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वेदों में राष्ट्रीय एकता का सन्देश

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मुण्डकोपनिषद् में परा और अपरा नाम से विद्याओं का द्विविध विभाजन किया गया है। अपरा विद्या के अन्तर्गत ऋग्-यजु-साम-अथर्व इस वेद चतुष्टयी की गणना की गई है। परा विद्या उसे कहा गया है जो हमें अक्षर ब्रह्म का ज्ञान कराती है। वेदों को अपरा विद्या के अन्तर्गत परिगणित करने से उनके महत्व को न तो न्यून करके ही आंका गया है और न इससे उनके गौरव में ही कोई कमी हुई है। वेदों में अध्यात्म विद्याएँ तो अपने मूल रूप में मिलती ही हैं, मनुष्य के इहलौकिक और भौतिक विकास के अवेक उपयोगी सूत्र भी उनमें उपलब्ध होते हैं। मानव की वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक उन्नति के नानाविध उपदेश वेदों में यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। वेदों में राष्ट्र की कल्पना, राष्ट्र रक्षा के प्रयत्न, राष्ट्रोन्नति के उपाय, राष्ट्रीय एकता के संवर्धन आदि से सम्बन्धित प्रश्‍नों की विस्तार से चर्चा है तथा राष्ट्र के सभी घटकों में पारस्परिक समन्वय स्थापित करने के बहुविध उपाय सुझाये गये हैं।

इस दृष्टि से अथर्ववेद के वे मन्त्र हमारा ध्यान सहज ही आकृष्ट करते हैं जिनमें कहा गया है कि प्रजा का सुख और कल्याण चाहने वाले स्वर्गिक सुख को प्राप्त ऋषियों ने प्रथम तप और व्रतों का अनुष्ठान किया। तत्पश्‍चात् राष्ट्र भावना, राष्ट्रीय बल और ओज प्रकट हुआ। अतः यह आवश्यक है कि इस राष्ट्र-भावना, राष्ट्रीय शक्ति और ओज की पूर्ति तथा उसे स्थायी बनाने के लिए राष्ट्र के दिव्य नेता, देवतागण परस्पर मिलकर राष्ट्रार्चन हेतु एक-दूसरे को सम्मान दें तथा श्रद्धापूर्वक राष्ट्रदेव के समक्ष प्रणिपात करें। वेद में राष्ट्र की कल्पना भूमि माता के रूप में की गई है और राष्ट्रोन्नति के सर्वोत्कृष्ट उपायों को अथर्ववेद के भूमिसूक्त में प्रस्तुत किया गया है।

अथर्ववेद के 12 वें काण्ड का प्रथम सूक्त ही वेद का राष्ट्रीय गीत है, जिसमें मातृभूमि की अर्चना का माहात्म्य वर्णित है। जिस राष्ट्रीय एकता की हम प्रायः बात करते हैं वह उतनी सुगम नहीं है जितनी दिखाई पड़ती है। वस्तुतः राष्ट्रोन्नति के जिन सूत्रों को अथर्ववेद के इस भूमिसूक्त में वर्णित किया गया है, उनका राष्ट्र के नागरिकों के द्वारा धारण किया जाना आवश्यक है। ऐसा होने पर ही राष्ट्र की सुरक्षा और एकता की आशा की जा सकती है क्योंकि सत्य, ऋत, उग्रता, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ ही राष्ट्र के वे आधारभूत तत्व हैं जिनको सुनिश्‍चित कर हम अपनी राष्ट्रीयता को सुरक्षित कर सकते हैं।

राष्ट्रीय एकता को न तो केवल पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से ही बनाया जा सकता है और न सभाओं और समितियों में केवल बौद्धिक चर्चा करके ही उसे सुदृढ़ किया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि हम राष्ट्र के भौतिक स्वरूप और उसके विस्तार का निरन्तर चिन्तन करते रहें। इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए आलोच्य सूक्त में कहा गया है-
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः सम्बभूवुः।

विभिन्न समुद्रों और नदियों के जलस्रोतों को धारण करने वाली तथा नाना अन्नों को उपजाने वाली यह भूमि ही अपने निवासियों को भोज्य पदार्थ प्रदान करती रही है। अतः इस मातृभूमि के निवासियों को भी उसके सतत हितचिन्तन में रत रहना चाहिए। ‘माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः’ इस सूत्र को वेद ने निर्विवाद रूप में प्रस्तुत कर यह स्पष्ट कर दिया है कि चारों दिशाओं तक जिसका विस्तार है, जो धरती खेती के द्वारा हमें अन्न प्रदान करती है तथा जिस पर रहकर सभी प्राणी सचेष्ट होते हैं उसके प्रति हम अपने कर्त्तव्यों को जानें तथा तदनुकूल आचरण करें।

राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए राष्ट्र के गौरवमय अतीत से नागरिकों को अवगत कराना आवश्यक हो जाता है। अपने गरिमापूर्ण अतीत को स्मृतिपथ से ओझल कर यदि हम राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं तो वह एक दुःस्वप्न मात्र ही होगा। इसी अभिप्रायः को प्रकट करने वाला निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है-
यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन्।

जिस मातृभूमि की गोद में हमारे यशस्वी पूर्वजों ने नाना प्रकार के गौवरशाली कार्य किये और जहाँ सत्य, धर्म और न्याय की रक्षा में तत्पर देवताओं ने असत्य, अन्याय और अधर्म के पक्षपोषक असुरों को निरन्तर पराजित किया, वही धरती और उसका पुण्य स्मरण उसके निवासियों में ऐश्‍वर्य और तेज को धारण करता है।

अथर्ववेद के इस सूक्त में भूमि माता के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है वे भी इस तथ्य के द्योतक हैं कि धरती को केवल भौतिक द्रव्यों का समूह मात्र मान लेना ही पर्याप्त नहीं है। यह विश्‍वभरा और वसुधानी हैं। सबका आधार होने से इसे ‘प्रतिष्ठा’ कहा गया है। स्वर्ण आदि रमणीय पदार्थों को अपने भीतर रखने के कारण यह ‘हिरण्यवक्षा’ है और समस्त पदार्थों को अपने ऊपर बसाने वाली होने के कारण यह ‘जगतो निवेषनी’ है। राष्ट्रवासियों के भीतर उत्साहरूपी ऊर्जा और वैश्‍वानर अग्नि का स्रोत या आधार होने के कारण इसी धरती को ‘वैश्‍वानर बिभ्रती’ भी कहा गया है। राष्ट्र की सुरक्षा और राष्ट्र की एकता एक दूसरे पर अनिवार्यतः निर्भर है। यदि राष्ट्र की एकता में किसी प्रकार की ढील दी जाती है तो उसका परिणाम राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने वाले तत्वों को प्रोत्साहन देना ही होगा। राष्ट्र को असुरक्षित जानकर ही राष्ट्रघाती लोगों की बन आती है और वे देशवासियों में परस्पर विसंवाद की स्थिति उत्पन्न करते हैं जो अन्ततः राष्ट्र के विनाश का कारण बनती है। अतः अथर्ववेदीय राष्ट्रसूक्त की यह सुविचारित धारणा है कि मातृभूमि की रक्षा में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। इसके रक्षकों को हम देव नाम से अभिहित करते हैं और वे ही सदा सजग होकर इस धरती माता की रक्षा में सफल रहते हैं।
यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्‍वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम्।

राष्ट्र के इन जागरूक रक्षकों से रक्षित यह मातृभूमि ही हमें नाना प्रकार के मधुर रसों और वर्चस् को प्रदान करने में समर्थ होती है।

राष्ट्रीय एकता की एक अनिवार्य शर्त है भूमि माता से हमारा निकट का परिचय। स्पष्ट है कि राष्ट्रीय एकता न तो गोष्ठियों से सम्पन्न की जा सकती है और न इसे बैठकों के वाद-विवाद के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः राष्ट्र के नागरिकों को अपने राष्ट्र के नानाविध रूपों का चाक्षुष प्रत्यक्ष होना चाहिए। जिस विशाल नगपति को हम ने भारत जननी का हिमकिरीट कहा और जिसे हमने मातृभूमि का दिव्य भाल कहकर गौरवान्वित किया यदि उसके गगनचुम्बी हिमशिखरों को हमने प्रत्यक्ष नहीं देखा, यदि हम धरती के वक्षस्थल पर फैले सघन अरण्यों से परिचित नहीं हुए और मातृभूमि की उस मिट्टी की गोद में हमने क्रीड़ा नहीं की, जो बभ्रु, कृष्णा, रोहिणी, विश्‍वरूपा है तो राष्ट्र की एकता की बात हमारे लिए वाग्विलास होकर ही रह जाएगी। जिस राष्ट्र को हम जानते ही नहीं, उसकी एकता कैसे करेंगे?

वस्तुतः राष्ट्र के साथ राष्ट्रवासी एक प्रकार के निजत्व का बोध करते हैं। इस अन्नदायिनी भूमि के साथ उनकी आत्मीयता स्थापित हो जाती है। तभी तो हम इस जड़ धरती को माता कहकर पुकारते हैं। स्थूल दृष्टि से देखें तो मातृभूमि क्या है इसमें शिलाएं, पत्थर और धूल के कण ही तो हैं। पुनः यह धरती हमारे आदर और सम्मान का पात्र कैसे बन जाती है! बात सीधी सी है। पत्थर की शिलाओं और धूल मिट्टी का यह ढेर ही हमारी पूजा, आराधना और उपासना का पात्र तब बनता है जब हमारे राष्ट्रनेता उसका सम्यक् रूप से धारण पोषण कर उसमें राष्ट्र की आत्मा को स्थापित करते हैं। सा भूमिः संधृता धृता। सम्यक् प्रकार से शासित धरती ही हमारे अभ्युदय, विकास और उन्नति का कारण बनती है। अब यह धरती हमारे लिए पत्थरों और चट्टानों का ढेर न रहकर वन्दनीय मातृभूमि बन जाती है। हमारे साथ उसका आत्मिक सम्बन्ध जुड़ जाता है। उसकी रक्षा करने के लिए हमन अपनी जान की बाजी लगाने के लिये तैयार हो जाते हैं और स्वदेश गौरव को स्वाभिमान और अस्मिता के साछ जोड़ लेते हैं। इसीलिए इस हिरण्यवक्षा पृथ्वी का हम बार-बार नमन करते हैं और माता के रूप में उसकी वन्दना करते हैं।

