शिवरात्रि
श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जाग्रति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
सर्वसाधारण के लिये जो रात सोने के लिये होती है, संयमी लोग उस रात में जागते हैं और सर्वसाधारण लोग जब जागते हैं, तब दूर तक देखने वाले ऋषि और मुनि विश्राम की रात मनाते हैं।
गीता का उक्त श्लोक टंकारा में डेमी नदी के तट पर स्थित शिव मंदिर में शिवरात्रि वाले दिन उस बालक मूलशंकर पर पूर्णतया चरितार्थ होता है, जो अन्य शिवभक्तों के सो जाने पर भी अकेला आधी रात में जाग रहा था। 14 वर्ष की आयु के उस किशोर के मन में कितनी उत्सुकता थी शिव के दर्शन की, कैसी-कैसी विचित्र कल्पनाएँ ऐर उद्भावनायें उस आयु के बालक के मन में हिलोरें ले रही होंगी, जो आयु न मुग्ध शैशव की है और न उद्दाम तरुणाई की। परन्तु उस आयु में मन में उठे तर्क-वितर्क और उनके पश्चात् निष्कर्ष रूप में गृहीत कोई संकल्प किस प्रकार मनुष्य को आपाद मस्तष्क झकझोर डालता है, इसका उदाहरण है उस बालक का भावी जीवन। बालक मूलशंकर दयाल जी के बचपन के नाम की सीमा को पार करते हुए जब बाल ब्रह्मचारी अवधूत दयानन्द बना, और इसके बाद ज्ञानियों और योगियों की खोज करते हुए संसार से विरक्त होकर संन्यासी बना तथा संन्यासी बनने के पश्चात् जिस प्रकार पुनः पूरे वेग और आवेग के साथ जीवनसंग्राम में कूद पड़ा, वह कठोर कर्म-संकुल जीवन शायद उस किशोरावस्था के संकल्प के बिना अपरिभाषित ही रह जाए। जिस संकल्प की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने सारे जीवन को दांव पर न लगा दे, वह संकल्प ही क्या हुआ ? ऋषि दयानन्द का सारा जीवन जैसे उस शिवरात्रि के दिन मन में अंकुरित दृढ़ संकल्प के वट वृक्ष की तरह ही उस संकल्प की व्याख्या के रूप में इतिहास में विराजमान है।
ऋषि दयानन्द को वेदोद्धारक, समाज सुधारक, राष्ट्रोदय की ज्वाला जगाने वाला तथा स्त्री जाति और दलितों के मसीहा आदि के रूप में न जाने कितने रूपों में स्मरण किया जाता है। परन्तु संक्षेप में यदि उस महापुरुष के जीवन की व्याख्या करनी हो तो एक वाक्य में यही कहा जा सकता है कि भारत की अस्मिता का वह प्रखर प्रहरी भारत के उस ‘स्व’ को उजागर करने वाला था, जिस स्व को स्वयं भारतवासी ही भूल चुके थे। जनसामान्य की तो बात ही छोड़ो, बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान भी आर्यावर्त के चिरकालीन अभिज्ञान से शून्य होकर परकीय अभिज्ञानों के माध्यम से अपना परिचय देने में अपने अस्तित्व की सार्थकता समझते थे। ऋषि दयानन्द ने जिस प्रकार स्वदेश, स्वधर्म, स्वभाषा स्वसंस्कृति और स्वराज पर बल दिया है, उस सबके मूल में केवल भारत के स्व को ही उभारने का प्रयत्न है। आश्चर्य होता है कि महापुरुषों की खान के रूप में प्रसिद्ध इस महादेश में अपनी प्रतिभा से संसार भर को चमत्कृत करने वाले सरस्वती के वरद पुत्रों की भले ही कमी न रही हो, परन्तु भारत के इस स्व को इतने उज्ज्वल रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है, तो वह शायद केवल मात्र ऋषि दयानन्द ही हैं।
