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प्रभु की कोई प्रतिमा नहीं है

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There is No Statue of Lordप्रभु की कोई मूर्ति नहीं है। अन्तर्यामी अमूर्त है। अनादि, अनन्त, आकाररहित है। परात्पर का कोई परिमाण नहीं है। उसका कोई प्रतिमान नहीं है।

जिसका बड़ा नाम है, यश है,
उस अमूर्त की मूर्ति नहीं है।1

वेदों में प्रतिमा की पूजा का कोई विधान नहीं, है। अतः मूर्तिपूजा वेद-सम्मत नहीं है। सारा संसार ही तो उस अव्यक्त और अविनाशी परम पुरुष का विग्रह है तथा सभी सचेतन प्राणी उसके चलते-फिरते स्वरूप हैं। वही प्राणियों में व्याप्त होकर उन्हें अस्तित्व और गति देता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति के द्वारा उससे तादात्म्य स्थापित करके प्राणी पूर्णता पा लेते हैं। यही जीवन की कृतार्थता है।

परमेश्‍वर ने प्राणी को सब कुछ दिया है। उसके लिए सूरज, चाँद, सितारे रोशन किये हैं। फिर भी वह दीपक से उसकी आरती उतारता है। उसने ही तो असंख्य सुभग और सुरभित सुमन खिलाये हैं उसके लिये, फिर भी वह अगरबत्ती की खुशबू से खुश करना चाहता है उसे। उसने ही तो अगणित रस-भरे फलों का उपहार दिया है, फिर भी वह एक-दो फल देकर रिझाना चाहता है उसे। उसने ही तो सागर, सरिता और ताल जल से भर दिये हैं उसके लिये, फिर भी वह तनिक से नीर (जल) से अर्ध्य देकर तृप्त करना चाहता है उसे। उसी की वस्तु का उसी को प्रत्यर्पण! वह कोई उपक्रम, उपकार या उपहार नहीं चाहता। वह केवल निश्छल नेह चाहता है, शेष सब पुजारी चाहता है। वह उसकी प्रतिमा मन्दिर में रख देता है और प्रचार करता है कि मूर्ति के दर्शन से ही वाञ्छित फल मिल जावेगा। अगर अनुकृति ही सारी कामनाएं पूरी कर देती तो काम करने की जहमत उठाने की जरूरत ही क्या थी? बहुत से लोग मूर्तियों के सामने साष्टांग गिरकर गिड़गिड़ाते हैं और चाहते हैं कि उनके सारे कष्ट दूर हो जाएं। किन्तु क्या ऐसा होता है? कुकर्म करते समय तो सोचते नहीं और फिर चाहते हैं कि मूर्ति ही सजा से बचा दे। सर्वान्तर्यामी सब जानता है। सबके भले-बुरे कर्मों का द्रष्टा है। कुकर्म तो बड़ी बात है, कुचेष्टा को भी भांप लेता है तथा दण्ड देता है। नियन्ता के निर्मम न्याय से कोई नहीं बच सकता। वह सिफारिश भी नहीं सुनता। रिश्‍वत भी नहीं लेता। कोई भी उसे अनुचित-साधन से प्रभावित नहीं कर सकता। किये हुए पाप बिना भोगे नहीं कटते। सुकर्म ही कल्याण कर सकते हैं। प्रतिमा की प्रदक्षिणा से भी वह प्रसन्न नहीं होता। कला की दृष्टि से भले ही मूर्ति की सराहना कर लें, परन्तु वरदान तो नहीं ही दे सकती कलाकृति। प्रभु न तो प्रस्तर है और न कोई निर्जीव वस्तु ही।

क्या पत्थर को तराशकर प्रतिमा गढ़ने वाला संगतराश ही प्रभु का निर्माता है? जिस जगदीश ने सबको सरजा है उसको (मूर्तिकार को) भी। अपनी मर्जी के मुताबिक छैनी-हथोड़ी से काट-छांटकर छोटा और छिन्न करने की अधिकारितारहित धृष्टता नहीं है क्या यह? तो जैसा जंचा, जग के स्वामी का स्वरूप वैसा ही बना दिया? शिल्पी की शक्ल कोई बिगाड़ दे तो उसे बुरा नहीं लगेगा? जिसकी आकृति बनायेगा, उसे देखेगा नहीं क्या? अरे! जिसकी प्रतिकाया तराश रहे हो, बनाने से पहले उसकी सूरत को देख तो लिया होता? किन्तु कैसे देखते? उससे रूबरू होने की कूवत कहाँ से लाते? वैसे भी उस विराट् का कोई कलेवर तो है नहीं, कोई आर नहीं, कोई पार नहीं। फिर किस तरह बन सकती है उसकी प्रतिकृति? और अनुकृति तो वह हो ही नहीं सकती। तब प्रभु की ‘प्रतिमा’ वह कैसे कहलायेगी? काल्पनिक, नाशवान् और अचेतन आकृति को अमरता का अम्बर पहनाकर नियामक कहने की तुक कुछ समझ में नहीं आती?

