धर्म शब्द घृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है, सम्भाले रखना या मिलाना, जोड़ना । क्योंकि धर्म से ही सारी प्रजा एक दूसरे के साथ मिली हुई, जुड़ी हुई है । अत: जो सबको मिलाए रखे, सम्भाले रखे, उसी को ही धर्म निश्चित रूप से समझो ।
धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृता:प्रजा: ।
तस्माद् धारणमित्युक्तं स धर्म इति निश्चय:॥ महाभारत शान्ति पर्व 110,11
नाश्रम: कारणं धर्मे क्रियमाणो भवेद्धि स: । याज्ञवल्क्य स्मृति 3.65
मनुस्मृतिकार ने धर्म शब्द से अभिहित होने वाले अर्थों में से आचरण को मुख्य माना है । प्रथम अध्याय के अन्तिम श्लोकों में आचरण को ही धर्म का सार, मूल कहा है 1. और स्पष्ट रूप से संकेत किया है कि आचरण के बिना धर्म के अन्य अंग फलदायक नहीं होते हैं । अत: यदि हम सच्चे अर्थों में धार्मिक बनना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम अपने आचरण की ओर ध्यान देना होगा, तभी हम धर्म के पूरे फल 2. को प्राप्त कर सकते हैं । महर्षि मनु ने धृति, क्षमा आदि के रूप में सामाजिक व्यवहारों को ही धर्म कहा है 3. तथा इनको सभी के लिए अनिवार्य बताया है 4. । क्योंकि इनकी सभी को समान रूप से जीवन में पग-पग पर जरूरत होती है । धर्म का यही ऐसा रूप है, जिसके सम्बन्ध में सभी विचारों के लोग समान रूप से सहमत हैं और सभी मतों में इनको समान रूप से स्वीकार किया गया है 5. । योगदर्शनकार ने यम-नियम के रूप में मनुस्मृति जैसे धर्म के तत्त्वों को सार्वभौम महाव्रत कहा है 6. अर्थात ये बातें ऐसी हैं, जिनको सारी धरती पर समान रूप से सभी स्वीकार करते हैं । महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास के अन्तिम भाग में इस बात का समर्थन करते हुए एक जिज्ञासु को क्रमश: सभी मत वालों के पास भेजा है और अन्त में इससे यही परिणाम दर्शाया है कि जिन बातों में सभी सहमत हैं, वे सच्चाई, संयम, स्नेह आदि ही धर्म हैं । इसी दृष्टि से यह सारा प्रकरण पठनीय है, पुनरपि ये पंक्तियाँ विशेष पठनीय हैं - “ देख ! जिस बात में ये सहस्र एकमत हों वह ग्राह्य है और जिसमें परस्पर विरोध हो वह कल्पित, झूठा, अधर्म, अग्राह्य है ।’’
अत:इस प्रकरण का सार यही है कि धर्म का मुख्य अर्थ आचार ही है । तभी तो महर्षि ने गोकरुणानिधि में लिखा है कि “हम तुमसे पूछते हैं कि धर्म और अधर्म व्यवहार ही से होते हैं या अन्यत्र ? तुम कभी सिद्ध न कर सकोगे कि व्यवहार से भिन्न धर्माधर्म होते हैं।जिस-जिस व्यवहार से दूसरों की हानि हो वह-वह अधर्म और जिस -जिस व्यवहार से उपकार हो वह-वह धर्म कहाता है ।’’
हाँ, धर्म का सीधा अर्थ है- धारण, पालन, अपनाना अर्थात व्यवस्था । व्यवस्था सदा अपने-अपने क्षेत्र (प्रकरण) के अनुसार होती है । अत: जहाँ की जो व्यवस्था, मर्यादा, सच्चाई, नियम है, वह वहाँ का धर्म है। जैसे कि राज्य-प्रशासन का जो धर्म=व्यवस्था, मर्यादा, नियम, नीति है, वही राजनीति ही राजधर्म है । भारत के स्मृति ग्रन्थों में इस क्षेत्र के लिए इसीलिए राजधर्म शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसको आजकल राजनीति कहा जाता है । हाँ, क्षेत्र-क्षेत्र की व्यवस्था अलग-अलग होने से ही धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। अत: यह बोलने वाले ही इच्छा और प्रकरण पर निर्भर करता है कि कहाँ,किस दृष्टि से धर्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है । ( क्रमश: ....)
