अथर्ववेद (12/1/1) के सत्यं बृहत् ऋतम् उग्रम्....। इस मन्त्र में पृथिवी के धारक तत्वों की गणना की गई है। यहाँ केवल सत्य पर विचार किया जा रहा है। सत्य का अर्थ केवल वाचिक सत्य अर्थात् सत्य भाषण मात्र नहीं है, अपितु इसका व्यावहारिक रूप अभीष्ट है। इसके अनुसार सत्य का पक्ष लेना, सत्य मार्ग पर आरुढ रहना, असत्याचरण को छोड़कर सत्याचरण का ग्रहण इत्यादि रूपों में सत्य का ही विस्तार है। सत्य के विस्तृतरूप के विषय में ही महर्षि दयानन्द कहते हैं- सत्य के ग्रहण करने तथा असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। यहाँ सत्य का अर्थ केवल वाचिक सत्य न होकर व्यावहारिक सत्य ही है, जो पूरे जीवन से सम्बन्धित है।
सत्य से बढकर अन्य कोई धर्म नहीं है- नास्ति सत्यात् परोधर्मः। इतना ही नहीं, अपितु सत्य स्वयं ही धर्म है। इसीलिए कहा गया है- सत्यं वदन्तमाहुः धर्मं वदतीति। अर्थात् सत्य बोलने वाले के लिए कहा जाता है कि यह धर्म को कह रहा है। महाराज युधिष्ठिर सत्य के कारण ही धर्मराज कहलाए थे। महर्षि दयानन्द स्पष्ट रूप में कहते हैं- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार कर करने चाहिए। यहाँ केवल वाचिक सत्य नहीं है, अपितु दैनिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाला व्यावहारिक सत्य है। अथर्ववेद में इसी व्यावहारिक सत्य को राष्ट्र के धारक तत्त्वों में प्रथम स्थान दिया गया है, केवल वाचिक सत्य को नहीं। यदि व्यावहारिक रूप में सत्य का पक्ष नहीं लिया जायेगा, तो राष्ट्र विप्लवग्रस्त हो जायेगा, नष्ट हो जायेगा। कुछ उदाहरणों से इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है- महाराज शान्तनु का पुत्र देवव्रत पूर्ण युवा, विवाह योग्य तथा पिता के बाद राज्य का अधिकारी है, किन्तु शान्तनु वृद्धावस्था में एक धीवर कन्या सत्यवती पर आसक्त होकर विवाह प्रस्ताव कर देते हैं। कहानी सबको याद है। वहीं देवव्रत अपने वृद्ध पिता की कामपिपासा की शान्ति के लिए दो प्रतिज्ञाएँ करता है-
(1) मैं आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा, जिससे मेरी सन्तान भी मेरे पिता शान्तनु के राज्य की अधिकारिणी नहीं होगी तथा (2) मैं स्वयं भी राज्य ग्रहण नहीं करूँगा।शान्तनु का विवाह हो गया तथा देवव्रत अपनी दोनों प्रतिज्ञाओं को पूर्ण करने के कारण भीष्म कहलाए। यह वाचिक सत्य तो था, किन्तु क्या व्यावहारिक सत्य भी था? देवव्रत का यह कार्य नितान्त ही असत्य-अधर्मयुक्त था। क्योंकि राज्य का अधिकारी वही था तथा कवि का यह कथन बिल्कुल सत्य ही है कि अधिकार खोकर बैठना यह महादुष्कर्म है। देवव्रत ने वृद्ध पिता की वासनापूर्त्यर्थ राज्य छोड़कर अधर्म ही किया था। यदि हस्तिनापुर के सिंहासन पर शास्त्रवेता, धनुर्धारी युवराज देवव्रत बैठे होते, तो महाभारत ही न होता तथा यह देश मिट्टी में न मिलता। तब नेत्रों तथा बुद्धि दोनों से ही निपट अन्धे तथा पुत्रमोह में अन्धे धृतराष्ट्र का जन्म ही न होता, दुर्योधन की तो बात ही क्या है? महर्षि मनु कहते हैं-
गुरोरप्यवलिप्तवस्य कार्याकार्यमजानतः
उत्पथप्रतिपन्नस्य कार्यश्रेयोऽनुशासनम्।
यदि गुरु, माता-पिता आदि कोई भी कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का विचार न करके गलत मार्ग पर चलने लगें, तो उनको भी अनुशासित करना ही श्रेयस्कर है, न कि उनकी इच्छापूर्ति! देवव्रत ने यही गलती की। उपनिषद् का ऋषि मुक्तकण्ठ से अपने शिष्य को कह रहा है- यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वया उपास्यानि नेतराणि। वत्स ! जो भी हमारे सुचरित हो, उनका ही अनुकरण करना, अन्यों का नहीं। यदि देवव्रत ने ऋषि के इस वचन को ही पढ लिया होता, तब भी वह कुमार्गगामी अपने पिता को रोक सकता था तथा उसे रोकना चाहिए था। तभी यह राष्ट्र सुरक्षित रहता। सत्य धर्म ही राष्ट्र को सुरक्षित रख सकता है, असत्याचरण नहीं।
