उधड़ी जीन्स की निक्कर, हाथों में सुलगती सिगरेट, बिखरे बेतरतीव बाल, उल्टी टोपी, एक कान में बाली पहले एक युवक तथा ऊंची एड़ी की सैंडिल, आंखों पर रंगीन चश्मा, शरीर को ढांपते कम दिखाते अधिक उत्तेजक वस्त्र पहने एक युवती। यह कोई इग्लैण्ड या अमेरिका के युवाओं का वर्णन नहीं है। ये तो आज के भारतीय युवा हैं। जी हाँ! अपने वाले भारतीय युवा। पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति में आकण्ठ डूबे तथा भारतीय संस्कृति और सभ्यता से बिल्कुल अनजान ये हैं आज के युवा, जिन्हें इतना भी मालूम कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति कहते किसे हैं ?
चलिए अब आपको लिए चलते हैं देश की राजधानी दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित कॉलेजों एवं स्कूलों में, जहाँ आज की पीढ़ी तथाकथित ‘शिक्षा‘ प्राप्त कर रही है। एक ओर दो लड़के माइकल जैक्शन तथा मैडोना की प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ लड़कियां एक पाश्चात्य फिल्म की कहानी पर चर्चा कर रही हैं। एक कोने में एक युवा युगल सबसे बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया है, तो कैरीडोर में युवाओं का एक समूह विदेशों में रोजगार के अवसरों पर गर्मागर्म बहस कर रहा है। इसी प्रकार एक जाने-माने पब्लिक स्कूल में सोच-विचार, आचार-व्यवहार, खान-पान, बातचीत में पाश्चात्य रंग में डूबे काले अंग्रेज विचरण करते दिखाई पड़ते हैं। उनके व्यवहार में धृष्टता की हद तक पहुंचा हुआ खुलापन एवं स्वछन्दता है।
विश्व की प्राचीनतम तथा महानतम सभ्यताओं तथा संस्कृतियों में से एक भारतीय संस्कृति के मूल आधार हैं- अहिंसा परमोधर्मः, सत्यमेव जयते, अतिथि देवो भव, वसुधैव कुटुम्बकम्, तेन त्यक्तेन भुंजीथाः, आदि सिद्धान्त वाक्य। भारतीय संस्कृति ने सदैव ‘स्व’ से पहले ‘पर’ को महत्व दिया। समाज कल्याण के लिए दधीचि द्वारा हड्डियाँ त्याग देना, राजा शिवि द्वारा कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस काटकर चढ़ा देना, कर्ण द्वारा अपने कवच कुण्डल दान दे देना, राजा हरिश्चन्द्र द्वारा प्रतिज्ञा पालन के लिए सर्वस्व बलिदान कर देना आदि उदाहरण भारतीय सभ्यता और संस्कृति की समृद्धि तथा महानता के परिचायक रहे हैं। परन्तु आज की युवा पीढ़ी इन सबसे अनभिज्ञ है। वह इनके सम्बन्ध में जानना भी नहीं चाहती है।
शैलेन्द्र बीकॉम द्वितीय वर्ष का छात्र है। उसके अनुसार “इन सब पुरानी दकियानूसी बातों को जानने से क्या लाभ? समय के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए। आज हमें 21वीं सदी की ओर बढ़ना है, न कि 18वीं सदी की ओर लौटना है।’’ कुमारी शालू बारहवीं की छात्रा है। वह यह तो मानती है कि भारतीय संस्कृति श्रेष्ठ तथा महान थी। परन्तु आज उसे पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति ज्यादा आकर्षक लगती है। कहती है कि “भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति बात-बात पर टोकती है, उपदेश देती है, किसी बूढ़े के समान परम्परावादी और संकीर्ण विचार वाली है। जबकि पश्चिमी सभ्यता अधिक उदार तथा खुलापन लिए है। उसमें युवाओं की भांति जोश है। चाहे वह संगीत का क्षेत्र हो या नृत्य का, लड़के-लड़कियों की मित्रता की बात हो या पहनावे की। इसलिए एक तालाब है तो दूसरी बहती नदी।’’