यह कहकर हम अन्य महापुरुषों की अवहेलना या अवमानना नहीं करनाचाहते । परन्तु ज्यों-ज्यों विचार करते हैं त्यों-त्यों स्पष्ट होता चला जाता है कि अन्य महापुरुषों का अवदान प्रायः एकांगी रहा है। किसी ने केवल स्वराज्य पर जोर दिया, किसी ने केवल स्वधर्म पर, किसी ने केवल स्वभाषा पर और किसी ने केवल स्वसंस्कृति और स्वसाहित्य पर । भारतीय अस्मिता के इस पंचमुखी स्व को एक साथ समान रूप से महत्व देने वाला व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सिवाय और कौन है ? जिस शिवरात्रि के पर्व को ऋषि बोधदिवस के रूप में मनाया जाता है, वह केवल एक व्यक्ति का बोध नहीं है, वरन् समस्त राष्ट्र का बोध है। इसीलिये उसका महत्व है। अन्यथा ऋषि दयानन्द के लिये बहुत आसान था कि वे जग के जंजाल से पलायन करके हिमालय की किसी गुफा में बैठकर योगाभ्यास करते और केवल मोक्ष की साधना में ही दत्तचित्त रहकर अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते। जिस व्यक्ति को व्यक्तिगत मोक्ष साधना में भी स्वार्थ की गंध आती हो, उस व्यक्ति की परोपकार-परायणता को क्या कहा जाए! कितने ही मोक्ष-साधक इसी को परम पुरुषार्थ मानते हैं। वे एक तरह से अपने जीवन से यह प्रच्छन्न घोषणा करते हैं “संसार जाये भाड़ में, हमको अपनी मुक्ति से काम।’’
इस देश की एक विचित्र विशेषता यह है कि यहाँ के मनीषियों ने देवत्व की आराधना को अपना लक्ष्य बनाया है और उस देवत्व की आराधना के लिये उन्होंने नानाविधि तप और योगाभ्यास के द्वारा अपनी देह को साधा है। इसी देह के द्वारा देवत्व की आराधना और उसके लिये साधना का पूरा क्रम तैयार करना कोई सामान्य उपलब्धि नहीं है। वेदों ने इसीलिये इस शरीर को देव मन्दिर माना है, व्याधि मन्दिर नहीं। इसी शरीर को वेद ने देवपुरी और अयोध्या का नाम दिया है। इसी शरीर में सप्तऋषियों को प्रतिष्ठित माना है और इसी देह के माध्यम से देवत्व की आराधना करते हुए मानवता के आदर्श की स्थापना की है। परन्तु देह और देव की बीच एक कड़ी और भी है जिसकी ओर प्रायः मुमुक्षुओं ने ध्यान नहीं दिया। वह कड़ी है देश । भौतिक समृद्धि में चरम सुख देखने वाले केवल देह की उपासना करते हैं और वे देव को भूल जाते हैं। आध्यात्मिकता में रमण करने वाले देव के उपासक तो बने, पर वे देश को भूल गए। देह और देव के बीच में एक तीसरी कड़ी देश भी है, इस बात को कितने महापुरुषों ने पहचाना है ? यह बीच वाली कड़ी इतनी आवश्यक है कि यदि देश नहीं है, तो देह भी नहीं और देव भी नहीं। इस प्रकार देह, देश और देव इन तीनों की समान रूप से उपासना ही ऋषि दयानन्द के जीवन का उपदेश है।
शंकर के मूल तक पहुँचने का संकल्प बालक मूलशंकर ने किया था । उस संकल्प की परिणति जिस शिव के दर्शन में हुई, वह शिव कोई पाषाण प्रतिमा नहीं है। वह पुराणकल्पित कैलाशवासी शिव भी नहीं है। बल्कि वह भारत राष्ट्र ही असली शिव है। यह राष्ट्र जहाँ रुद्र के रूप में रौद्र रूप धारण करके असुरों का संहार करने वाला है, वहाँ अपने देशवासियों का कल्याण करने के लिये अपने मस्तिष्क से जीवनदायिनी गंगा प्रवाहित करने वाला शिव भी है। यही भारत रुद्र है, यही भारत शिव है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि ‘सब राष्ट्र के निवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाली मैं राष्ट्र की आत्मा हूँ।‘ इसी राष्ट्र की आत्मा का नाम ही राष्ट्रीयता है। जब तक किसी विशेष भूखण्ड के वासी एक स्वर से अपने देश की रक्षा के लिए सन्नद्ध नहीं होते, तब तक वह देश केवल एक जड़ भूखंड बना रहता है। परन्तु जब चेतन प्राणधारी देशवासी अपनी समस्त चेतना का नैवेद्य उस भूखण्ड को अर्पित करते हैं, तब उस भूखण्ड में प्राण प्रतिष्ठा होती है। तभी वह भूखण्ड राष्ट्र कहलाता है। भारत राष्ट्र भी तब तक केवल भौगोलिक भूखण्ड बनकर रह जायेगा, जब तक उसके निवासी अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उसकी रक्षा के लिये तैयार नहीं होंगे। बिना राष्ट्रीयता के राष्ट्र का अस्तित्व कहाँ है!
