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वीर सावरकर के शौर्यपूर्ण कारनामे-19

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veer savarkar 02अपनी नीति के बल पर ही सावरकर उस नरक से निकलकर हिन्दू शुद्धि, दलितोद्धार, साहित्य सृजन, स्वतन्त्रता के लिए प्रेरणा जैसे अनेक काम अपनी नजरबन्दी (स्थलबद्धता) के दौरान करते रहे। सन् 1937 में श्री जमनादास मेहता और श्री धनजीशा कपूर को सरकार द्वारा मन्त्रीमण्डल में सम्मिलित करने का प्रस्ताव आया तो उन दोनों ने शर्त रख दी कि अपने मन्त्रीमण्डल में सम्मिलित होते ही वे जो प्रथम कार्य करेंगे, वह होगा वीर सावरकर की ससम्मान और बिना शर्त स्थानबद्धता से मुक्ति। सरकार ने उनकी शर्त को स्वीकार किया और 10 मई 1937 को सावरकर की रत्नागिरि की स्थानबद्धता से मुक्ति हुई। वहाँ से निकलकर सावरकर ने कोल्हापुर में शिवाजी की गद्दी को श्रद्धा सहित प्रणाम किया और भारतीय राजनीति में अपने प्रवेश की प्रबल शब्दों में घोषणा की। 1 अगस्त 1937 को अपने पूना प्रवास में उन्होंने घोषणा की कि वे तिलक जी की डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी में प्रविष्ट हो गये हैं और तुरन्त बाद ही उन्होंने हिन्दू महासभा में प्रवेश ले लिया।

13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए सावरकर ने कहा- “महाराजा काश्मीर को तो (महात्मा) गांधी ने परामर्श दे दिया कि वे अपना राज्य मुसलमानों को सौंपकर स्वयं बनारस जाकर प्रायश्‍चित करें, किन्तु निजाम हैदराबाद से उसी भाषा में बात करने का साहस उनको क्यों नहीं हुआ? उनको कहना चाहिये कि भारत के सभी नवाब देश छोड़कर मक्का में जाकर प्रायश्‍चित करें।“

30 दिसम्बर को अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से सावरकर ने गांधी के ‘मुसलमानों को साथ लिये बिना स्वराज्य मिलना असम्भव है’ कथन की निन्दा करते हुए मुसलमानों को चेतावनी दी- “यदि तुम साथ आते हो तो तुमको साथ लेकर, यदि तुम साथ नहीं आते तो तुम्हारे बिना अकेले ही, और यदि तुम हमारा विरोध करोगे तो तुम्हारे उस विरोध को कुचलते हुए हम हिन्दू देश की स्वाधीनता का युद्ध निरन्तर लड़ते रहेंगे।“

हैदराबाद के निजाम ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये तथा सभी धार्मिक कृत्यों पर रोक लगा दी। हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्मान्तरण किया जाने लगा तो दिसम्बर 1938 में महात्मा नारायण स्वामी व स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के नेतृत्व में आर्यसमाज ने निजाम के खिलाफ आन्दोलन किया। सावरकर तुरन्त शोलापुर पहुँचे और घोषणा की- “इस आंदोलन में आर्यसमाज को अपने को अकेला अनुभव नहीं करना चाहिए। हिन्दू महासभा अपनी पूरी शक्ति से आर्यसमाज के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर निजाम की हिन्दू विरोधी नीति व उसके जघन्य क्रियाकलापों को चकनाचूर करके ही चैन की सांस लेगी।’’ गांधी ने इसमें साथ देने की अपेक्षा विरोध ही किया, तथापि निजाम को झुकना पड़ा। 19 जुलाई 1939 को निजाम ने नागरिक संघर्ष आन्दोलन को मान्यता दी।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध आरम्भ हो गया। 9 अक्तूबर 1939 को वायसराय लिनलिथगो ने सावरकर को वार्तालाप के लिए आमन्त्रित किया। सावरकर दिल्ली गये तो वायसराय ने उनसे पूछा कि विश्‍वयुद्ध के सम्बन्ध में उनकी क्या नीति है? सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में बताया- “क्रांतिकारी होने के नाते में देश के सैनिकीकरण के पक्ष में हूँ। मैं इसमें देश का हित समझता हूँ। देश के भीतर और देश की सीमाओं पर हिन्दू सैनिकों की टुकड़ियाँ यदि रहें तो यह देशहित में होगा। इसमें ही हिन्दुओं का हित भी निहित है।’’

वायसराय पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और बाद में एक पत्रकार सम्मेलन में उसने कहा- “सावरकर अनेक वर्ष तक अण्डमान में कारागार की यातना झेलते रहे हैं, किन्तु इससे न तो उनका तेज क्षीण हुआ और न ही उनके क्रांतिकारी विचारों में किसी प्रकार का परिवर्तन हुआ है। इस द्वितीय विश्‍वयुद्ध के प्रश्‍न पर भी वे सर्वप्रथम भारतीय हित को सम्मुख रखते हुए ही कुछ बात करते हैं।’’