चाणक्य ने कहा है कि परमेश्‍वर न तो काठ में है, न पत्थर में तथा न वह मिट्टी के पदार्थों में ही है। वह तो भाव में विद्यमान है। अतः जहाँ भाव है वहीं वह है। 2
ठीक है, ‘भाव’ की बात ही ले लीजिए। उपासक की भावना ही मूर्ति को जीवन्त बना देती है। फिर किसी भी पदार्थ में भावना करके पूजा करने में क्या हानि है? भावना ही प्रधान है। जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है- यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी। भावना के महत्व को तुलसी ने भी माना है,
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरति, देखी तिन्ह तैसी।

“भावना को मूर्ति में केन्द्रीभूत करने से प्रभु मूर्ति से ही प्रकट हो जाते हैं’’ कर्षन जी3 ने चौदह-वर्षीय मूलशंकर4 को सम्भवतः यही कहा होगा?

शिवरात्रि का पर्व था। मूलशंकर ने भी शिवरात्रि का व्रत रखा था। पूरा परिवार मौरवी नगर के एक शिवालय में रात्रि जागरण एवं पूजा हेतु गया हुआ था। तीसरे पहर में सब सो गए, किन्तु मूलशंकर जागते ही रहे। तभी उन्होंने एक चूहे को शिवलिंग पर उछल-कूद करते देखा तथा यह भी देखा कि मूषक, शिव का प्रसाद भी खा रहा था। किन्तु प्रस्तर के प्रतीक ने कोई प्रतिकार नहीं किया। मूलशंकर को बहुत विस्मय हुआ। मूर्तिपूजा से उनका मन हट गया। उन्होंने मूर्तिपूजा, पाखण्ड और आडम्बर के विरुद्ध आवाज उठाई और जनजागृति की भेरी बजाई, जिससे समाज को नई दिशा मिली।

क्या कहा? मूर्त में अमूर्त की अपेक्षा मन अधिक रमता है? इसी कारण मूर्त प्रतीक द्वारा अमूर्त्त की अर्चना की जाती है। यही प्रतीकोपासना है। प्रतिमा मन के सन्तोष के लिये बनाई जाती है। तो क्या मन के मोद के लिये कुछ भी किया जा सकता है? मोद है या मोह है यह? भ्रम, अविद्या, अज्ञान नहीं है क्या यह? मोह मन को मलिन कर देता है और मलिन मन से जो भी किया जाता है, वह मैला ही होता है। मलिनता और नियन्ता का कोई मेल नहीं हो सकता। निर्लिप्त है वह, निस्सीम है वह, निर्बाध है वह। कोई भी चित्रकार उसे कैमरे में कैद नहीं कर सकता। कोई शिल्पकार उससे मुखातिब नहीं हो सकता। फिर उसका बुत बनाना किस तरह मुमकिन होगा? तो, यह तोष और मोद वाला तर्क भी कतई नहीं जमता।

इस्लाम में तो मूर्तिपूजा के लिए कोई स्थान ही नहींहै। इस्लाम-मत के संस्थापक हजरत मुहम्मद का कथन है कि उनके किसी भी अनुयायी को मूर्ति-पूजा नहीं करनी चाहिए। ईसाई मत के प्रवर्तक ईसा-मसीह ने भी कहा है कि कोई भी मूर्ति ईश्‍वर का स्वरूप व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य को परम पावन प्रभु के आदेशानसार ही जीवन बिताना चाहिए, अन्य सभी व्यक्तियों से भी प्यार का व्यवहार करना चाहिए। गुरु नानक देव ने भी मूर्तिपूजा, रूढिवादिता व कुसंस्कारों को निरर्थक निरुपित किया है। मूल आर्यों में भी मूर्तिपूजा प्रचलित नहीं थी। स्वामी दयानन्द का मत है कि जैन-मतावलम्बियों ने ही मूर्तिपूजा प्रारम्भ की। उन्होंने ध्यानावस्थित व्यक्तियों की नग्न मूर्तियाँ बनवाईं। विरोधस्वरूप वैष्णवादि ने शृंगारित स्त्रियों सहित विभिन्न मूर्तियाँ बनवाई और जीविका के उपार्जन हेतु मन्दिरों में उनकी स्थापना करके आराधना आरम्भ कर दी।

