भारतीय संस्कृति विश्व की अन्य प्राचीनतम संस्कृतियों में अपना अद्वितीय स्थान रखती है। विश्व की अनेक प्राचीनतम संस्कृतियों का लोप हो गया है, परन्तु भारतीय संस्कृति का प्रवाह उसी गति से चल रहा है। भारतीय संस्कृति समन्वय करके आज के युग में भी अपना मस्तक ऊंचा किए हुए है। इसके पीछे बहुत से कारण हैं। भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है। धर्म से हमारा तात्पर्य कर्त्तव्य से है। हमारी संस्कृति का प्राचीनतम सिद्धान्त यह रहा है कि जो धर्म का नाश करेगा उसका विनाश हो जाएगा। इसकी पुष्टि के लिए इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। इतिहास साक्षी है कि जिस किसी ने धर्म पर आघात किया उसका अस्तित्व ही गिर गया। यही कारण है कि भारतीय जीवन की समस्त बातों में धर्म की भावना प्रधान है। व्यापक रूप में धर्म का अर्थ मानव धर्म से है।
भारतीय संस्कृति में अच्छे विचारों का अपने में समन्वय कर लेने की एक बड़ी प्रबल शक्ति है। इसने यूनानी, शक, हूण, मुसलमान, ईसाई आदि सभी जातियों के अच्छे गुणों का ग्रहण किया है। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भारतीय संस्कृति की पाचन शक्ति की बड़ी सराहना की है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना देश प्यारा होता है, वह अपने अतीत की उपलब्धियों के प्रति स्वाभाविक गर्व का अनुभव करता है। और भारत तो वह महान् देश है जिसने न सिर्फ दुनिया को बहुत कुछ दिया है वरन् दुनिया के विभिन्न कबीलों से चाहे वे आक्रामक बनकर आए अथवा सौदागर उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों को निःसंकोच ग्रहण कर तथा उन्हें आत्मसात् कर अपनी महान् संस्कृति के सागर में उन्हें विलीन कर लिया। इस सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व होना स्वाभाविक है।
भारतीय संस्कृति का मूल है वेद। वेद में मानव-मानव के बीच कोई भेद नहीं किया गया। महाभारत काल तक इस देश का सारे संसार पर चक्रवर्ती साम्राज्य रहा। वेदों का अध्ययन एवं तदनुसार आचरण कम हो जाने से महाभारत काल से भारत का पतन होने लगा। तब से जन्मगत जाति-पाति, छुआछूत तथा अनेक संकीर्ण रूढ़ियाँ आरम्भ हो गई। संस्कृति के पतन काल में भी महापुरुषों एवं सन्तों का प्रार्दुभाव होता रहा, जिस कारण हमारी संस्कृति सुरक्षित रही। हमारी महान् संस्कृति की एक महान् धरोहर है सन्तों का युग। तुकाराम, कबीर तथा चैतन्य का वह युग जिसमें मानव-मानव की समानता को स्वीकार किया गया। मध्यकालीन सन्तों ने जात-पांत को तोड़ने वाला नारा अपनाया-
जात-पांत पूछै नहीं कोई। हरि को भजै सो हरि को होईं। इस संस्कृति में सहिष्णुता एवं उदारता की भावना विशिष्ट रूप में पायी जाती है। मत-विभिन्नता में सारभूत अखण्डता हमारी संस्कृति की एक बड़ी विशेषता है। यह है विरासत जिसे हमें अपनाते हुए और आगे बढ़ना है। - आचार्य डॉ. संजयदेव
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