इसके पश्‍चात् अगले वर्ष भर सावरकर भारत के विभिन्न प्रान्तों और नगरों में जा-जाकर भारतीयों को उनके अस्तित्व के प्रति जागरूक रहने का आह्वान करते रहे, सैनिकीकरण की बात पर जोर देते रहे। इसी दौरान 22 जून 1940 को नेता जी सुभाषचन्द्र उनसे मिलने बम्बई पहुँचे। भेंट के समय नेता जी ने कलकत्ता में हॉलवेल व अन्य अंग्रेजों की मूर्तियाँ तोड़ने की अपनी योजना से उन्हें अवगत कराया। यह सुनकर सावरकर जी बड़े गम्भीर भाव से बोले- “मूर्तिभंजन जैसे अतिसाधारण अपराध के कारण आप सरीखे तेजस्वी और शीर्षस्थ राष्ट्रभक्तों को जेल में पड़े-पड़े सड़ना पड़े, यह मैं ठीक नहीं समझता। सफल कूटनीति की मांग है स्वयं को बचाते हुए शत्रु को दबोचे रखना। ब्रिटेन आजकल युद्ध के महासंकट में फँसा है, हमें इससे पूरा लाभ उठाना चाहिए। यह देखिये श्री रासबिहारी बोस का गुप्त पत्र। इसके अनुसार जापान कभी भी युद्ध में शामिल हो सकता है। ऐसे ऐतिहासिक अवसर को हाथ से मत जाने दो। आप भी रासबिहारी बोस आदि क्रान्तिकारियों की तरह अंग्रेजों को चकमा देकर विदेश खिसक जाइये और उचित समय आते ही जर्मन-जापानी सशस्त्र सहयोग प्राप्त कर, देश की पूर्वी सीमा की ओर से ब्रिटिश सत्ता पर आक्रमण करने का मनसूबा बनाइये। ऐसे सशस्त्र प्रयास के बिना देश को कभी स्वाधीन नहीं कराया जा सकता।’’

यह सब तन्मयता से सुनकर पुनर्मिलन की आशा व्यक्त करते हुए नेताजी ने विदा ली। इसी प्रेरणा वे फलस्वरूप वे जर्मनी जाकर सिंगापुर पहुँचे और आज़ाद हिन्द फौज एवं सरकार का गठन किया, यह विश्‍वविदित है। आजाद हिन्द रेडियो से 25 जून 1944 को बोलते हुए नेताजी ने कहा- “भ्रमित राजनीति और अदूरदर्शिता के कारण, जब प्रायः सभी कांग्रेसी नेता भारतीय सेना के सिपाहियों को ‘भाड़े के टट्टू’ कहकर अपमानित करते थे, तब सर्वप्रथम वीर सावरकर ने निर्भीकतापूर्वक भारतीय युवकों को अधिकाधिक सेना में भर्ती होने के लिए आह्वान किया। उन्हीं की प्रेरणा पर सैनिक बने ये युवक अब हमारी आजाद हिन्द फौज के सिपाही हैं।’’ नेता जी ने वीर सावरकर के ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ ग्रन्थ को अपनी ओर से प्रकाशित कराकर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों में बड़ी संख्या में वितरित कराया।

वीर सावरकर की नीति निपुणता ही उन्हें कारागार से बाहर निकलने को बाध्य कर रही थी, कायरता नहीं। जीवन के अन्तिम क्षण तक वे स्वदेश हित के लिए चिन्तित रहे व प्रयत्न करते रहे। पर गांधी नीति के मोहपाश में फँसे नेता उनके वर्चस्व को सहन न कर सके, उनका विरोध करते रहे। ये लोग नहीं चाहते थे कि सावरकर बन्धनमुक्त होकर भारत की राजनीति में आएं। अतः उनका अण्डमान में मर जाना ही इन लोगों को उचित लगता था। इसी कारण उन्होंने सावरकर की रिहाई के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया। यदि आजादी के बाद सावरकर को राजनीति में कोई योग्य पद दिया गया होता और उनकी बात मानी गई होती तो न तो पाकिस्तान बनता, न हिन्दू-मुस्लिम के रोज-रोज के झगड़े होते। न श्यामाप्रसाद मुखर्जी कश्मीर की वेदी पर आहुत होते तथा लाल बहादुर शास्त्री जैसे योग्य नेता से भी देश वंचित न होता।

प्रस्तुत लेखमाला इस भावना से लिखी गई है कि भारत व भारतीयता के शत्रु तथा विदेशी सभ्यता व संस्कृति के पोषक लोगों द्वारा वीर सावरकर पर लगाए गए मिथ्या दोषों को भारत का भोला जनमानस अच्छी तरह जानकर उससे सावधान रहे। संसार में प्रायः सभी के कार्यों की समीक्षा होती है, पर सामान्य की अपेक्षा ऐतिहासिक पुरुषों के कार्यों की समीक्षा विशेष महत्व रखती है। ऐतिहासिक व्यक्तित्व के चरित्र को बिगाड़ना व संवारना समीक्षक पर बहुत निर्भर करता है। प्रायः समीक्षक या आलोचक की जैसी विचारधारा होती है, वह समीक्षा या आलोचना को उसी रूप में लेता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है- “बहुत से हठी दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अंधकार में फंसकर नष्ट हो जाती है।’’ कुछ ऐसा ही वीरवर सावरकर के आवेदन-पत्रों के कारण उनके साथ हुआ। यह अल्प सा प्रयास महान क्रांतिकारी, देशभक्त, समाज सेवक व साहित्यकार, स्वातन्त्र्य वीर सावरकर के विषय में लिखकर किया गया है। आज तक अपनों व बेगानों की उपेक्षा का शिकार बने महान् स्वतन्त्रता सेनानी की विचारधारा तथा कार्यशैली से वर्तमान पीढ़ी अवगत होकर उनका अनुसरण करती हुई राष्ट्र की सम्यक उन्नति में योगदान दे सकेगी ऐसी आशा है। नहीं तो कवि के शब्दों में-
जारी रहा क्रम यदि, यूं ही शहीदों के अपमान का।
तो अस्त समझो सूर्य, भारत भाग्य के आसमान का॥ - राजेश कुमार ’रत्नेश’

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