विशेष :

वैदिक युद्धवाद

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Vedic Warism 000

ओ3म् मूढा अमित्रा न्यर्बुदे जह्येषां वरं वरम्।
अनया जहि सेनया ॥1॥
ये रथिनो ये अरथा असादा ये च सादिनः।
सर्वानदन्तु तान् हतान् गृध्राः श्येनाः पतत्रिणः॥2॥ (अथर्ववेद11.10.21,24)

शब्दार्थ- (न्यर्बुदे) हे शक्तिसम्पन्न सेनापते ! (अमित्राः) शत्रु लोग (मूढाः) चेतनारहित हो जाएँ (ऐषां वरं वरम्) इनके श्रेष्ठ-श्रेष्ठ सेनापतियों को (जहि) मार डाल, नष्ट कर दे। शत्रुओं को (अनया सेनया) अपनी इस विशाल-वाहिनी से (जहि) मार डाल ॥1॥

हे सेनापते ! (ये) जो शत्रु लोग (रथिनः) रथों पर सवार हैं और (ये) जो (अरथाः) रथ पर सवार नहीं हैं (असादाः) जो घोड़ों पर सवार नहीं हैं (च) और (ये सादिनः) जो घोड़ों पर सवार हैं उन सबको मार डाल जिससे (तान् सर्वान् हतान्) उन सब मरे हुओं को (गृध्राः) गीध (श्येनाः) बाज और (पतत्रिणः) दूसरे चील-कव्वे आदि पक्षी (अदन्तु) खा जाएँ ॥2॥

भावार्थ- वैदिक युद्धवाद किसी टिप्पणी का भिखारी नहीं है। वैदिक योद्धाओं को ऐसा भयंकर और घमासान का युद्ध करना चाहिए कि शत्रु लोग चेतनारहित हो जाएँ। शत्रु-पक्ष के वीर योद्धाओं को चुन-चुनकर मार देना चाहिए।

योद्धाओं को ही नहीं, सेना को भी समाप्त कर देना चाहिए। जो रथ पर चढकर लड़ने वाले हैं, घुड़सवार हैं अथवा पैदल हैं- सबका सफाया कर देना चाहिए। शत्रुओं पर दया वैदिक मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है। स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

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