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श्रावणी उपाकर्म का वैदिक स्वरूप

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guru jiउत्सव प्रियता भारत की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। पर्व हमारी भावनात्मक एकता, सामाजिक संगठन और जातीय गौरव के प्रतीक हैं। पर्वों की लम्बी परम्परा में श्रावणी का महत्वपूर्ण स्थान है। वैदिक चिन्तन परम्परा के अनुसार इस पर्व का सम्बन्ध वेदाध्ययन से है। श्रवण नक्षत्र की पूर्णिमा को मनाने के कारण इसे श्रावणी कहते हैं। श्रवण का अर्थ होता है, सुनना। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रन्थों व धर्म ग्रन्थों का सुनना और सुनाना श्रावण कर्म कहलाता है। वेदाध्ययन और स्वाध्याय मानव जीवन का प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया है। स्वाध्याय का अर्थ होता है आत्मचिन्तन, तप, ईश्‍वर विचार, वेद तथा श्रेष्ठ जीवन निर्माण करने वाली पुस्तकों को पढ़ना, पढ़ाना, पढ़े हुए को अपना बना लेना सभी स्वाध्याय का अर्थ देते हैं। मानव जीवन का लक्ष्य रहा है, अज्ञान को दूर करके ज्ञान प्राप्ति करना और ब्रह्म के परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करना। इस उद्देश्य की प्राप्ति स्वाध्याय-साधना से होती है। अतः स्वाध्याय का महत्व अत्यधिक है।

इतिहास साक्षी है कि अनेक ऋषि-मुनि, सन्त, विचारक स्वाध्याय के बल से संसार में अमर हो गए। गुरुकुल परम्परा में इसी उद्देश्य को लेकर गुरु नवदीक्षित स्नातकों को उपदेश देते थे- स्वाध्यायान्मा प्रमदः। स्वाध्याय कर्म में कभी प्रमाद नहीं होना चाहिए। जो तुमने पढ़ा है उसे जीवन में दुहराते रहना। सांसारिक कार्यों में संलग्न होकर भी कुछ समय स्वाध्याय के लिए अवश्य निकालते रहना। मनु का भी इसी की ओर संकेत है- स्वाध्याये नित्युक्तः स्यात्। चाहे किसी अन्य कर्म में छुट्टी हो जाय, किन्तु स्वाध्याय में व्यवधान नहीं आना चाहिए। वह तो नित्य कर्म है। स्वाध्याय से मनुष्य जीवन पवित्र बनता है। स्वाध्याय करने से जीवन पाप से पुण्य की ओर, अधर्म से धर्म की ओर, असत्य से सत्य की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर अग्रसर होता है। स्वाध्यायशील का जीवन संयमित, सन्तुष्ट एवं व्यवस्थित होने लगता है। वह रोगों से मुक्त होकर सुख की नींद सोता है। स्वाध्याय से विवेक व आत्मबोध जाग्रत होने लगता है। स्वाध्याय की महिमा अपार है।

वर्षाऋतु में वनों और आश्रमों से संन्यासी, वानप्रस्थी, साधक व पितरजन नगरों में वर्षाकाल व्यतीत करने आ जाते थे। नागरिकजन भी पावस ऋतु में कार्य व्यापार से मुक्त होकर, स्वाध्याय, सत्संग और यज्ञ में समय व्यतीत करते थे। यज्ञ के व्रती बनते थे। यज्ञोपवीत धारण करके व्रत-संकल्प लेते थे। पुराने यज्ञोपवीत को बदलकर नया धारण करते थे। भाव यही होता था कि जो व्रत-संकल्प यज्ञमय जीवन जीने के लिए हैं, उनका नवीनीकरण हो जाये। उन्हें दुहराते थे, जिससे भाव-भावना दृढ़ बनी रहे। ज्ञान चर्चा व धर्म चर्चा का क्रम चलता था। वनों से आए हुए साधक, ज्ञानी व तपस्वीजन गृहस्थियों का धर्मोपदेश से जीवन मार्ग प्रशस्त करते थे। अपने अनुभवों से अध्यात्म तथा परमार्थ की ओर लोगों को प्रेरित करते थे। वर्षा की समाप्ति पर ज्ञानी साधकों, सन्तों व पितरों का विदाई समारोह होता था। तब उन्हें उत्तम भोजन कराके साथ के लिए खाद्य सामग्री भेंट में दी जाती थी। इसी श्रद्धापूर्वक किए हुए कर्म को श्राद्ध कहते थे। आजकल इसका अर्थ उलटा समझा जाने लगा। मृतक का श्राद्ध तर्कहीन व सिद्धान्त विरुद्ध है।

इस प्रकार श्रावणी का मुख्य उद्देश्य होता था, घर-घर में वेदपाठ और घर-घर में यज्ञ कर्म। इससे व्यक्ति, परिवार, सन्तान व समाज में श्रेष्ठ विचारों, संस्कारों और परम्पराओं का प्रचलन बना रहता था। जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय रहता था। जीवन तनाव, चिन्ता, रोग, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, पाप, वासना से बचा रहता था। वह था श्रावणी उपाकर्म का वैदिक स्वरूप, जो कि मूलात्मा से छिन्न-भिन्न हो गया। मात्र चिह्न रूप में परम्परा का निर्वाह किया जा रहा है।

