आज हर देश, मजहब, वर्ग और अवस्था से सम्बन्ध रखने वाला व्यक्ति सुख-शान्ति और सन्तोष चाहता है। हर कार्य को करते हुए प्रत्येक की यथाशक्ति मनोभावना यही होती है कि मुझे हर तरह से सुख ही मिले तथा कभी भी कहीं से दु:ख प्राप्त न हो। क्योंकि दु:ख में हर एक बेचैन हो जाता है और तब उसको अपना जीवन भी भार मालूम होता है। इसीलिए ही प्रत्येक व्यक्ति प्रात: से सायं तक सुख तथा सुख-साधनों के संचय में लगा रहता है और रात को सोता भी इसी के लिए ही है। अर्थात सब को हर समय सुख प्राप्ति की धुन सवार रहती है। अत एव सभी मनुष्यों के सभी प्रकार के कार्यों का एकमात्र केन्द्र बिन्दु सुख ही है। यही एक ऐसी बात है कि जिसके सम्बन्ध में सब एक स्वर से एकमत हैं, चाहे सबकी दृष्टि में सुख का स्वरूप और मार्ग भिन्न क्यों न हो?
सुख-दु:ख की परिभाषा- कुछ का विचार है कि संसार के पदार्थों में सुख है और कुछ समझते हैं कि अपने अन्दर ही सुख है। रोजमर्रा के जीवन की दृष्टि से जब हम सुख-दु:ख के सम्बन्ध में सोचते हैं, तो ये दोनों पक्ष कुछ अधूरे ही लगते हैं। क्योंकि यदि अपने अन्दर ही केवल सुख-दुख हों, तो फिर भौतिक पदार्थोंं के बिना भी सुख होना चाहिए। जबकि अपने अन्दर सुख मानने वाले भी भौतिक साधन जुटाते हुए देखे जाते हैं। यदि केवल संसार के पदार्थों में ही सुख हो, तो पदार्थ रखने वालों को कभी दु:ख नहीं होना चाहिए और एक चीज हर स्थिति में एक सी सुख देने वाली हो, पर ऐसा होता नहीं। पदार्थों से सुख मानने पर जो चीज किसी एक के लिए सुखदायक है, वह सबके लिए सदा सुख का कारण होनी चाहिए। अत: रोगी को भी स्वस्थ की तरह स्वादु भोजन में स्वाद आना चाहिए?
प्रतिदिन के व्यवहार में हम ऐसा अनुभव करते हैं कि जब कोई पदार्थ या बात हमारे अनुकूल होती है या उसके व्यवहार से अपनी इच्छा के अनुकूल प्रतीति होती है, तो हम सुख का अनुभव करते हैं या अपने आपको सुखी समझते हैं। अत: सबका अनुभव तो यही कहता है कि हम अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दु:ख अनुभव करते हैं।
चाहना और सुख- प्रत्येक व्यक्ति अपनी आशा पूर्ति पर सुखी और उसके पूरा न होने पर दुखी होता है। जैसे कि किसी को प्यास लगी हो, तो वह अपने आपको बहुत दुखी मानता है और यहाँ तक कहता है कि हाय ! मैं प्यास से मर रहा हूँ। जल के मिल जाने पर वह एकदम सुखी हो जाता है। अत: जिस व्यवहार से बाधा, रुकावट और इच्छा की पूर्ति में अड़चन आती है, वही दु:ख है। तभी तो हम देखते हैं कि जिसकी चाहनायें पूर्ण होती हैं, वही सुख-शान्ति प्राप्त करता है, न कि केवल चाहनाओं को चाहने वाला। अत: जिसकी इच्छायें पूर्ण होती हैं, वही शान्त, सन्तुष्ट, निश्चिन्त और सुखी होता है। ऐसी स्थिति के लिए ही कहा है-
चाह गई, चिन्ता मिटी, मनुआ बे परवाह।
जिनको कछु नहीं चाहिए, सो ही शहनशाह॥
हाँ, जब तक भौतिक शरीर है, तब तक तो कोई चाहरहित हो नहीं सकता। चाहों के पूरा न होने पर व्यक्ति इनकी पूर्ति की चिन्ता में ही लगा रहता है। संसार में चिन्ता ही सबसे बड़ी दु:ख की जड़ है। दूसरी ओर निश्चिन्त होने पर ही व्यक्ति सन्तुष्ट और सुखी होता है।
