्लोक वाले महाभारत ग्रन्थ में गीता के कितने श्लोक होंगे, इसका अनुमान लगाने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। जिस प्रकार सभी पुराण ग्रन्थों एवं अन्यान्य अनेक ग्रन्थों में भी बहुत प्रक्षेप हुए हैं, उसी प्रकार महाभारत ग्रन्थ में भी बहुत प्रक्षेप हुआ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान में जिस रूप में ‘गीता’ का प्रसंग महाभारत में उपलब्ध है, वह यथार्थ नहीं हो सकता। यह सम्भव है कि युद्धारम्भ में युद्ध भूमि में विपक्ष की ओर खड़े अपने पुरुखाओं और निकट सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन को कुछ विषाद हुआ हो और उसने श्रीकृष्ण के सम्मुख उसे व्यक्त किया हो तथा तब श्रीकृष्ण ने उसका समाधान कर उसे सन्तुष्ट कर दिया हो। यह प्रकरण कुछ पलों में ही समाप्त हो गया होगा। किन्तु सात सौ श्लोकों की गीता का प्रकरण बुद्धि से परे है।
हमारी इस सुपुष्ट धारणा का वर्तमान हिन्दू अथवा कोई भी अन्य समर्थन कदाचित ही करे। तदपि फिर भी हमारा यही प्रश्न होगा कि क्या युद्धारम्भ के समय इतना लम्बा संवाद किसी प्रकार भी सम्भव है ? तथापि गीता को मान्यता आज विश्व भर में प्राप्त है, उसको भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हिन्दू ही नहीं अपितु इनसे इतर भी जितने सम्प्रदाय और समुदाय हैं उनके अधिकांश विद्धान गीता के विचारों के प्रति आस्थावान् हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती महाराज ने गीता को मान्यता देते हुए अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में एक प्रश्न के उत्तर में गीता के दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक को उद्धत किया है।
भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. श्री मोहम्मद करीम छागला आजीवन गीता के गीत गाते रहे हैं। उन्हें हमारे धर्मग्रन्थों पर असीम आस्था थी और उनकी मान्यता थी कि प्रत्येक भारतवासी फिर वह किसी भी सम्प्रदाय का हो, हिन्दू है।
इसी प्रकार भारत के निवर्तमान राष्ट्रपति (सन् 2002-07) डा.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘विंग्स आफ फायर’ में लिखा है कि वे गीता से बहुत प्रभावित हैं। वे निरन्तर विशेषतया कठिन परिस्थिति में गीता का अध्ययन करने पर सन्तुष्टि प्राप्त करते हैं और इससे उन्हें समस्या का समाधान प्राप्त हो जाता है।
समाजवादी माने जाने वाले श्री जार्ज फर्नाडीस आपातकाल में कारागार में गीता का अध्ययन करते रहे थे। वे भी समय-समय पर इसकी प्रशंसा में अपने मनोद्गार व्यक्त करते रहते हैं। ऐसे अनेक व्यक्ति सभी सम्प्रदायों में विद्यमान हैं जो गीता के प्रति श्रद्धावनत हैं।
इतना ही नहीं, अपितु गीता पर अनेक अध्ययन भी प्रकाशित हो चुके हैं। लोकमान्य श्री बालगंगाधर तिलक रचित गीता रहस्य जग-विख्यात है। उसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अंगे्रजी, उर्दू ही नहीं अपितु विश्व की अन्यान्य भाषाओं में गीता का अनुवाद और उस पर अध्ययन सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। संत बिनोवा भावे ने भी गीता पर मराठी में भाष्य लिखा है। भले ही गीता को वे आत्मसात् न कर सके हों। तभी तो श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा भारत पर थोपे गये आपातकाल की स्पष्ट शब्दों में निन्दा न कर उन्होंने ‘अनुशासन पर्व’ नाम देकर अपनी चमड़ी बचा ली।
भारत में सेतु समुद्रम् विवाद अपना प्रचण्ड रूप धारण कर ही रहा था कि इसी मध्य प्रयाग उच्च न्यायालय के एक निर्णय में गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने का आह्वान प्रकाश में आ गया। यद्यपि केन्द्र की सेक्युलर सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया और तभी सेतु समुद्रम् विवाद में केन्द्र सरकार कुछ इस प्रकार उलझी कि उसका उबरना अभी तक सम्भव नहीं हो पा रहा है। भारत के नागरिक ही नहीं अपितु सरकार के कुछ मन्त्रियों की ओर से भी सेतु समुद्रम् प्रकरण में सरकार की ओर से प्रस्तुत किये गये शपथ पत्रों पर अत्यन्त विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त हुई, तो सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत अपने दोनों शपथ पत्रों को वापस लेकर नया शपथ पत्र देने की घोषणा करनी पड़ी। यद्यपि विधि मन्त्री श्री हंसराज भारद्वाज ने गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करना स्वीकार नहीं किया किन्तु राम के अस्तित्व पर लगाये गये सरकार के प्रश्न चिह्न पर सारे सेक्युलरिस्ट औधे मुंह गिरते दिखाई दिये और इस कौलाहल में गीता प्रकरण तिरोहित सा हो गया।
ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। सेक्युलरिस्टों की रग-रग में हिन्दू का अपमान समाया हुआ है। इसका एक अन्यतम उदाहरण तब देखने को मिला था, जब भारत स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत सरकार द्वारा लंदन में प्रथम नियुक्त राजदूत अर्थात् उच्चायुक्त श्री श्रीप्रकाश ने लंदन की किसी बाइबल सोसाइटी के समारोह में बाइबल की प्रशंसा करते हुए बड़े भावुक होकर अपना आपा खोते हुए कहा, इस बाइबल पर हजार गीता न्यौछावर की जा सकती हैं। यह उनकी चाटुकारिता थी या कि बाइबल के प्रति श्रद्धा, कुछ भी हो दोनों भांति यह तो थी अनीति ही। - अशोक कौशिक
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