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विचित्र परम्परा का पर्व होली

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चौराहे पर धू-धूकर होली जल रही थी। चारों और फैले हुए युवक एक दूसरे को गोबर और कीचड़ से पोत रहे थे। निकलने वालों पर कीचड़ फेंक रहे थे और गाली भरे शब्दों में उन पर न मालूम क्या-क्या फबती कस रहे थे। एक दूसरे का मुँह काला करते हुए उन्हें भद्दे शब्दों से सम्बोधित कर रहे थे। आसपास की गलियों में स्त्रियाँ, लड़कियाँ और बच्चे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे थे और गुलाल उछालते जा रहे थे। लाल, पीले, हरे रंगों में रंगे-पुते बच्चे बड़े अच्छे लग रहे थे। तटस्थ के मन में प्रश्‍न उभरा-
गाली गलौच के कीचड़ से, किसने भर दीं गलियाँ ?
रंग-गुलाल की बौछारों से, किसने रंग दी गलियाँ ?
“होली है, बुरा न मानो, सब कुछ चलता है, गाली भी गीत भी, कीचड़ भी, रंग भी, गोबर भी, गुलाल भी’’ भीड़ ने उत्तर दिया।

पौराणिक लोककथा के अनुसार, असुरराज हिरण्यकश्यप स्वयं को सर्वशक्तिमान मानता था, ईश्‍वर को नहीं। उसी का पुत्र प्रहलाद अपने पिता की मान्यता के विपरीत भगवान को ही सर्वशक्तिमान मानता था। इसी पर विवाद चलता रहा, परन्तु जब प्रहलाद अपनी मान्यता पर डटा रहा तो हिरण्यकश्यप ने अपने ही पुत्र को मार्ग से हटा देने का निश्‍चय कर लिया। उसने प्रहलाद को मारने के कई उपाय किए, यहाँ तक कि उसे एक बार पहाड़ से नीचे फिंकवा तक दिया, परन्तु प्रभु ने उसे वहाँ भी बचा लिया। उसने प्रहलाद को मारने का एक नया उपाय सोचा। उसकी बहिन जिसका नाम होलिका था, वह अग्नि स्नान करती रहती थी। आग उसे जला नहीं सकती थी। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को होलिका की गोद में बिठाकर जलाने की सोची। निर्णयानुसार होलिका को वेदिका पर बिठाया गया। गोद में प्रहलाद को बिठाया। आसपास कण्डे, लकड़ियाँ जमाकर चिता तैयार की गई। चारों ओर स्त्री-पुरुष एकत्र होकर उस दृश्य को देखने लगे। चिता जलाई गई। आग की लपटें उठने लगी। असुर वर्ग बालक प्रहलाद को जलते देखने के लिए उत्सुकता से आग की लपटों को देख रहे थे। कुछ स्त्री-पुरुष मौन थे। किन्हीं की आँखों में अश्रु की बून्दें झलकने लगी। कुछ स्त्रियाँ वहाँ से दूर जाकर बैठकर सिसकने लगीं।

समय बीता, आग की लपटें तेज होती गई और होलिका तथा बालक को आच्छादित कर लिया। लम्बे समय के पश्‍चात् लपटें धीमी होने लगी। दर्शकगण दौड़कर आग के चारों ओर आकर परिणाम को जानने के लिए देखने लगे। अग्नि की कोप दृष्टि ने होलिका को अंगारों में बदल दिया। अंगारों भरी वह गोद प्रहलाद के लिए कमल पुष्पों की गोद बन गई थी। उस पर प्रभु की कृपादृष्टि की वर्षा हो रही थी। वह मुस्कुराता हुआ बैठा दिखाई दिया।

होलिका के इस प्रकार अन्त को देखकर हिरण्यकश्यप ‘आह, होलिका!’ कहते हुए वहाँ से चला गया। बालक प्रहलाद को मुस्कुराते हुए देखकर कुछ पुरुषों और स्त्रियों के मुखों पर भी मुस्कुराहट आ गई और वे जोर-जोर से ‘भक्त प्रहलाद की जय’ बोलने लगे। इस दृश्य को देख व जयकार सुनकर असुर-दल खीज गया और जोर-जोर से चिल्लाते हुए उन पर राख, धूल, कीचड़ फेंकते हुए गालियाँ देने लगा।

भक्तगणों ने प्रहलाद की रक्षा को भगवान की कृपादृष्टि की वर्षा माना और होलिका के दहन को प्रभु की क्रोधाग्नि का कारण समझकर वे ‘भगवान विष्णु की जय’ बड़े उत्साह से बोलने लगे। स्त्रियाँ दौड़कर रंग-गुलाल ले आईं और एक दूसरे पर रंग डालने और गुलाल लगाकर प्रसन्नता प्रकट करने लगी। स्त्री-पुरुष सभी आनन्द के वातावरण में सराबोर हो गए। सभी मिलकर गीत गाने लगे और प्रभु की जय-जयकार करने लगे। गाते-बजाते भक्तगण भक्ति के रस में तल्लीन हो गए।

दूसरी और असुरगण भक्तों को गालियाँ देते हुए कीचड़ फेंकने लगे। गाते-बजाते भक्तगण दूर निकल गए। एक युवक ने हाथ के संकेत से एक स्थान पर रोककर शान्त रहने का निवेदन किया। शान्ति के पश्‍चात् युवक ने बोलना प्रारम्भ किया- “आज हमने भक्ति की शक्ति को प्रत्यक्ष देख लिया है। भक्त, प्रभु के हाथ की शक्ति रूपी गदा (वज्र) बन जाता है। वह पूर्ण निडर हो जाता है, प्रहलाद की भांति। उसे कोई मार नहीं सकता। वह निडर होकर भक्ति में लीन हो जाता है। प्रभु भक्त के रक्षक होते हैं। प्रभु द्वारा भक्त प्रहलाद को संरक्षण प्रदान करने की आज की घटना को हम युग-युग के लिए प्रेरणादायी बना देना चाहते हैं। भक्त प्रहलाद को प्रभु द्वारा संरक्षण प्रदान करने की आज की घटना को भक्ति की प्रेरणा के रूप में स्वीकार करते हैं। आज के इस दिन को प्रतिवर्ष ‘होलिका-पर्व’ के रूप में मनाते रहने की हम प्रतिज्ञा लेते हैं।’’ हाथ उठाकर तथा जयकार करते हुए सभी स्वीकार करते हैंकि ’’इस दिन हम होलिका दहन करेंगे और रंग-गुलाल उड़ाकर आपसी प्रेमभाव को प्रकट करेंगे। इसी के साथ हम सब मिलकर जिनके परिवार में मृत्यु हुई है, उनके घर जाकर उन पर रंग-गुलाल डालकर उनके शोक-सन्ताप को दूर करेंगे। धूल-कीचड़ उछालने और गालियाँ बकने की आसुरी प्रवृत्ति का हम भरपूर विरोध करते हैं। यह तो भक्ति की प्रेरणा का पर्व होगा। रंग-गुलाल, भजन-कीर्तन की परम्परा ही वरेण्य होगी।’’ होलिका-पर्व की यही परम्परा आज तक चली आ रही है। - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी

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