संसार में लोग दो प्रकार का जीवन जीते हैं, एक सहज और दूसरा तनावों से पूर्ण। डाली पर एक कली लगी, अगले दिन खिल गई। खिलने के लिए उसे प्रयास नहीं करना पड़ा। बस, खिल गई और सुन्दर सा चेहरा लिए झूम रही है। उसे आज जीना है, जी-भर रूप और सुगन्ध बांटकर। कल की उसे चिन्ता नहीं। कल झड़ना होगा, मृत्यु का आलिंगन करना होगा, इस सबसे बेपरवाह। बस, जीना है आज, परिपूर्ण होकर। हम पुष्प की तरह वर्तमान में जीना सीख लें तो यह है ‘सहज’ जीवन।
पर हम वर्तमान में जीना छोड़कर अतीत की लपटों में घिर रहते हैं या भविष्य की आशंका में तड़पते रहते हैं। अतीत और भविष्य में जीते-जीते सदा तनावयुक्त रहते हैं। आज के तथाकथित वैज्ञानिक युग ने जो देन दी हैं, वह हैं लालसाएं और इच्छाएं जो कभी तृप्त नहीं होने देतीं। और चाहिए और चाहिए। टी.वी. चाहिए, फ्रिज चाहिए, बैंक बैलेंस बढ़ना चाहिए। मान चाहिए, यश चाहिए, पद चाहिए। इन चाहों ने हमारे जीवन में ‘हा-हा’ कार भर दिया है। हमें पथ का भिखारी बना दिया है। रात-भर सो नहीं पाते। दूसरों की ऊँचाइयों के चान्द को देख-देखकर कुत्ते की तरह भौंकते रहते हैं। दिन-भर की उलझनें तड़पाती हैं। विज्ञान की चकाचौंध ने हमें भौतिक वस्तु बना दिया है। जड़ हो गए हैं हम। तनावों से भरा जीवन जी रहे हैं हम सब। आज हमने एक नई संस्कृति विकसित कर ली है- ‘चालाक संस्कृति’। इसके बिना हम मूर्ख हैं, शून्य हैं। इच्छाओं ने हमें चील की तरह झपट्टे-बाज बना दिया है। बिना पंख हिलाए वर्तमान में सहज तिरना तब झपट्टे में बदल जाता है जब सामने स्वार्थ खड़े होते हैं, हमारा भविष्य आ खड़ा होता है। संग्रह और मांगों ने हमें भिखारी बना दिया है। मनुष्य ने जिस अनुपात में बुद्धि अर्जित की है, उसी अनुपात में उसने सहज प्रवृत्ति की शक्ति को खो दिया है।
स्वामी रामतीर्थ स्वयं को ‘बादशाह’ कहते थे। यह बात बड़ी हास्यास्पद लगती थी कि एक साधु जिसके पास कुछ नहीं है, स्वयं को ‘बादशाह’ कहता है। किसी ने उनसे पूछ ही लिया कि आप अपने को बादशाह क्यों कहते हैं? स्वामी रामतीर्थ ने उत्तर दिया, “इसलिए कि अब ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसकी मांग मेरे भीतर बची हो। अब मैं भिखमंगा नहीं हूँ। अब मेरे भीतर कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझे लोभ में फंसा सके। पहले छोटी-छोटी चीजों की मांग रहती थी। उन्हें पकड़ने के लिए हाथ फैलाता था, वह मिल जाती थी। बस, उसी छोटी चीज को पकड़े रहने के लिए बड़ी चीज की ओर मेरे हाथ फैलते ही न थे। जिस दिन छोटी चीजों की मांग समाप्त हुई है, ‘मैं’ और ’मेरा’ छूट गया है। उस दिन से सारी दुनिया मेरी है। चान्द-सितारे मेरे हैं, यह पृथ्वी मेरी है। मैंने एक तरह से बादशाहत पा ली है। इसलिए मैं स्वयं को बादशाह कहता हूँ।’’
जीने के लिए मैं, मेरापन (स्वार्थ) और भिखारीपन (इच्छाएं) हटे नहीं कि हम सहज जीवन जीने लगते हैं। अगर ठीक से समझें तो आस्तिकता का सार है- सहज स्वीकार। जितने सहज हम होंगे उतनी सहजता से हम जिएंगे। वर्तमान में जीने का अभिप्राय यही है कि जो कुछ करना है आज करना है। आज ही बांटनी है, अपनत्व की सुगन्ध। आज ही कोई ऐसा अच्छा कार्य करना है जो जीवन का सौन्दर्य बन जाए। आज को आनन्द और प्रफुल्लता से जीना है। एष ते योनिर् ऋतायुभ्यां त्वा। (यजुर्वेद 7.10) तुझे यह शरीर सदाचार और मानवता की प्रस्थापना के लिए मिला है। हम राह से बेराह न हों। स्वार्थों के कांटों को साधना की बारीक सुई से निकालें। बुद्धि और हृदय के शोधन से ही हम अमृतपथ के गामी बन सकते हैं और सम्पूर्ण जीवन ईश्वरीय भाव से भावित होकर जी सकते हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव
Learn How to Live | Embrace of Death | Swami Ramtirtha | King | Beggar | Selfishness | Sweet Smell | Beauty of Life | Joy and Cheerfulness | Virtue and Humanity | Intelligence and Heart | Acharya Dr. Sanjay Dev | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Dainhat - Pooluvapatti - Chaupal | News Portal, Current Articles & Magazine Divyayug in Dakor - Porsa - Chuari Khas | दिव्ययुग | दिव्य युग |