आज वेद के अनुयायियों के समक्ष चुनौती और प्रश्‍न खड़ा है- को वेदानुद्धरिष्यति? अब वेदों की रक्षा कौन करेगा? कौन पढ़ेगा? कौन पाठक, द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी बनेगा? आर्य हिन्दू जनता को इस ओर गम्भीरता व बेचैनी से सोचना चाहिए। यही इस श्रावणी पर्व का मूक सन्देश है कि वेद के पठन-पाठन के लिए कुछ करो। वेद ज्ञान से जीवन, परिवार एवं समाज को जोड़ो।

कालान्तर में भारतीय समाज में श्रावणी उपाकर्म रक्षाबन्धन के नाम से मनाया जाने लगा। प्राचीनकाल में तत्वज्ञ ब्राह्मण वेद की रक्षार्थ क्षत्रियों व वैश्यों के हाथों में रक्षा सूत्र बांधते थे। यज्ञों में भी यजमानों के हाथों में रक्षा सूत्र बांधे जाते थे। जो आज भी विकृत रूप मे घर में कथा, यज्ञ व शुभकर्म होने पर पुरोहित यजमान के हाथ में बांधते हैं। मध्ययुग में विदेशी आक्रान्ताओं के भय से भारतीय नारियाँ अपने सतीत्व की रक्षा हेतु भाइयों तथा बलवान पुरुषों के हाथों में राखी बान्धकर, उनसे अपनी रक्षा की कामना करती थी। इसी कामना के उपलक्ष पर उत्सव मनाने की परम्परा चल पड़ी। यह भावनात्मक सम्बन्ध सच्चे स्नेह का प्रतीक बनकर नारी की रक्षा का कवच सिद्ध हुआ। विश्‍व के किसी देश में ऐसा स्नेहपूर्ण भावनात्मक त्यौहार नहीं मनाया जाता है। यहाँ भाई, बहिन की रक्षा की भावना से और राखी के बन्धन की मर्यादा से प्रेरित होकर आजीवन व्रत का निर्वाह करते हैं।

चाहे धागे कच्चे हों, पर सम्बन्ध पक्के बनाये और माने जाते थे। किन्तु युग की आन्धी व धन की अन्धी दौड़ इन भावनात्मक सम्बन्धों में भी पैसे की दीवार बना रही हैं जो कि हमारे टूटन, बिखराव एवं विषमता का कारण बन रहा है। इस पर्व के साथ कई पौराणिक कथाएं भी जुड़ गई हैं, जो मात्र इस त्यौहार की महत्ता, सामाजिकता एवं भावनात्मकता पर बल देती हैं। समय के प्रबल प्रवाह में बहुत कुछ छूट, टूट व फूट जाता है। यही हमारे पर्वों, सामाजिक जीवन मूल्यों, आदर्शों, संस्कारों आदि के साथ हुआ। मूल चेतना टूट गई। वास्तविक स्वरूप और ध्येय भूल गया। मात्र रूढ़ियों तथा अन्धविश्‍वासों का निर्वाह हो रहा है। अब इन पर्वों में न पूर्व जैसा रस है, न मस्ती है, न भाव-भावना है, न कोई उत्साह-भाव है, न मेल-जोल है, न आने की खुशी है। एक ढर्रे में बन्धा आदमी भाग रहा है। किसी को समय ही नहीं है कि दो घड़ी बैठकर इन पर्वों की मस्ती का स्वाद ले। कुछ विचार, चिन्तन व भावना जेहन में उतारे। आदमी मशीन बनकर दौड़ रहा है। यही आज के मानव की सबसे बड़ी विडम्बना और त्रासदी है।

वैदिक चिन्तन में प्रत्येक पर्व विशेष उद्देश्य से मनाया जाता है और एक विशेष सन्देश लेकर आता है। यह श्रावणी पर्व भी वेदों के पठन-पाठन व रक्षा के संकल्प को दुहराने का सन्देश लेकर आता है। वेद का चिन्तन प्रेरित करता है कि हम सच्चे अर्थ में मानव बनकर अपने जीवन जगत को सुखी बनाए। वेद ज्ञान प्रभु का कल्याणी वरदान है। इसी ज्ञान से मानवता सुखी, शान्त व आनन्दित हो सकती है। वेद का चिन्तन प्राणी मात्र के लिए है। आज संसार विचारों के कारण दुखी है। आज मंगलदायक, श्रेष्ठ, पवित्र विचारों का सर्वत्र अभाव हो रहा है। वैदिक चिन्तन विचार देता है। जीवन को सुन्दर, पवित्र, श्रेष्ठ बनाने का मार्ग दिखाता है। श्रावणी उपाकर्म इन्हीं वैदिक विचारों के प्रचार-प्रसार का पर्व है। इसकी महत्ता, उपयोगिता एवं सार्थकता तभी है, जब हम सत्संग, स्वाध्याय, साधना, सेवा आदि श्रेष्ठ भावों से जुड़ें। जीवन को उन्नत बनाएं। यही श्रावणी का वैदिक रूप है। - डॉ. महेश विद्यालंकार

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