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विक्रमी सम्वत् ही सर्वश्रेष्ठ सम्वत्

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प्रत्येक देश में कालगणना और लोकव्यवहार की सिद्धि के लिये पृथक-पृथक् सम्वत् व सन् प्रचलित हैं। उनके प्रचलित होने की कथाएं एवं समय सीमाएं भी अलग-अलग हैं। कुछ सम्वत् जानकारी के लिए इस प्रकार से हैं :-
1. सृष्टिसम्वत् 2. कलियुगी सम्वत् 3. युधिष्ठिर सम्वत् 4. बुद्ध सम्वत् 5. विक्रमसम्वत् 6. शालिवाहन सम्वत् 7. ईस्वी सन् 8. चीनी सम्वत् 9. खताई सम्वत् 10. कालिदास सम्वत् 11. फारसी सम्वत् 12. मिश्री सम्वत् 13 गैरी सम्वत् 14. इब्राहिम सम्वत् 15. अस्पाटटा सम्वत् 16. मौसमी सम्वत् 17. दाऊदी सम्वत् 18. यूनानी सम्वत् 19. दाऊदी सम्वत् 20. नाबूसाटी सम्वत् 21. सिकन्दरी सम्वत् 22. मुहम्मदी सम्वत् 23. महर्षि दयानन्द सम्वत् आदि।

आर्यों के अति प्राचीन सृष्टि सम्वत्सर और विक्रमी सम्वत् का प्रारम्भ चैत्रमास की प्रतिपदा तदनुसार दिनांक 4 अप्रैल 2011 को होगा । सृष्टि सम्वत्सर इस समय 1960853112 लग जायेगा और विक्रमी सम्वत् 2068 लग जायेगा। ज्योतिष के ग्रन्थ ‘हिमाद्रि’ में एक स्थान पर लिखा है कि-
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा, ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति॥

अर्थात् चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन प्रतिपदा को सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत् की रचना की। इसी पक्ष के समर्थन में ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ ग्रन्थ में उल्लेख है-
लंकानगर्यां उदयाच्च भानौ, तस्यैव वारे प्रथमं वभूव।
मधोः सितादेर्दिनमास वर्ष युगादिकानां युगपत् प्रवृतिः॥

अर्थात् लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी के वार अर्थात् आदित्यपर्वम् (रविवार) में चैत्रमास शुक्लपक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष, युग आदि एक साथ आरम्भ हुए।

इस प्रकार ब्रह्मदिन, सृष्टिसम्वत्, वैवस्वत मन्वन्तरादि, सतयुगादिका आरम्भ, कलिसम्वत् और विक्रम सम्वत् आदि चैत्र सुदि प्रतिपदा को ही आरम्भ होते हैं। यही परिपाटी प्राचीनकाल से आर्यों के यहाँ प्रचलित रही है। जब भी नया सम्वत् आरम्भ होता था, उसी समय से आर्य लोग उसे धूमधाम से मनाते आए हैं।

महाराजा विक्रमादित्य का विक्रम सम्वत् भी उनके लोकोत्तर कायोर्र्ं के करने के कारण ही उनकी स्मृति में मनाया जाता है। सम्राट् विक्रमादित्य परम प्रतापी और सुप्रसिद्ध सम्राट थे। उन्हें शकारि भी कहा जाता है। जिस समय शकों ने भारत पर आक्रमण किया था, उस समय उज्जैन नगरी विक्रमादित्य की राजधानी थी। प्राचीन ग्रन्थों में इसका नाम उज्जयिनी तथा ‘अवन्ती’ भी लिखा हुआ मिलता है। महाराज विक्रमादित्य के समय यह नगर पूर्ण उन्नति पर था।

उज्जयिनी बहुत ही प्रसिद्ध नगर था। यहीं पर आचार्य सन्दीपनी के पास श्रीकृष्ण और सुदामा ने भी सम्पूर्ण शास्त्रों की विद्या पढ़ी थी। श्रीकृष्ण ने अपने गुरु सन्दीपनी आचार्य से ही ‘सुदर्शनचक्र’ प्राप्त किया था। ऐसी गौवरशाली नगरी के सम्राट् थे महाराज विक्रमादित्य। ये परमार वंश के थे। राजा भोज भी इसी वंश के राजा थे। जो बहुत ही विद्याप्रिय राजा थे। महर्षि दयानन्द ने राजा भोज की विद्याप्रियता की प्रशंसा की है। राजा भोज के समय ही प्रसिद्ध कवि कालिदास भी उनकी सभा में विराजमान होते थे। कवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् तथा विक्रमोर्वशीय और मेघदूत आदि संस्कृत काव्यों की रचना की थी।

यही उज्जैन नगरी विक्रम की राजधानी थी। उनके आधीन छः सौ राजा तथा रईस थे। वे बहुत ही परोपकारी भी थे, उन्होंने एक बार अपने राज्य के सभी कर्जदारों का कर्ज अपनी ओर से चुकाया था। वे सम्राट क्षिप्रा नदी के किनारे स्नान के लिए जाते थे। स्वयं जल भरकर भी लाते थे। वे इतने बड़े सम्राट् होने पर भी एक साधारण सी चटाई पर सोते थे। क्षिप्रा नदी के किनारे पर कई बार एक झोंपड़ी में बैठकर ही ईश्‍वरभक्ति किया करते थे। वे राज्य के कोष से अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए कभी एक कौड़ी भी नहीं लेते थे।

उनके समय में देश पर शकों ने एवं हूणों ने भी हमला किया था। सम्राट् ने अपने सैन्य बल से उन्हें मार-मारकर देश से बाहर कर दिया था। आन्तरिक सुरक्षा के लिए अपने अंगरक्षकों के साथ सम्राट् रात्रि को घोड़े पर सवार होकर घूमते थे। कोई दुःखी न हो इसकी जांच करते थे।

उस समय सम्राट् के मन्त्रीमण्डल का नाम ‘देवमाला’ होता था। मन्त्री अत्यन्त सावधानी के साथ कार्यभार सम्भालते थे। प्रजा सब प्रकार से सुखी थी। डाकू, चोर, अपहरण, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार का नाम न था।

ऐसे थे सम्राट् विक्रमादित्य। इसलिए ही विक्रमादित्य की स्मृति में यह आर्य राष्ट्र का सम्वत् सदा ही चलता रहेगा। यह विक्रम सम्वत् ही सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय सम्वत् है। - सुखदेव शास्त्री

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