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स्वामी दयानन्द के अमृत वचन-20

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Swami Dayanands Amrit Vachan 20

प्रश्‍न- ईश्‍वरासिद्धे: ।
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धि: ।
सम्बन्धाभावान्नानुमानम्। (सांख्य सूत्र)

प्रत्यक्ष से ईश्‍वर की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि जब उसकी सिद्धि में प्रत्यक्ष ही नहीं तो अनुमानादि प्रमाण नहीं घट सकते । और व्याप्ति सम्बन्ध न होने से अनुमान भी नहीं हो सकता। पुन: प्रत्यक्षानुमान के न होने से शब्द प्रमाण आदि भी नहीं घट सकते। इस कारण ईश्‍वर की सिद्धि नहीं हो सकती।

उत्तर- यहाँ ईश्‍वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ईश्‍वर जगत् का उपादान कारण है । और पुरुष से विलक्षण अर्थात् सर्वत्र पूर्ण होने से परमात्मा का नाम पुरुष और शरीर में शयन करने से जीव का भी नाम पुरुष है। क्योंकि इसी प्रकरण में कहा है-
प्रधानशक्तियोगाच्चेत्सङ्गापत्ति:।
सत्ता मात्राच्चेत्सर्वैश्‍वर्य्यम् ।
श्रुतिरपि प्रधान कार्यत्वस्य। (सांख्य सूत्र)

यदि पुरुष को प्रधानशक्ति का योग हो तो पुरुष में संगापत्ति हो जाये। अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्य से मिलकर कार्यरूप में सगंत हुई है, वैसे परमेश्‍वर भी स्थूल हो जाए। इसलिये परमेश्‍वर जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण है। क्योंकि उपनिषद् भी प्रधान ही को जगत् का उपादान कारण कहती है। जैसे- अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वी: प्रजा: सृजमानां स्वरूपा:। यह श्‍वेताश्तर उपनिषद् का वचन है । जो जन्मरहित सत्व, रज, तमोगुणरूप प्रकृति है वही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तरा हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थान्तर होकर दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त होता, सदा कूटस्थ निर्विकार रहता है और प्रकृति सृष्टि में सविकार और प्रलय में निर्विकार रहती है। - प्रस्तुति : स्वामी वैदिकानन्द (दिव्ययुग अप्रैल 2008)


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