सुख का मार्ग- अर्थशास्त्र में चर्चित इच्छाओं के विविध पहलुओं पर विचार करने से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि न तो प्रत्येक की सारी इच्छायें पूरी हो सकती हैं और न ही शरीर के रहते हुए इच्छारहित स्थिति हो सकती है। इसलिए सरल और सीधा सा मध्यमार्ग यही है कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, व्यवस्थित, मर्यादित करे। अपने सारे दिन के कार्यों पर विचार कर अपनी दिनचर्या तथा जीवनचर्या को व्यवस्थित करे, जिससे अन्त में पश्चाताप न हो कि मैंने अमुक कार्य तो किया ही नहीं? अर्थात् शरीर और संसार के व्यवहार के लिए जो इच्छायें आवश्यक हैं, उन्हीं की ही पूर्ति करे । व्यर्थ अपने आपको इच्छाओं का दास न बनाए। जब इच्छायें अपने वश में होंगीं, तो व्यक्ति इनके पूरा न होने पर विचलित नहीं होगा। जैसे यान जब तक नियन्त्रण में रहता है, तभी तक सुख का साधन बनता है, अन्यथा विनाश का जो ताण्डव नृत्य होता है, वह किसी से ओझल नहीं है।
मर्यादा में रहता हुआ ही नदी का जल हमारे अनेक कार्यों को सिद्ध करता है। परन्तु जब वह मर्यादा से बाहर हो जाता है, तो बाढ का रूप धारण कर हजारों की जान और अरबों की सम्पत्ति का विनाश कर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देता है। यही आग और बिजली के सम्बन्ध में भी प्रतिदिन देखा और सुना जाता है। तभी तो आचार्य चाणक्य ने कहा है- स्वराज्यस्य मूलमिन्द्रियजय:। इसीलिए ही भारतीय संस्कृति में संयम, यम-नियम और आत्मानुशासन पर अत्यधिक बल दिया जाता है। स्वतन्त्र, स्वाधीन शब्द भी इसी भाव को व्यक्त करते हैं।
जिस प्रकार घर की सुन्दरता चीजों की अधिकता पर निर्भर नहीं होती, अपितु उपस्थित वस्तुओं की व्यवस्था पर ही निर्भर होती है। वैसे ही जीवन में सुख, शान्ति, सन्तोष और आनन्द की प्राप्ति का सम्बन्ध केवल धन, ज्ञान आदि से नहीं है, अपितु इनकी तथा दिनचर्या और जीवनचर्या की व्यवस्था पर निर्भर है। (क्रमश:) - प्रा.भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग - अगस्त 2014)
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