मातृभूमि के साथ आत्मीयता का सूत्र जुड़ जाने पर ही जहाँ उसके पत्थरों और चट्टानों, उसकी धूल और मिट्टी को हम स्नेहसिक्त दृष्टि से देखने लगते हैं वहाँ उसके वक्ष पर उगे वक्षों, वनस्पतियों और लताओं से भी बन्धुत्व भाव स्थापित करते हैं। हमारे प्राचीन साहित्य से ऐसे शतश. उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ वृक्षों और लताओं को हमारे पूर्वजों ने अपने हमजोली, सखा और बन्धु के रूप में देखा और सम्बन्धित किया है। स्वदेश के प्रति निष्ठा का भाव कोई क्षणिक प्रवृत्ति नहीं है। इसे अस्थायी भाव के रूप में लेना उचित नहीं होगा। हम चाहे किसी स्थिति में रहें, स्वदेश की चिन्ता में ही हमें अपने प्रत्येक क्षण को व्यतीत करना है। इसी भाव का बोधक निम्न प्रश्‍न है-
उदीराणां उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः।
पद्भ्यां दक्षिणासव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूभ्याम्॥
हमारी मातृभूमि किसी भी स्थिति में हमसे न तो तिरस्कृत हो और न ही व्यथित हो।

वनस्पतियों की ही भाँति शुद्ध जल की पावन धारा प्रवाहित करने वाली यह धरती हमें स्वस्थ और पवित्र रखती है। राष्ट्र को सुरक्षा की बात पहले भी की जा चुकी है। इसके लिए निरन्तर सावधानी अपेक्षित है। राष्ट्रवासियों की पारस्परिक एकता की परीक्षा भी उसी समय होती है जब कोई आक्रमणकारी हमारे किसी दुर्बल छिद्र को देखकर अथवा हमें राष्ट्र रक्षा में असावधान पाकर किसी दिशा से हमारे देश पर आक्रमण करता है। हमारे देश का वर्तमानकालिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब पड़ोसी देशों ने हमारी मातृभूमि पर हमला किया है तब-तब इस देश के निवासी अपनी सम्पूर्ण विविधताओं और अनेकताओं को भूलकर फौलाद की दीवार की भाँति शत्रु के आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए तैयार हुए हैं। भूमि सूक्त का निम्न मन्त्र इसी अभिप्राय को प्रकट करता है।
मा नः पश्‍चान्मा पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।
स्वस्ति भूमे नो भव मा विदन्परिपन्थिनो वरीयो यावयावधम्॥
पूर्व और पश्‍चिम, उत्तर और दक्षिण किसी भी दिशा से हमें पीड़ा न हो। यह धरती हमारे लिए स्वस्तिदायिनी हो तथा मार्गावरोधक शत्रु हमें पीड़ित न करें। उनके द्वारा की गई हिंसा का निवारण करने में हम सफल हों।

रसगर्भा और नाना मूल्यवान धातुओं को अपने भीतर धारण करने वाली यह धरती हमारे राष्ट्र की समृद्धि का कारण है। धरती को खोदकर ही बहुमूल्य रत्न प्राप्त किये जाते हैं तथा कृषि कर्म के द्वारा वृक्ष वनस्पतियाँ उगाई जाती हैं। इसी भाव का द्योतक निम्न मन्त्र है-
यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
किन्तु हमारा खनन कार्य सीमा को पार न कर जाये। अन्यथा भूमि के गर्भ में स्थित सारे मूल्यवान पदार्थ एकबारगी ही समाप्त हो जायेंगे।
ओ3म् उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। उतागश्‍चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः॥ (अथर्व. 4.13.1)
हे दिव्यगुणयुक्त विद्वान पुरुषो! आप नीचे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाओ। हे विद्वानो! पतित व्यक्तियों को बार-बार उठाओ। हे देवो! अपराध और पाप करने वालों को भी ऊपर उठाओ। हे उदार पुरुषो! जो पापाचरणरत हैं, उन्हें बार-बार उद्बुद्ध करो, उनकी आत्मज्योति को जाग्रत करो। - डॉ. भवानीलाल भारतीय

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