अब सत्य के वाचिक पक्ष को लेते हैं। सत्य बोलने का केवल यही अर्थ नहीं है कि मिथ्या न बोला जाए। इसका एक अति अनिवार्य अंग यह भी है कि जहाँ आवश्यकता पड़े, वहाँ मुंह बन्द न रखकर सत्य का पक्ष लिया जाए। उदाहरण देखिए- पहला उदाहरण है पितामह भीष्म का। वे कौरवों की उस सभा में भी विद्यमान थे, जबकि महारानी द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था। क्या यह सत्य - धर्मयुक्त कार्य था? शास्त्रज्ञ विद्वान् पितामह उस समय एक शब्द भी नहीं बोले, जबकि उनके सामने ही उनकी कुलवधू की मर्यादा तार-तार की जा रही थी। यदि भीष्म विरोध करते, तो किसी की हिम्मत द्रौपदी को राजसभा में बुलाने की भी नहीं हो सकती थी। भीष्म ने तब असत्य अधर्म का पक्ष लिया। तब शास्त्रवेत्ता भीष्म को मनु की यह उक्ति स्मरण नहीं हो सकी - न ते वृद्धाः ये न वदन्ति सत्यम्। अर्थात् जो असत्य के विरुद्ध तथा सत्य के पक्ष में मुँह नहीं खोलते, वे आयु में बड़े होने पर भी वृद्ध कहलाने योग्य नहीं है। भीष्म भी ऐसे ही वृद्ध थे। द्रौपदी का अपमान पूरे राष्ट्र का अपमान था, जिस कारण आज भी हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। वह कैसा पितामह हैं, जिसके सामने उसकी पौत्री स्वरूपा कुलवधू को नग्न किया जा रहा हो तथा वह एक शब्द भी इसके विरुद्ध न बोले। धिक्कार है !
दूसरा उदाहरण- हैदराबाद सत्याग्रह में आर्य समाज का संगठन जालिम निजाम के विरुद्ध मोर्चा ले रहा था। गैर आर्य समाजी भी साथ देते थे। सत्याग्रहियों पर निर्मम अत्याचार हो रहे थे, किन्तु उस व्यक्ति ने जिसे सत्य तथा अहिंसा का अवतार कहा जाता है, एक शब्द भी इस अन्याय के विरुद्ध नहीं बोला। तभी तो बेधड़क उपदेशक कुंवर सुखलाल जी ने कहा था-
हमारी इमदाद न कर प्यारे गांधी।
पर यह तो कह दे कि बुरा हो रहा है॥
गांधी को भी राष्ट्रपिता कहा जाता है, किन्तु यही राष्ट्रपिता इस राष्ट्रीय कार्य के समय मौन था। इस सत्य को सरदार पटेल ने इस तरह प्रकट किया था- हैदराबाद में मिलट्री एक्शन तीन दिन में इसीलिए सफल हो सका कि इसकी भूमिका पहले ही आर्य समाज ने तैयार कर दी थी। इसी सत्यवादी राष्ट्रपिता ने घोषणा की थी कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा, किन्तु पाकिस्तान बन गया। सत्य के पुजारी की वह घोषणा कहाँ गई? यदि उस समय ये महात्मा अपने सत्य पर अटल रहते तो पाकिस्तान न बनता। शक्तिशाली राष्ट्र के दो टुकड़े हो गये तथा परस्पर विरुद्ध हो गये, जिसका परिणाम सबके सामने है ही।
ये उक्त पितामह तथा राष्ट्रपिता इन दोनों के मात्र वाचिक सत्याचरण के कारण यह महान देश बर्बाद हो गया। इन लोगों से तो सुकरात तथा गैलीलियो जैसे लोग भी अच्छे थे, जो हंसते-हंसते विष का प्याला पी गये, किन्तु अपने सत्य से नहीं डिगे। महर्षि दयानन्द ने मौनव्रत धारण किया हुआ है। पास में ही कोई उच्च स्वर से भागवत का पाठ करने लगा। स्वामी जी मौन तोड़कर भागवत का खण्डन प्रारम्भ कर देते हैं। वे चुप भी रह सकते थे, किन्तु सामने असत्य को देखकर तथा सुनकर चुप रहना अधर्म है। एक अन्य अवसर पर वे कहते हैं- ‘‘दयानन्द को तोप के आगे बान्ध कर भी पूछा जायेगा कि सत्य क्या है? तो उनके मुख से वेदों की श्रुति ही निकलेगी।‘‘ यही है सत्य का व्यावहारिक रूप। असत्य-अधर्म को सुनकर तथा देखकर उसके विरुद्ध अनिवार्य रूप में वाचिक तथा अन्य क्रियात्मक प्रतिक्रिया की जाए, यही है सत्य का वास्तविक स्वरूप। - डॉ. रघुवीर वेदाचार्य (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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