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स्वामी दयानन्द के अमृत वचन-16

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Swami Dayanands Amrit Vachan 16

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीरा:।
यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ॥ यजुर्वेद 34.2

हे सर्वान्तर्यामी ! जिससे कर्म करनेहारे धैर्ययुक्त विद्वान लोग यज्ञ और युद्धादि में कर्म करते हैं, जो अपूर्व सामर्थ्ययुक्त, पूजनीय और प्रजा के भीतर रहने वाला है, वह मेरा मन धर्म करने की इच्छायुक्त होकर अधर्म को सर्वधा छोड़ देवे ।

यत्प्रजानमुत चेतो धृतिश्‍च यज्जयोतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु॥  यजुर्वेद 34.3

जो उत्कृष्ट ज्ञान और दूसरे को चितानेहारा निश्‍चयात्मक वृत्ति है और जो प्रजाओं में भीतर प्रकाशयुक्त और नाशरहित है, जिसके बिना कोई कुछ भी कर्म नहीं कर सकता, वह मेरा मन शुद्ध गुणों की इच्छा करके दुष्ट गुणों से दूर रहे ।

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु॥ यजुर्वेद 34.4

हे जगदीश्‍वर ! जिससे सब योगी लोग इन सब भूत, भविष्यत्, वर्तमान व्यवहारों को जानते, जो नाशरहित जीवात्मा को परमात्मा के साथ मिल सब प्रकार त्रिकालज्ञ करता है, जिसमें ज्ञान और क्रिया है, पांच ज्ञानेन्द्रिय बुद्धि और आत्मायुक्त रहता है उस योगरूप यज्ञ को जिससे बढाते हैं,वह मेरा मन योग विज्ञानयुक्त होकर अविद्यादि क्लेशों से पृथक् रहे ।

यस्मिन्नृच:साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:।
यश्मिश्‍चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु   यजुर्वेद 34.5

हे परम विद्वान परमेश्‍वर ! आपकी कृपा से मेरे मन में जैसे रथ के मध्य धुरा में आरा लगे रहते हैं, वैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और जिसमें अथर्ववेद भी प्रतिष्ठित होता है और जिसमें सर्वज्ञ सर्वव्यापक प्रजा का साक्षी चित्त चेतन विदित होता है, वह मेरा मन अविद्या को छोड़कर विद्याप्रिय सदा रहे ।

सुषारथिरश्‍वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ॥ यजुर्वेद 34.6

हे सर्वनियन्ता ईश्‍वर ! जो मेरा मन रस्सी से घोड़ों के समान अथवा घोड़ों के नियन्ता सारथि के तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त इधर-उधर डुलाता है, जो हृदय में प्रतिष्ठित गतिमान और अत्यन्त वेग वाला है, वह सब इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक के धर्मपथ में सदा चलाया करे । ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये ।

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्‍वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमऽउक्तिं विधेम ॥ यजुर्वेद 40.16

हे सुख के दाता स्वप्रकाशस्वरूप सबको जाननेहारे परमात्मन् ! आप हमको श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये और जो हममें कुटिल पापाचरणरूप मार्ग है, उससे पृथक् कीजिये । इसीलिये हम लोग नम्रतापूर्वक आपकी बहुत सी स्तुति करते हैं कि आप हमको पवित्र करें ।• (दिव्य युग - जुलाई 2007)

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