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उत्तम गुण मुझमें आएँ

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ओ3म् यज्ञस्य चक्षु: प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्‍वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमाना:॥ अथर्ववेद 2.35.5॥
ऋषि: अङ्गिरा:॥ देवता विश्‍वकर्मा॥ छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप्॥
विनय- मेरे जीवन-यज्ञ का भरण-पोषण करने वाली मेरी दर्शनशक्ति है। इससे नित्य नया सत्यज्ञान पाता हुआ मेरा मनुष्य जीवन उन्नत से उन्नत होता जा रहा है। इस यज्ञ का साधनभूत जो मेरा स्थूल शरीर है, उसका भरण-पोषण मुख द्वारा अन्न ग्रहण करने से हो रहा है, पर मेरा यह सब मानसिक और शारीरिक पोषण यज्ञ के लिए ही है। मैं उन्नत हुए मन से, शरीर से, इन्द्रियों से जो कुछ करता हूँ वह सब हवन ही करता हूँ। वाणी से जो बोलता हूँ वह हवन ही करता हूँ। ऐसा कुछ नहीं बोलता जो कि प्रभु को साक्षी रखकर नहीं होता, जोकि अन्यों का हितकर नहीं होता। कानों से जो सुनता हूँ वह प्रभु-अर्पण-बुद्धि से सुनता हूँ। वह श्रेष्ठ पवित्र ही श्रवण करता हूँ जोकि फलत: सर्वभूतहित के लिए हो। इसी प्रकार मन के भी एक-एक मनन-चिन्तन को पवित्र, निर्विकार, हवनरूप करने का यत्न करता हूँ। मैं सदा स्मरण रखता हूँ कि यह मनुष्य-जीवन मुझे विश्‍वकर्मा प्रभु ने यज्ञरूप करके दिया है। मुझे यह ध्यान रहता है कि यह जीवन-यज्ञ उस प्रभु का आरम्भ किया हुआ, चलाया हुआ है। जिस यज्ञस्वरूप ने यह सब विश्‍व-ब्रह्माण्ड रचा है, उसी विश्‍वकर्मा ने अपने इस विश्‍व में मेरा यह छोटा-सा जीवनयज्ञ भी शतवर्ष तक चलने के लिए प्रारम्भ किया है। यही विचार है जो मुझे अपने एक-एक कर्म को संयमपूर्ण, पवित्र और त्यागमय बनाने को प्रेरित करता है। मैं सचिन्त और सावधान रहता हूँ कि कहीं यह विश्‍वकर्मा का विस्तृत किया हुआ पवित्र यज्ञ मेरे किसी कर्म से कभी भ्रष्ट न हो जाए। इसलिए हे देवो ! प्रभु के संसार-यज्ञ को चलानेवाली दिव्यशक्तियो ! तुम मेरे इस यज्ञ में भी प्रसन्नचित्त होकर आओ और इसे अधिक-अधिक यज्ञिय, पवित्र बनाओ। तुम्हारा तो कार्य ही यज्ञ में आना है, अत: हे दिव्य गुणो ! तुम मुझमें आओ, प्रसन्नचित्त होकर आओ। मैं अपने जीवन को यज्ञ बनाता हुआ तुम्हें बुला रहा हूँ, अत: हे यज्ञप्रिय दैवभावो! तुम प्रसन्नतापूर्वक मुझमें वास करो। देवों के सब गुण, सब देवभाव, सब देवत्व मुझमें आ जाएँ, स्वभावत: मुझमें आ जाएँ, मुझमें बस जाएँ।

शब्दार्थ- यज्ञस्य=मनुष्य-जीवन-यज्ञ के प्रभृति:= भरण-पोषण का साधन चक्षु:= दर्शनशक्ति है मुखं च=और मुख भी है। वाचा श्रोत्रेण मनसा=वाणी से, कान से और मन से जुहोमि=मैं हवन ही करता हूँ। इमम् यज्ञम्=यह मेरा जीवन-यज्ञ विश्‍वकर्मणा=जगद्-रचयिता परमात्मा ने विततम्= विस्तृत किया है, इसमें देवा:=सब देव, दिव्यभाव सुमनस्यमाना:=प्रसन्न होते हुए आ यन्तु=आएँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- मार्च 2015)

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