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स्वामी दयानन्द के अमृत वचन-17

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Swami Dayanands Amrit Vachan 17

ओ3म् मा नो महान्तमुत मा नोऽअर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्।
मा नो वधी: पितरं मोत मातरं मा न: प्रियास्तन्वोरुद्र रीरिष:॥ यजुर्वेद 16.15

हे रुद्र ! दुष्टों को पाप के दु:खस्वरूप फल को दे के रुलाने वाले परमेश्‍वर ! आप हमारे छोटे-बड़े जन, गर्भ, माता-पिता और प्रिय बन्धुवर्ग तथा शरीरों का हनन करने के लिए प्रेरित मत कीजिये । ऐसे मार्ग से हमको चलाइये, जिससे हम आपके दण्डनीय न हों ।

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमयेति ॥ शतपथ ब्राह्मण ॥

हे परमगुरो परमात्मन् ! आप हमको असत् मार्ग से पृथक् कर सन्मार्ग में चलाइये । अविद्यान्धकार को छुड़ाके विद्यारूप सूर्य को प्राप्त कराइये और मृत्यु रोग से पृथक करके मोक्ष के आनन्दरूप अमृत को प्राप्त कराइये। अर्थात् जिस-जिस दोष वा दुर्गण से परमेश्‍वर और अपने को भी पृथक् मान के परमेश्‍वर की प्रार्थना की जाती है, वह विधि-निषेध होने से सगुण-निर्गुण प्रार्थना । जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है, उसको वैसा ही वर्तमान में करना चाहिये अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमेश्‍वर की प्रार्थना करे, उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे । अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है । जिस-जिस गुण से युक्त परमेश्‍वर को मानकर तथा उसके गुणों को अपने में धारण कराने के लिये प्रार्थना की जाती है, वह विधि अनुसार होने से सगुण प्रार्थना कहाती है । इसी प्रकार जिस-जिस दोष अथवा दुर्गुण से ईश्‍वर को पृथक मानकर अपने को भी उनसे दूर रखने की प्रार्थना की जाती है, वह निषेध होने से निर्गुण प्रार्थना कहाती है ।

ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्‍वर उसको स्वीकार करता है कि जैसे हे परमेश्‍वर ! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सबसे बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जाएं इत्यादि । क्योंकि जब दोनों शत्रु एक दूसरे के नाश के लिए प्रार्थना करें तो क्या परमेश्‍वर दोनों का नाश कर दे ? जो कोई कहे कि जिसका प्रेम अधिक हो, उसकी प्रार्थना सफल हो जाए, तो हम कह सकते हैं कि जिसका प्रेम न्यून हो उसके शत्रु का भी न्यून नाश होना चाहिये । ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा कि हे परमेश्‍वर ! आप हमको रोटी बनाकर खिलाइये, मकान में झाडू लगाइये, वस्त्र धो दीजिये और खेती-बाड़ी भी कीजिये । इस प्रकार जो परमेश्‍वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते हैं, वे महामूर्ख हैं, क्योंकि जो परमेश्‍वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है, उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा। जैसे- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:॥ (यजुर्वेद 40.2)

परमेश्‍वर आज्ञा देता है कि मनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् जब तक जीवे तब तक कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे, आलसी कभी न हो । देखो ! सृष्टि में जितने प्राणी अथवा अप्राणी हैं, वे सब अपने-अपने कर्म और यत्न करते ही रहते हैं । जैसे पिपीलिका (चींटी) आदि सदा प्रयत्न करते, पृथिवी आदि सदा घूमते और वृक्ष आदि सदा बढते-घटते रहते हैं, वैसे यह दृष्टान्त मनुष्यों को भी ग्रहण करना योग्य है । जैसे पुरुषार्थ करते हुए पुरुष की सहायता दूसरा भी करता है, वैसे धर्म से पुरुषार्थी पुरुष की सहायता ईश्‍वर भी करता है ।

जैसे काम करने वाले पुरुष को जवाबदार कर्मचारी कहते हैं और अन्य आलसी को नहीं । देखने की इच्छा करने और नेत्र वाले को दिखलाते हैं, अन्धे को नहीं। इसी प्रकार परमेश्‍वर भी सबके उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है, हानिकारक कर्म में नहीं । जो कोई गुड़ मीठा है, ऐसा कहता है, उसको गुड़ तथा उसका स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता और जो यत्न करता है, उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है ।• - वैदिक सदन, भंवरकुआ, महू रोड़, इन्दौर (म.प्र.) - दिव्ययुग - नवम्बर 2007

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