महान स्वतन्त्रता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था-’’आजादी की तड़प आत्मा का संगीत है।’’ नि:सन्देह उन्होंने इस संगीत को सुना, अनुभव किया और स्वतन्त्रता के यज्ञ में अपनी आहुति दे दी। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ और इसके बाद प्रतिवर्ष होने लगा उत्सवों का आयोजन। सरकारी इमारतों पर लहराते राष्ट्रध्वज, जगमगाती रोशनी, स्कूली बच्चों की नारे लगाती रैलियाँ, राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का गायन, लाउडस्पीकर पर गूंजते राष्ट्रभक्ति के गीत.....और 16 अगस्त से सब कुछ पूर्ववत्। कहीं कोई सबक नहीं। फिर वही घोटालों, हत्याओं, लूटपाट, बलात्कार आदि की खबरों से सने अखबार । ऐसा लगता है जैसे लोगों ने अपनी आत्मा को ही मार दिया है। मरी हुई आत्मा आजादी का संगीत सुन भी कैसे सकती है?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत ने विज्ञान, उद्योग, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा समेत अन्य सभी क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की हैं। देश सामरिक और आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर भी तेजी से अग्रसर है। ...लेकिन, इस ’तेजी’ में कहीं न कहीं आम भारतीय काफी पीछे छूट गया तथा पीछे छूट गए हैं हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य। अर्थात इन उपलब्धियों को हासिल करने के साथ-साथ हमने खोया भी बहुत कुछ है।
एक ओर अन्नदाता किसान आत्महत्या करने के लिए विवश है तो दूसरी ओर एक मामूली कम्पाउण्डर के घर से अरबों रुपए बरामद होते हैं। पटवारी और सरकारी चपरासी करोड़ों के मालिक बन जाते हैं। कोयला घोटाला, राष्ट्रमण्डल घोटाला, दूरसंचार घोटाला, रेलवे घूसकाण्ड़ आदि घटनाएं ऐसी हैं, जो किसी भी देशभक्त भारतीय को विचलित करती हैं। सैकडों प्रश्न भी दिमाग में कौंधते हैं, क्या यही आजादी का सच्चा अर्थ है? क्या आजादी का यही उद्देश्य था? हमें इन सवालों के जवाब ढूंढने होंगे, गहन चिन्तन करना होगा । क्योंकि इस दिन के लिए तो हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर नहीं किया था। उन्होंने तो ऐसे स्वतन्त्र भारत की कल्पना की थी, जहाँ सभी वर्ग खुशहाल हों, नैतिक मूल्य और संस्कृति आधारित समाज हो। उन्हीं की वजह से ही हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं । लेकिन क्या हम उनके सपनों को साकार कर पा रहे हैं? शायद नहीं।
स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता कतई नहीं हो सकता। स्वच्छन्दता का परिणाम हाल ही में उत्तराखण्ड आपदा के रूप में हम देख चुके हैं। हजारों लोग असमय ही काल के गाल में समा गए। किसी का सुहाग उजड़ गया, कई बच्चे अनाथ हो गए। एक ऐसी पीड़ा जो कभी नहीं भुलाई जा सकेगी। तीर्थ क्षेत्रों में ज्यादा कमाने के लालच में अवैध निर्माण, अवैध खनन ने वहां के पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है । पवित्र गंगा को अपने स्वार्थ की खातिर दूषित करके रख दिया। कई स्थानों पर इस मोक्षदायिनी नदी का जल आचमन के लायक भी नहीं बचा है ।
वास्तविक अर्थों में स्वतन्त्रता दिवस अपने भीतर झांकने का दिन है। हमने क्या खोया और क्या पाया है, इसका लेखा-जोखा करने का दिन है। स्वेच्छाचारिता और लालच से उपजी अव्यवस्थाओं का हल ढूंढने का भी दिन है यह। इन समस्याओं के हल के लिए कृष्ण आसमान से अवतरित नहीं होंगे। इसके लिए हमें अपने भीतर ही कृष्ण और अर्जुन को खोजना होगा और विसंगतियों से लडना होगा, तभी जन्माष्टमी मनाने का भी कोई अर्थ होगा। ...और तभी तिलक के ‘पूर्ण स्वराज’ का सपना साकार होगा।
अन्त में उत्तरांचल में प्राकृतिक आपदा में अपनी जान गंवाने वाले सभी लोगों को दिव्ययुग परिवार की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि। साथ ही पत्रिका के स्नेहीजनों को स्वतन्त्रता दिवस, जन्माष्टमी और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएं। - सम्पादकीय (दिव्ययुग - अगस्त 2013)
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