आज के युवाओं की यह सोच जहाँ उनके अरिपक्व मस्तिष्क की देन है, वहीं जवानी का जोश भी है, जिसमें होश नहीं होता। फिर चारों ओर समाज में भी भौतिकवादी मानसिकता पनप रही है, प्रचारतन्त्र का विषधर मन-मस्तिष्क में कुण्डली मार रहा है। उसका प्रभाव भी इन विचारों पर स्पष्ट प्रकट होता है। आज की शिक्षा व्यवस्था केवल डिग्री डिप्लोमा दिलाती है। मस्तिष्क के विकास, चरित्र के उन्नयन, व्यक्ति के निखार से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज साक्षर तो बहुत हैं, परन्तु ज्ञानवान, चिन्तक तथा सहृदय विचारवान बहुत कम हैं। आज की शिक्षा मात्र नौकरी पाने का साधन है, श्रेष्ठ मनुष्य बनाने का नहीं। आज भी शिक्षा उसी ढर्रे पर चल रही है, जिस पर अंग्रेजों ने उसे चलाया था। आजादी के बाद इसमें जो परिवर्तन होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आज का युवा अपनी जड़ों से कटा हुआ है। वह सब कुछ है परन्तु अहिंसा, त्याग, सत्य, न्याय, दया, प्रेम, करुणा, परोपकार, अतिथि सत्कार से उसे कोई सरोकार नहीं है तथा माता-पिता-गुरु का सम्मान, मानव मात्र के प्रति प्रेम आदि भारतीय सिद्धान्तों, आदर्शों और जीवन मूल्यों से वह बिल्कुल अनभिज्ञ है।
शिक्षा के स्वरूप के अतिरिक्त वे कौन से अन्य कारण हैं, जो आज के युवा को भारतीयता से दूर ले जा रहे हैं? इनमें निःसन्देह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, आज के संचार माध्यम। टेलीविजन, केबल टी.वी., वीडियो, पत्र-पत्रिकाएं आदि विभिन्न संचार माध्यमों ने भारतीय समाज में जागरूकता तो उत्पन्न की है, परन्तु उसे उसके मूल से नहीं जोड़ा। इसीलिए यह जागरूकता नकारात्मक अधिक साबित हुई, सकारात्मक कम। इन संचार माध्यमों ने पाश्चात्य चकाचौंध से प्रभावित होकर सम्पूर्ण भारतीय समाज के समक्ष एक अनैतिक तथा उच्छृंखल संस्कृति परोसी है, जो हिंसा, नग्नता और अश्लीलता की चासनी से सराबोर है। आज घर-घर में दूरदर्शन तथा केबल टी.वी. की पहुंच ने उस सामाजिक माहौल को बिगाड़ दिया है, जो भारतीय श्रेष्ठता का मापदण्ड था। आज बालक जन्म से ही द्वेष, हिंसा, अपना-पराया के संस्कार ग्रहण करता है। अपने आसपास के वातावरण के प्रभाव से बड़ों के सम्मान, अतिथि तथा विद्वानों के सत्कार, सच्चरित्र, सदाचार, मानवीयता जैसे शाश्वत तथा उदात्त जीवन मूल्यों से रहित होता जा रहा है। ऐसे में यदि वह बालक भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से विमुख होता जाए तो इसमें दोष किसका है?
क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं है? क्या हम यूं ही पतन के गर्त में गिरने के लिए अभिशप्त हैं? नहीं! परिवर्तन संभव था, है और रहेगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बड़े लोग बच्चों के सम्मुख एक ऐसा आदर्श ऐसा प्रस्तुत करें, जिसे वे अपना सकें। दूसरों को सुधारने के उपदेश देने की अपेक्षा हम स्वयं को सुधारें । कबीर जी के शब्दों में- “जो मन खोजा आपना, मुझसा बुरा ना कोय।’’ जब तक माँ-बाप को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की वास्तविकता, महानता, गौरव का ज्ञान नहीं होगा, वे बच्चों को क्या सिखाएंगे? यह सामूहिक प्रयास प्रत्येक व्यक्ति निजी तौर से शुरू करे। हम शिक्षा में परिवर्तन की बात करते हैं। यह परिवर्तन कौन करेगा? बच्चे स्वयं तो नहीं करेंगे। बच्चों को जो सामग्री पढ़ने के लिए हम विद्यालयों, महाविद्यालयों में देंगे, जैसा साहित्य हम लिखेंगे-छापेंगे, वही तो वे पढ़ेंगे। हिंसा, अश्लीलता, नशा, असत्य-भाषण् जैसी बुराइयों को जब तक हम स्वयं नहीं त्यागेंगे, बच्चे उनसे दूर कैसे रहेंगे?
