देश में एक बार फिर 15 अगस्त 2014 को स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर अनेक कार्यक्रमों का आयोजन होगा। देश में बढ़ते भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी, भुखमरी, अस्वास्थ्य की स्थिति और गरीबी की वजह से अनेक लोगों के लिये 15 अगस्त की आजादी एक भूली बिसरी घटना हो गयी है। आजादी को अब 67 वर्ष हो गये हैं और इसका मतलब यह है कि कम से कम पांच से सात पीढ़ियों ने इस दौरान इस देश में सांस ली होगी। हम देखते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियां फीकी पड़ती जाती हैं। एक समय तो उनको एक तरह विस्मृत कर दिया जाता है। अगर 15 अगस्त स्वतन्त्रता दिवस और और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस हर वर्ष औपचारिक रूप से पूरे देश में न मनाया जाये तो शायद हम इन तारीखों को भूल चुके होते। वैसे निरन्तर औपचारिक रूप से मनाये जाने के बाद भी कुछ वर्षों बाद एक दिन यह स्थिति आयेगी कि इसे याद रखने वालों की संख्या कम होगी या फिर इसे लोग औपचारिक मानकर इसमें अरुचि दिखायेंगे।
ऐतिहासिक स्मृतियों की आयु कम होने का कारण यह है कि इस संसार में मनुष्य की विषयों में लिप्तता इस कदर रहती है कि उसमें सक्रियता का संचार नित नयी ऐतिहासिक घटनाओं का सृजन करता है। मनुष्य जाति की इसी सक्रियता के कारण ही जहाँ इतिहास दर इतिहास बनता है वही उनको विस्मृत भी कर दिया जाता है। हर पीढ़ी उन्हीं घटनाओं से प्रभावित होती है जो उसके सामने होती हैं। वह पुरानी घटनाओं को अपनी पुरानी पीढ़ी से कम ही याद रखती है। इसके विपरीत जिन घटनाओं का आध्यात्मिक महत्व होता है, उनको सदियों तक गाया जाता है। हम अपने आध्यात्मिक स्वरूपों में भगवत्स्वरूप की अनुभूति करते हैं । इसलिये ही भगवान श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा, श्री शिव, श्री राम, श्री कृष्ण तथा अन्य स्वरूपों की गाथायें इतनी दृढ़ता से हमारे जनमानस में बसी हैं कि अनेक ऐतिहासिक घटनायें उनकों विस्मृत नहीं करा पातीं। हिन्दी के स्वर्णिम काल में सन्त कबीर, मानस हंस तुलसी, कविवर रहीम और भक्तमणि मीरा ने हमारे जनमानस को आन्दोलित किया तो उनकी जगह भी ऐसी बनी है कि वह हमारे इतिहास में भक्त स्वरूप हो गये और उनकी श्रेणी भगवान जैसी बनी। हम इन महामनीषियों के सम्बन्ध में गीता में वर्णित इस सन्देश का उल्लेख कर सकते हैं जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे भक्त मुझको भजते हैं वैसे ही मैं उनको भजता हूँ।
स्वतन्त्रता संग्राम के समय अनेक महापुरुष हुए। उनके योगदान का अपना इतिहास है, जिसे हम पढ़ते आ रहे हैं। पर हैरानी की बात है कि इनमें से अनेक भारतीय अध्यात्म से सराबोर होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उनकी छवि भक्त या ज्ञानी के रूप में नहीं बन पायी। स्पष्टतः स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी सक्रिय छवि ने उनके अध्यात्मिक पक्ष को ढंक दिया। स्थिति यह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी को भी अनेक लोग राजनीतिक सन्त कहते हैं, जबकि उन्होंने मानव जीवन को सहजता से जीने की कला सिखाई थी ।
ऐसा नहीं है कि भारतीय आध्यात्मिक दर्शन राष्ट्र या मातृभूमि को महत्व नहीं देता। भगवान श्रीकृष्ण ने तो अपने मित्र श्री अर्जुन को राष्ट्रहित के लिये उसे क्षात्र धर्म अनुसार निर्वाह करने का उपदेश दिया। वस्तुत: क्षात्र कर्म का निर्वाह मनुष्य के हितों की रक्षा के लिये ही किया जाता है। यह जरूर है कि चाहे कोई भी कर्म हो आध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही पूर्णरूपेण उसका निर्वाह किया जा सकता है। देखा जाये तो भारत और यूनान पुराने राष्ट्र माने जाते हैं। भारतीय इतिहास के अनुसार एक समय यहाँ के राजाओं के राज्य का विस्तार ईरान और तिब्बत तक इतना व्यापक था कि आज का भारत उनके सामने बहुत छोटा दिखाई देता है। ऐसे राजा चक्रवर्ती राजा कहलाये।
