यज्ञोपवीत अर्थात उपनयन संस्कार हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक प्रमुख संस्कार है। प्रत्येक संस्कार का अपना अलग व विशेष महत्व माना गया है। यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार के नाम से भी जाना जाता है । अगर यज्ञोपवीत का सन्धिविच्छेद किया जाए तो इसका अर्थ होगा यज्ञ उपवीत अर्थात यज्ञोपवीत ।
प्रत्येक मनुष्य में रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण तीन प्रवृत्तियाँ होती हैं। इन तीनों गुणों में सतोगुण की प्रवृत्ति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सतोगुण की प्रधानता के लिए कुछ संस्कारों का विधान किया गया है। इनमें से उपनयन संस्कार को सर्वप्रमुख माना गया है।
वेदों के अनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कार विधि में तीन सूत्रों को तीन आश्रमों के अनुसार बांटा है। उन्होंने यज्ञोपवीत में तीन धागों का पर्याय ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम से लगाया है। उन्होंने माना है कि संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
यज्ञोपवीत के तीन धागे तीन ऋण के प्रतीक भी माने गये हैं। प्रथम धागा पितृ ऋण, द्वितीय धागा गुरु ऋण और तीसरा धागा देव ऋण का प्रतीक माना गया है। यज्ञोपवीत धारण करने वाले को इन तीनों ऋणों से उऋण होना होता है।
आजकल यज्ञोपवीत संस्कार की महत्ता की अनदेखी की जा रही है। झंझटों से बचने के लिए लोग विवाह के समय भी इस संस्कार को पूर्ण करा लेते हैं। क्योंकि जिनका उपनयन संस्कार नहीं किया जाता, विवाह के समय उनको जनेऊ धारण करना अनिवार्य है।
सनातन धर्म के अंतर्गत सूत के इन धागों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक माना गया है। जिस समय गुरु या आचार्य यज्ञोपवीत धारण करवाते हैं तो यज्ञोपवीत निम्न मन्त्र के द्वारा धारण किया जाता है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:॥
यज्ञोपवीत धारण करने वाला व्यक्ति ब्रह्मा के प्रति समर्पित माना जाता है। लघुशंका और शौच जाते समय जनेऊ को दाहिने कान के ऊपर लपेटा जाता है, ताकि यज्ञोपवीत की स्वच्छता बनी रहे। इसके मूल में दूसरा कारण है कि इससे कान के पीछे की नस दबती है।
कान पर जनेऊ लपेटने का वैज्ञानिक तथ्य यह है कि कान के पीछे की नस के दबने से मलमूत्र विसर्जन में आसानी होती है। क्योंकि इसका सम्बन्ध पेट की आंत से माना गया है। इससे आंतों पर दबाव पड़ता है और मनुष्य को परेशानी नहीं होती। विद्यालयों में बच्चों के कान खींचने के मूल में एक यह भी तथ्य छिपा हुआ है कि उससे कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तन्द्रा कार्य करती है। इसलिए भी यज्ञोपवीत को दायें कान पर धारण करने का उद्देश्य बताया गया है। हृदय रोग, रक्तचाप व कब्ज आदि पेट के रोगों में भी इससे लाभ होता है ।
यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरन्त ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है। - सुदेश (दिव्ययुग - अगस्त 2014)
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