प्राचीन महापुरुषों, राष्ट्रभक्तों, पौराणिक आदर्शों की कहानियाँ, वर्तमान संदर्भों में ढालकर, बच्चों तथा युवाओं को पढ़ने के लिए दी जानी चाहिएं। इसी से उन्हें नैतिक शिक्षा, उदात्त भावनाएं तथा श्रेष्ठ जीवन मूल्य मिलेंगे। पाश्चात्य चकाचौंध के पीछे की असलियत को हम खुद पहचानें तथा अगली पीढ़ी को दिखाएं, तो परिवर्तन अवश्य ही संभव है। मांसाहार, नशा, पारिवारिक विघटन, ऊल-जलूल फैशन की हानियां यदि हम बच्चों को बताएं तो क्या वे नहीं समझ पायेंगे? यह प्रक्रिया कठिन एवं श्रमसाध्य अवश्य है, परन्तु असंभव नहीं है। आज के युवाओं में व्याप्त असुरक्षा की भावना, कृत्रिम जीवन शैली, ब्राह्याडम्बर की अधिकता, भौतिकवादी दृष्टिकोण आदि को दूर करने के लिए आवश्यक है कि उन्हें भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के मूल सिद्धान्तों कर्म का सिद्धान्त, पुरुषार्थ, आध्यात्मिक उन्नति, विश्वबन्धुत्व विश्व कल्याण आदि से परिचित कराया जाए।
आज जब संपूर्ण पाश्चात्य जगत् अपनी भौतिक उन्न्नति, आर्थिक उत्कर्ष तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों के दुष्परिणामों से परिचित होकर सच्चे सुख तथा शान्ति की तलाश में भारत की ओर टकटकी लगाए देख रहा है। ऐसे में हमारी युवा पीढी में व्याप्त भटकाव और भी चिंताजनक हो जाता है। इससे पहले कि हम ठोकरें खाकर गिरें, हमें संभल जाना होगा। युवा पीढ़ी को सही मार्ग पर लाने का उत्तरदायित्व प्रौढ़ पीढ़ी पर है, जो आज प्रशासक, मंत्री या उद्योगपति बनकर समाज को चला रही है। युवाओं की इस समस्या का समाधान केवल सरकारी प्रयासों से संभव नहीं है। हमें पारिवारिक तथा सामाजिक स्तर पर प्रसास करना चाहिए। आज आवश्यकता एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की है, जो भारत के उत्कर्ष का जयघोष विश्व में पुनः कर सके। आज हमें अपने रहन-सहन, व्यवहार, भाषा तथा समग्र जीवन शैली में घुस आए इस पाश्चात्य प्रभाव को परिवर्तित करना होगा, जो हमारी जड़ों को काट रहा है तथा हमें अपनी संस्कृति-सभ्यता एवं परम्परा से धीरे-धीरे जुदा कर रहा है और हमें धोबी के कुत्ते की स्थिति में ले जा रहा है, जो न घर का होता न घाट का। - डॉ. रवि शर्मा
Indian Culture and Youth | Today's Indian Youth | Western Civilization and Culture | Dexterity in Behavior | Openness and Complexity | Materialistic Mentality | Non Violence is the ultimate Religion | Satyameva Jayate | Guests are like God | Vasudhaiva Kutumbakam | Ten Tyaktan Bhujinatha | Sacrifice for Pledging | Unethical and Disorderly Culture | Criteria of Indian Superiority | Job only Making Tool |Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Khalilabad - Virudhunagar - Vadia | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Khamanon - Visavadar - Vadodara | दिव्ययुग | दिव्य युग