यह भी ध्यान रहे कि राष्ट्र किसी एक व्यक्ति का या किसी एक वर्ग विशेष का नहीं होता, बल्कि उस भूखण्ड के उन सभी निवासियों का होता है, जो उसको अपना समझकर उसके प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करते हैं। इस राष्ट्र की रक्षा का केवल एक ही उपाय है और वह यह है कि राष्ट्र का प्रत्येक निवासी यज्ञीय भावना से प्रेरित होकर अपने मन में इस मन्त्र का जप करे- इदं राष्ट्राय स्वाहा। इदं राष्ट्राय, इदं न मम । अर्थात् मेरा तन-मन-धन जो भी कुछ है सब राष्ट्र के लिये अर्पित है। यह मेरा नहीं, राष्ट्र का ही है।
राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति उस राष्ट्र का छोटा घटक है और वर्ग-विशेष सामाजिक रूप से व्यक्ति से कुछ बड़ा घटक है। परन्तु दोनों हैं घटक ही। राष्ट्र अवयवी है और राष्ट्र के निवासी उसके अवयव हैं। राष्ट्र अंशी है और राष्ट्र के निवासी उसके अंश हैं। अवयवी अवयव से हमेशा बड़ा होता है। अंशी हमेशा अंश से बड़ा होगा। राष्ट्र भी किसी व्यक्ति से या व्यक्तियों के समूहों से सदा बड़ा होगा।
परन्तु आज हमको उल्टा गणित सिखाया जा रहा है और यह कहा जा रहा है कि राष्ट्र बड़ा नहीं है, बल्कि उस राष्ट्र के घटक ही उस राष्ट्र से बड़े हैं। जब यह कहा जाता है कि अकाल तख्त सर्वोपरि है, तो उसका क्या अर्थ है ? उसका केवल एक ही अर्थ है कि समस्त गुरुद्वारों में उसकी स्थिति सर्वोच्च है। परन्तु यदि कोई अकाल तख्त को भारतवर्ष से बड़ा मानता है तो वह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ में न आने वाली बात है। आज अकाल तख्त सर्वोपरि है, कल कोई इमाम बुखारी जामा मस्जिद में बैठकर कहेगा कि जामा मस्जिद सर्वोपरि है। और परसों कोई तिरुपति का धर्माध्यक्ष यह घोषणा करेगा कि उसका मन्दिर सर्वोपरि है। अगले दिन कोई ईसाई अपने किसी चर्च में बैठकर यह घोषणा करेगा कि वही सर्वोपरि है। तो इन सब संकीर्णताओं के सामने राष्ट्र तो कहीं बचता ही नहीं।
जब हम भारतमाता की जय बोलते हैं तो भारतमाता कोई कल्पित देवी नहीं होती, बल्कि भारत के एक अरब जन ही असली भारतमाता हैं और भारतमाता की जय माध्यम से एक तरह से हम अपनी ही जय और अपनी मन ही की विजिगीषा की भावना प्रकट करते हैं। भारतमाता की जय बोलने वाले प्रत्येक भारतवासी से हम कहना चाहते हैं कि जब तक तुम सोए रहोगे, तब तक इस भारतमाता का भाग्य भी सोया रहेगा। तुम जागोगे तो इसका भाग्य भी जागेगा। शिवरात्रि का पर्व शिव को जगाने का और स्वयं जागने का पर्व है। इस देश को जड़ प्रतिमा की तरह केवल भौगोलिक भूखण्ड मात्र ही मत रहने दो। यदि तुम इस रौद्र रूपधारी रुद्र के और कल्याण रूपधारी शिव के रूप में भारत के उपासक हो तो शिव को जगाओ। शिव के जगाने का एक ही उपाय है कि शिव के उपासक जागें। भारत का जन-जन जागे, तो भारत राष्ट्र जागे। इस जागरण पर्व की बेला में शिव को जगाओ रे शिव के उपासको ! तुम्हारे बिना जागे यह शिव सोया ही रहेगा।
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