प्राचीन काल में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रूप में मनाया जाता था। उस समय वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। लोग वैदिक साहित्य पढते थे प्रतिदिन, लेकिन वर्षा काल में विशेष रूप से पढा जाता था। वेद पाठ का आयोजन विशेष रूप से किया जाता था। भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता था। इस दिन को विशेष रूप से विद्यारम्भ दिवस के रूप में मनाया जाता था। बटुकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता था। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है, जिसे हम वर्तमान में भी निभाते चले आ रहे हैं।
हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गाँव के निकट आकर रहने लगते थे। इसका लाभ ग्रामवासी उठाते थे। इसे चातुर्मास या चौमासा करना कहते हैं। चौमासे में ॠषि -मुनि एक जगह वर्षा काल के चार महीनों तक ठहर जाते थे। आज भी यह परम्परा जारी है। इन चार महीनों में वेद अध्ययन, धर्म-उपदेश और ज्ञान चर्चा होती थी। श्रद्धालु एवं वेदाभ्यासी इनकी सेवा करते थे और ज्ञान प्राप्त करते थे। इस अवधि को ‘ॠषि तर्पण‘ कहा जाता था।
जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था उसे उपाकर्म कहते हैं। यह वेदाध्यन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारम्भ किया जाता था। इसलिए इसे श्रावणी उपाकर्म भी कहा जाता है। पारस्कर गृह्यसूत्र में लिखा है- अथातोध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् (2/10/2-2) यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्वावणी पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढे चार मास चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था। इसी परम्परा में हिन्दू संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं। भ्रमण त्याग कर चार मास एक स्थान पर ही रह कर प्रवचन और उपदेश करते हैं । मनुस्मृति में लिखा है-
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाऽप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्ध पंचमान्॥
पुष्पे तु छन्दसां कुर्याद्वहिरुत्सर्जनं द्विज:।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णे प्रथमेऽहनि॥
अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भ्राद्रपद पौर्णमासी तिथि से प्रारम्भ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढे चार मास तक छन्द वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करे।
इस कालावधि में प्रतिदिन वेदाध्यन किया जाता था। नए यज्ञोपवीत को धारण करके स्वाध्याय में शिथिलता न लाने का व्रत लिया जाता था। वेद का स्वाध्याय न करने से द्विजातियाँ शूद्र एवं स्वाध्याय करने से शूद्र भी ब्राह्मण की कोटि में चला जाता है। इस तरह वेदादि के अध्ययन एवं स्वाध्याय का प्राचीनकाल में बहुत महत्व था।
राजपूत काल में यह पर्व राखी के रूप में परिवर्तित हुआ। नारियाँ को दुश्मन यवनों से बहुत खतरा रहता था। वे बलात् अपहरण कर लेते थे। इससे बचने के लिए उन्होंने वीरों को उनकी कलाई पर सूत्र बान्धकर अपनी रक्षा का संकल्प दिलाया। तब से यह प्रसंग चल पड़ा और रक्षाबन्धन का पर्व भी श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। राखी का अर्थ ही होता है, रखना, सहेजना, रक्षित करना। कोई भी नारी किसी भी वीर को रक्षा सूत्र (राखी) भेज अपना राखी-बन्ध भाई बना लेती थी। वह आजीवन उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझाता था।
चित्तौड़ की महारानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के शासक से अपनी रक्षा हेतु राखी भेजी थी और बादशाह हुमायूं ने राखी का मान रखते हुए तत्काल चित्तौड़ पहुंचकर उसकी रक्षा की थी। तब से रक्षा-सूत्र के बन्धन का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ और रक्षा बन्धन पर्व मनाया जाने लगा, जिसका वर्तमान स्वरूप हम सभी के सामने है। - ललित शर्मा (दिव्ययुग - अगस्त 2014)
During the Rajput period, this festival changed into Rakhi. The women were in great danger from enemy mountains. They used to abduct. To avoid this, he pledged his protection to the heroes by tying the thread on his wrist. Since then this incident started and the festival of Rakshabandhan was also celebrated on Shravan Sudi Poornima. Rakhi only means to keep, save, protect.
Journey from Shravani to Rakshabandhan | Vedas and Vedic Literature | Wearing Yagyopaveet | Preaching and Discussion of Knowledge | Sage Tarpan | Study of Vedas | Excretory Emission | Protect Him for Life | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Manikpur - Unjha - Kashipur | दिव्ययुग | दिव्य युग |