यह सही है कि बाद में विदेशी शासकों ने यहाँ आक्रमण किया और फिर उनका राज्य भी आया। मगर भारत और उसकी संस्कृति अक्षुण्ण रही। इसका अर्थ यह है कि 15 अगस्त 1947 को भारत ने केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त की और कालान्तर में वैसा ही महत्व भी माना गया। स्वतन्त्रता के बाद भारतीय अध्यात्म को तिरस्कृत कर पश्चिम से आये विचारों को न केवल अपनाया गया, बल्कि उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों से जोड़ा भी गया। हिन्दी में अनुवाद कर विदेशी विद्वानों को महान कालजयी विचारक बताया गया। इससे धीमे-धीमे सांस्कृतिक विभ्रम की स्थिति बनी और अब तो यह स्थिति यह है कि अनेक नये नये विद्वान भारतीय अध्यात्म के प्रति निरपेक्ष भाव रखना आधुनिकता समझते हैं। इसके बावजूद 67 साल में इतिहास की छवि भारत के आध्यात्मिक पक्ष को विलोपित नहीं कर सकी तो इसका श्रेय उन महानुभावों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने निष्काम भाव से जनमानस में अपने देश के पुराने ज्ञान की धारा को प्रवाहित रखने का प्रयास किया। यही कारण है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को मनाने तथा भीड़ को अपने साथ बनाये रखने के लिये अनेक तरह के प्रयास करने पड़ते हैं जबकि रामनवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और महाशिवरात्रि पर स्वप्रेरणा से लोग उपस्थित हो जाते हैं। एक तरह से इतिहास और आध्यात्मिक धारायें पृथक-पृथक हो गयी हैं, जो कि होना नहीं चाहिए था।
एक जो सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस स्वतन्त्रता ने भारत का औपचारिक रूप से बंटवारा किया जिसने इस देश के जनमोस को निराश किया। अनेक लोगों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन जीना पड़ा। शुरुआती दौर में विस्थापितों को लगा कि यह विभाजन क्षणिक है। पर कालान्तर में जब उसके स्थाई होने की बात सामने आयी तो स्वतन्त्रता का बुखार भी उतर गया। जो विस्थापित नहीं हुए उनको देश के इस बंटवारे का दुःख होता है। विभाजन के समय हुई हिंसा का इतिहास आज भी याद किया जाता है। यह सब भी विस्मृत हो जाता, अगर देश ने वैसा स्वरूप पाया होता जिसकी कल्पना आजादी के समय दिखाई गयी। ऐसा न होने से निराशा होती है। पर भारतीय आध्यात्मिक दर्शन इससे उबार लेता है। फिर जब हमारे अन्दर यह भाव आता है कि भारत में तो प्राचीन काल से ही राजा बदलते रहे हैं, तब 15 अगस्त की स्वतन्त्रता की घटना के साथ जुड़ी हिंसक घटनाओं का तनाव कम हो जाता है। सीधी बात कहें तो हमारे देश के जनमानस में वही तिथि या घटना अपनी अक्षुण्णता बनाये रख पाती है, जिसमें आध्यात्मिकता का पुट हो। ऐतिहासिकता के साथ आध्यात्मिकता का भाव हो। वरना भारतीय जनमानस औपचारिकताओं में शनै शनै अपनी रुचि कम कर देता है। इसी भाव के कारण दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय पर्वों पर आम जनमानस का उत्साह धार्मिक पर्वों की अपेक्षा कम दिखाई देता है। हालांकि आध्यात्मिकता के बिना ऐतिहासिक घटनाओं के प्रति आम जनमानस में अधूरापन दिखाना जागरूक लोगों को बुरा लगता है । - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग - अगस्त 2014)
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