स्वामी दयानन्द ने मूर्तिपूजा की बखिया उधेड़ दी। उन्होंने मूर्तिपूजा को ‘अधर्म’ की संज्ञा दी। विभिन्न प्रकार की विरुद्ध स्वरूप वाली मूर्तियों की निरर्थकता निरावृत की। पूजारियों को द्रव्य देने की निन्दा की, “दुष्ट पुजारियों को धन देते हैं, वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य, मांसाहार, लड़ाई, बखेड़ों में व्यय करते हैं, जिससे दाता के सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है।’’ मन्दिरों के निर्माण में करोड़ों रुपये खर्च करने की भर्त्सना की। आपने देखा होगा कि बहुत से लोग तो मन्दिर बनवाने या मूर्तियाँ खरीदने के नाम पर चन्दा तक करते हैं। चन्दा देने वाले नहीं जानते कि उनके पैसे का क्या किया जावेगा? मन्दिर वा मूर्ति से किसे लाभ होगा? पुजारी को या उन भोले-भाले भक्तों को जो धर्म के नाम पर धन देते हैं तथा तत्पश्‍चात् यह तक नहीं जान पाते कि उनकी परिश्रम की कमाई की क्या गति हुई? मतिमन्दों के माल पर मिथ्याचारी ही मौज मनाते हैं।

महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर को विध्वस्त किया। कोई उसे नहीं रोक सका। पुजारियों ने बार-बार प्रार्थना की, यहाँ तक कि तीन करोड़ रुपये देने की पेशकश भी की। फिर भी मूर्तियाँ तोड़ दी गईं। कहा जाता है कि जब मूर्ति तोड़ी गई तो अठारह करोड़ के रत्न निकले। पुजारियों पर कोड़े पड़े। वे रोने लगे। मार के मारे कोष बतला दिया, जिसे लुटेरे लूटकर ले गये। किसी ने सहायता नहीं की। पुजारी देखते ही रह गये।

यदि तर्क की दृष्टि से पाषाण की प्रतिमा को परमात्मा मान भी लिया जावे तो पाहन पर प्रहार प्रत्येक दशा में वर्जित होना चाहिए और ऐसा करने से पत्थर का काम करके पेट पालने वाले बहुत से श्रमिक बेकारी की बाढ़ में बह जावेंगे, निर्माण-कार्य बन्द हो जावेंगे तथा अनेक उद्योग भी प्रभावित होंगे। तब पत्थर राजमार्गों पर भी नहीं बिछाए जाने चाहिएं, ताकि वे पदाक्रान्त न हो सकें, उनकी पवित्रता बनी रहे। कोई किसी के नाम पर पत्थर रखता है तो वह उससे नाराज होता है। तब प्रभु के नाम पर पत्थर रख देने से वे किस प्रकार प्रसन्न होंगे? जड़ की पूजा वर्जित है। जड़ का ध्याता भी जड़ ही हो जाता है।

प्रतिमाओं का मान करके माननीयों का अपमान किया जाता है। माता, पिता, आचार्य, अतिथि और जीवन-साथी ये पांच मूर्तिमान् देव है।5 सेवा और सत्कार से उनको सन्तुष्ट रखना ही सच्चिदानन्द की स्तुति है। मूर्तों (जीते-जागते चेतन देव) की सेवा से ही मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं। दीनों, दरिद्रों, रोगियों, बुजुर्गों और परित्यक्तों की परिचर्या भी परम पवित्र कार्य है। यही धर्म का मर्म है।

मन्दिरों का उपयोग पाठशालाओं, चिकित्सालयों या निराश्रितों के आश्रय-स्थलों के रूप में किये जाने के सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिये। धार्मिक स्थलों में धर्म के ही काम हों, यह सुनिश्‍चित किया जाना चाहिये। क्षुद्राशयता के लिये हमारे मनों में कोई स्थान ही नहीं होना चाहिये। प्रभु-कृपा की आकांक्षा ही हमारा परम लक्ष्य होना चाहिए। प्रतिमा को पूजकर पार होने का सपना देखना तो पत्थर पर दूब उगाने की कोशिश ही है। कबीर ने कहा है-
कबीर जग बौरा भया, पाथर पूजे जाय।
घर की चाकी ना पुजै, जाका पीसा खाय॥
सन्दर्भ-
1. न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः। (यजुर्वेद 32.3)
2. न काष्ठे विद्यते देवो, न पाषाणे न मृण्मये। भावे हि विद्यते देवः, तस्माद् भावो हि कारणम्॥ चाणक्य 8.11
3. स्वामी दयानन्द के पिता का नाम।
4. स्वामी दयानन्द का बाल-नाम।
5. मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव। (तैत्तिरीय 1.11)
उपचर्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत् पतिः। (मनुस्मृति 5.154) - जगदीशचन्द्र ‘शैलेन्द्र’

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