सन्तोष और सुख- वस्तुत: वही व्यक्ति सन्तुष्ट है, जिसकी प्रतिदिन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। जो इस दृष्टि से निश्चिन्त नहीं, वह कभी सन्तुष्ट भी नहीं हो सकता। यह ठीक है कि कुछ व्यक्ति स्वभाव से सन्तोषी होते हैं, जो हर हाल में मस्त रहते हैं। परन्तु ऐसे लाखों में एकाध ही होते हैं। दुनिया में ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है और न ही ऐसे सन्तोष से दुनिया का व्यवहार चल सकता है। आजकल प्राय: सन्तोष के नाम पर आलस्य और अन्याय सहने का अभिनय किया जाता है। शास्त्रों में सन्तोष का जो वर्णन मिलता है, वह चाहना की पूर्ति होने पर ही देखा जाता है। हाँ, व्यर्थ की चाहना से तो कुछ बनता नहीं। यथासम्भव प्रयास करने पर जो न्यायोचित फल प्राप्त हो, उसमें सन्तुष्ट होना ही सन्तोष है।
हमारा मन इच्छाओं का भण्डार है, मन में उठने वाली इच्छाओं की कोई सीमा नहींं। अत: किसी की भी सारी इच्छायें पूरी नहीं हो सकतीं। ऐसी स्थिति में सन्तोष का सहारा लेकर ही जीवन सुखी हो सकता है, अन्यथा हर इच्छा की पूर्ति के चक्र में व्यक्ति तड़प-तड़पकर ही रह जाता है।
प्रत्येक को सदा सन्तुष्ट रहने का यत्न करना चाहिए, जिससे प्रतिकूल परिस्थिति बेचैनी और आत्महीनता पैदा न कर सके। सन्तोष का मूलभाव यही है कि दूसरों की चीजों पर ललचाई नजर या भावना न रखना। सम्भवत: इसी भावना से कहा जाता है-
रूखा सूखा खायकर, ठण्डा पानी पी।
देख पराई चूपड़ी, क्यों ललचाए जी॥
और ऐसी भावना वाला व्यक्ति ही ‘हर हाल रहे मस्ताना‘ की भावना को चरितार्थ कर सकता है। दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर रीसो-रीस में अपने परिश्रम से अधिक चाहना तो वस्तुत: असन्तोष व लोभ ही है। यही दु:ख और अशान्ति का कारण बनता है। इसी से आज चारों ओर आपाधापी मची हुई है।
इच्छाओं की सीमा- प्रत्येक का यह अनुभव है कि इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। ये रबड़ की तरह बढाने से बढती हैं और घटाने से घटती हैं। दुनियाँ के पदार्थों की इच्छा पूरी करते-करते, वे तो पूरी नहीं होती, हम ही पूरे हो जाते हैं। अत: सभी इच्छाओं की पूर्ति तीन काल में भी नहीं हो सकती और न ही भौतिक शरीर के रहते हुए कोई इच्छा रहित हो सकता है। हाँ, इच्छारहित तो केवल जड़ ही हो सकता है। जीवन तो मौलिक इच्छाओं को पूरा करने से ही चलता है । इसीलिए पुरुषार्थचतुष्टय में काम (इच्छा) का अनिवार्य स्थान है।
इच्छाओं की अनिवार्यता के कारण ही इनको आवश्यकता के नाम से स्मरण किया जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से जब हम इन पर विचार करते हैं, तो इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि मनुष्य की इच्छायें व आवश्यकतायें अनन्त हैं और वे घटती-बढती रहती हैं। ये मौलिक, सहायक और सुविधावर्धक या मनोरञ्जक के भेद से तीन प्रकार की हैं। इनें परस्पर विरोध भी पाया जाता है। किसी विशेष इच्छा के अधिक तीव्र होने पर दूसरी मन्द पड़ जाती है। इस तरह कभी कोई प्रमुख हो जाती है और कभी कोई। ये थोड़ी देर के लिए ही पूर्ण होती हैं। अत: इनमें पुनरावृत्ति पाई जाती है। जहाँ ये स्थान, समय, रुचि के भेद से बदलती रहती हैं, वहाँ सामाजिक स्तर, सभ्यता और ज्ञान के विकास के साथ इनमें वृद्धि भी होती है। कभी कोई आवश्यकता आदत का रूप धारण कर लेती है।(क्रमश:) - प्रा.भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग - जुलाई 2014)