भारत की स्वतन्त्रता का दिन 15 अगस्त। देशवासियों के लिए उत्साह, उमंग और उल्लास का दिन। अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों, स्वतन्त्रता सेनानियों और राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वालों को स्मरण करने का दिन। ...लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के छह दशक बाद भी क्या हम आजाद हैं? यह प्रश्न प्रत्येक देशवासी के मन में उठता होगा या फिर उठता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो इस सवाल का जवाब सम्भवतः ना में ही होगा। हालांकि भौतिक रूप से देखें तो भारत विकास की राह पर तेजी से अग्रसर है, लेकिन इस तरक्की के पीछे का काला सच यही है कि हम अपने मूल्यों को खोते जा रहे हैं, गर्व करने वाली अपनी संस्कृति को पुस्तकों के पृष्ठों में दफन करते जा रहे हैं।... और सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि जो देश, समाज और जाति अपने गौरवशाली अतीत को भुला देते हैं, वे कालान्तर में भुला दिये जाते हैं या इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाते हैं। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में राष्ट्र के जिन विकारों का उल्लेख किया है, वे सभी आज के भारत में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। वर्तमान में शासक वर्ग (सत्तारूढ़ दल) अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन होने के साथ ही येनकेनप्रकारेण अपनी सत्ता बनाए रखना चाहता है। राज्य के कर्मचारी ही जनता का शोषण करने का कोई भी अवसर नहीं गंवाते, न्यायालयों मे भी आमतौर पर अपराधियों को सजा (साक्ष्य के अभाव में) नहीं मिल पाती। दूर-दूर तक कहीं भी आशा की किरण नजर नहीं आ रही है।
यदि देश और समाज को आगे ले जाना है तो हमें स्वतन्त्रता का मूल्य समझना होगा, क्योंकि हमें विदेशियों की परतन्त्रता से मुक्ति दिलाने के लिए हजारों की संख्या में ज्ञात-अज्ञात शहीदों ने इस देश की मिट्टी को अपने रक्त से सींचा है। उस रक्त से ही आजादी की फसल लहलहा रही है। हमें इस मानसिकता से बाहर आना होगा कि ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल....।’ इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हम महात्मा गान्धी के महान योगदान को भुला दें, लेकिन हम यह अवश्य याद रखें कि हमने आजादी की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। राम, कृष्ण, चाणक्य, शिवाजी, महाराणा प्रताप, महर्षि दयानन्द, महामना तिलक, नेताजी सुभाष, भगतसिंह, महात्मा गान्धी के देश की पहचान आज घपलों और घोटालों के लिए होती है। देश को चलाने वाले लोग जनता की चिन्ता करने के बजाय खुद का घर भरने में लगे हैं। जनता को जागृत करने वाले आन्दोलनों को कुचलने के लिए सरकारी तन्त्र कोई कसर नहीं छोड़ता।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश में व्याप्त इस ‘घुंघलके’ को दूर करने के लिए फिर किसी कृष्ण को आना होगा। हम हर वर्ष जन्माष्टमी मनाते हैं, उपवास रखते हैं, कृष्ण की पूजा-अर्चना करते हैं, लेकिन उनके वास्तविक सन्देश को भुला बैठे हैं। कथा वाचकों ने भी कृष्ण के स्वरूप को ‘शृंगार’ तक सीमित कर दिया है। समाज को आज कृष्ण के रास रचाने वाले स्वरूप से ज्यादा कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का रहस्य समझाने वाले ‘चक्रधारी’ स्वरूप की आवश्यकता है। आज आवश्यकता है कंस का मान-मर्दन करने वाले वासुदेव की। सच्चे अर्थों में जन्माष्टमी हम तभी मना सकेंगे जब कृष्ण के असली सन्देश को ग्रहण करेंगे। यह तभी सम्भव है जब हम अपने भीतर के अर्जुन को जगाएं। अगस्त माह में हम रक्षाबन्धन का पर्व भी मना रहे हैं। कलाई में बन्धे रक्षा-सूत्र के साथ हमें संकल्प लेना होगा कि भगवान कृष्ण के सन्देश को आत्मसात करते हुए अपनी मातृभूमि और मातृशक्ति की रक्षा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। यदि हम अपने संकल्प की कसौटी पर खरे उतरेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब एक बार फिर भारत सामाजिक और नैतिक मूल्यों के साथ दुनियाँ में अग्रिम पंक्ति में होगा। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएं सभी ॥
भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ? फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ ।
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है? उसका कि जो ऋषि-भूमि है, वह कौन भारतवर्ष है॥
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