सन्दर्भ-
1. आचार: परमो धर्म: श्रुत्युक्त: स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विज:॥ मनुस्मृति 1.108
वेदों और स्मृतियों में बताया गया आचार ही श्रेष्ठ धर्म है । अत: अपना भला चाहने वाले व्यक्ति को सदा सदाचार के पालन में लगा रहना चाहिए अर्थात आत्मगौरव और विकास के अभिलाषी को सर्वदा सदाचार का पालन करना चाहिए ।
आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते ।
आचारेण तु संयुक्त: सम्पूर्ण फलभाग्भवेत् ॥ मनु.1.109
आचाररहित (ब्राह्मण) बुद्धिमान वेदपाठ के फल को प्राप्त नहीं करता अर्थात केवल धर्मग्रन्थ पढने से कुछ हाथ नहीं लगता । अपितु पढे हुए के अनुकूल आचरण करने वाला ही वेदपाठ, जप आदि (कर्मकाण्ड) के सारे फल को प्राप्त करता है । जो उस पढे हुए पर आचरण नहीं करता, केवल पाठ आदि का दिखावा करता है उस प्रदर्शन, आडम्बर को पाखण्ड माना जाता है तथा उसकी सब निन्दा ही करते हैं ।
2. एवमाचरतो दृष्ट्रवा धर्मस्य मुनयो गतिम् ।
सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहु:परम् ॥ मनु.1.110॥
इस प्रकार धर्म के आचरण से ही धर्म की सफलता, पूर्णता, निस्तारा देखकर विचारशील अन्त में इसका यही सार समझते हैं कि सभी प्रकार की तपस्याओं का मूल आचार ही है अर्थात् धर्म का निर्णय आचरण से ही होता है । तभी तो कहा है - धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रित: ॥ (मनु.4.115) बिना आलस्य के धर्म के मूल=आचार का सदा पालन करे । आचरण के महत्त्व की दृष्टि से ही तो कहते हैं- आचारहीनंनपुनन्ति वेदा:। अर्थात नि:सन्देह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को पवित्र बनाने वाला सन्देश देने के कारण वेद हर तरह से पवित्र बनाने वाले हैं, फिर भी ऐसे पावक वेद भी आचरण हीन को पवित्र नहीं करते । इसी प्रकार मनुस्मृति में भी आचरण का अच्छा और दुराचरण का बुरा परिणाम बताया गया है । ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति (ऋग्वेद 4.23.8) में कहा है कि सत्य के धारण से ही बुराइयां दूर होती हैं । ऐसे वाक्यों में प्राय: आचरण पर ही जोर दिया गया है ।
3. धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ मनु. 6.72॥
धृति= धैर्य, धीरज, सब्र, सहनशीलता । क्षमा= किसी के अपराध को माफ कर देना, बदला न लेना । दम= मन को काबू में रखना । अस्तेय= बिना पूछे किसी की चीज न लेना, चोरी न करना । शौच= पवित्रता, सफाई। इन्द्रियनिग्रह= इन्द्रियों को वश में रखना । धी= बुद्धि, समझदारी । विद्या= आत्मज्ञान । सत्य=सचाई । अक्रोध= क्रोध न करना, किसी को मन-वचन-कर्म से कष्ट न देना, हिंसा न करना ।
4. चतुर्भिरपि चैवैतै नित्यमाश्रमिभिर्द्विजै: ।
दशलक्षणको धर्मस्सेवितव्य: प्रयत्नत:॥ मनु 6.91 ॥
विद्यार्थी, कारोबारी, विश्रामप्राप्त, ध्यानी आदि सभी तरह के लोगों को इस दश प्रकार के धर्म का पालन करना चाहिए।
5. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दया क्षान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ याज्ञ.1.122
सत्यमस्तेयमक्रोधो ह्री: शौचं धीर्धृतिर्दम:।
संयतेन्द्रियता विद्या धर्म: सर्व उदाहृत: ॥ याज्ञ 3.66
सर्वेषामहिंसा सत्यं शौचमनसूयानृशंस्यं क्षमा च॥ कौटिल्यार्थशास्त्र 1.3.18
6. एते जाति देशकाल समयानवच्छिन्ना: सर्वभौमा महाव्रतम् (योग 2.31) ।
यम-नियम ऐसी बातें हैं,जिनमें किसी जाति, स्थान, काल की दृष्टि से कोई भेद नहीं । सभी के लिए ये समान हैं । जैनदर्शन में भी कहा गया है-
अहिंसासूनृतास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा:।
महाव्रतानि लोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥
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