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सुशासन के वैदिक सूत्र

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आइये! हम यह देखें कि अपने देश की सच्ची सेवा कैसे की जा सकती है? हम मातृसेवा कैसे करें? हम क्या करें, कैसे वर्तें, जिससे हमारी मातृभूमि वस्तुतः समुन्नत हो, हमारा देश संसार में यशस्वी हो, हमारी देशमाता का मुख उज्ज्वल हो।

यजुर्वेद के पहले ही मन्त्र से इस विषयक शिक्षा ग्रहण की जा सकती है-
मा व स्तेनऽईशत माघशँ सः। (यजुर्वेद 1.1)
(वः) तुम पर (स्तेनः) चोर (मा) (ईशत), शासन न करे, तुम पर (अघशंसः) पाप बढ़ाने वाला (मा) मत शासन करे।

जब तक हम पर विदेशी शासन था, तब तक इस वेदवचन को उस ‘चोर’ और ‘अघशंस’ शासन को हटाने के लिए प्रमाण रूप में उपस्थित किया जाता था। पर इस वेद-वचन को पालन करने की अब अपने शासन के सम्बन्ध में भी हमें वैसे ही आवश्यकता है जैसे पहले थी। यद्यपि उसका पालन करना अब अपना राज्य हो जाने से हमारे लिए अधिक सुगम हो जाना चाहिए।

‘यथा राजा तथा प्रजा’ की कहावत पहले ठीक थी, जबकि राजा स्वतन्त्र या स्वयं शासक होता था। अंग्रेजों के जमाने में भी यह कहावत ठीक थी। क्योंकि अंग्रेज जो चाहते थे करते थे, हमारा तो कुछ बस नहीं था। पर अब इस प्रजातन्त्र के युग में और भारत में भी अपना प्रजातन्त्र हो जाने पर तो अधिक सच्ची बात ‘यथा प्रजा तथा राजा’ है। जैसी प्रजा होगी वैसा ही राज्य होगा, वैसा ही शासन होगा।

अंग्रेजों के विदेशी शासन को ‘स्तेन’ तथा ‘अघशंस’ (चोर तथा पापवर्धक) क्यों कहा जाता है? इसीलिए कि वह हमारा शोषण करता था, भारत की सम्पत्ति को नाना प्रकार से हड़पकर वह उससे चुपके-चुपके अपने घर को भरता था तथा मद्यपान, घूस-खोरी आदि पाप कार्यों को बढ़ावा देता था, इत्यादि-इत्यादि। पर अंग्रेजी शासन की इन सब बुराइयों के लिये भी अन्ततः प्रजा ही दोषी थी। पर इस समय तो अपने देश के शासन की सब बुराइयों के लिए हम ही सीधे उत्तरदाता हैं, किसी दूसरे को दोषी नहीं ठहरा सकते। अब जो जिस किसी प्रकार से गरीबों का शोषण होता है, देश में चोर बाजार चलते हैं, सरकारी कर्मचारी रिश्‍वत लेते हैं, अन्य भ्रष्टाचार हैं, उनका उत्तरदायित्व हम पर ही है।

यह बात कैसे है, इसे हमें अच्छी तरह समझना चाहिए। वेद का यह उपदेश, वेद की यह आज्ञा कि तुम पर ‘चोर तथा अघशंस शासन न करें’ जैसे कि वेद के अन्य उपदेशों व आज्ञाओं में होता है, तीनों अर्थों में लागू होती हैं- व्यक्ति में, समाज में और विश्‍व में। व्यक्ति का अपने ऊपर जो शासन है उसमें स्तेन और पाप का शासन न हो तो ऐसे व्यक्तियों से बने समाज में और ऐसे व्यक्तियों से बने राष्ट्र में भी स्तेन और अघशंस का शासन कैसे रह सकता है? धार्मिक पुरुषों का, धार्मिक संस्था का यही दृष्टिकोण होता है और यही होना चाहिए। क्योंकि समाज और राष्ट्र में व्यक्ति ही इकाई होता है। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि उस अश्‍वपति का युग फिर इस देश में आ जाये जो कि दावे के साथ कह सकता था कि ‘मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई मद्यप नहीं, कोई व्यभिचारी नहीं....’ तो उसका मौलिक उपाय यही है कि हम अपने वैयक्तिक जीवन में स्तेन और पाप के शासन को हटाकर सुशासन स्थापित कर लें। व्यक्ति के अन्दर पालन किया गया धर्म ही है जो कि देश के शासन को भी सच्चे अर्थों में सुधार सकता है।

हम सब जानते हैं कि यदि किसी सुधार के लिए लोकमत तैयार नहीं है तो सरकार के कानून बनाने से भी कुछ नहीं होता। वह कानून दिन-दहाड़े भंग होता है और सरकार कुछ नहीं कर सकती।

हमारे देश के व्यक्तियों में, फलतः हमारे देश के सामान्य समाज में यदि चोर-भाव और चोरों का तथा पाप-भाव और पाप को बढ़ावा देने वालों का बोलबाला है, उन्हीं की चलती है तो हमारे राजनैतिक शासन में भी यही होगा। इसीलिए महात्मा गान्धी स्वराज्य की प्राप्ति के लिए भी सदा रचनात्मक कार्यों पर बल देते थे। उनके खादी आदि आन्दोलन व्यक्ति और समाज में सुशासन लाने के लिए ही थे। उनका चरखा-आन्दोलन शोषण को रोकने के लिए था। मिलों द्वारा जो गरीबों का शोषण होता है, जो ‘स्तेन’ का शासन चलता है उसको हटाकर निर्धन भारतवासियों को पेटभर अन्न मिले, इसी प्रयोजन के लिए था। इस प्रकार के शोषण भी कोई सरकार केवल कानून बनाकर नहीं रोक सकती। उसके लिए शोषण के विरुद्ध समाज में जागृति होनी आवश्यक है। सरकार तो शराब को भी केवल कानून से नहीं रोक सकती। इन सब कार्यों के लिए धार्मिक-सामाजिक संस्थाओें को कार्य करना चाहिए। हमारे देश के समाज में सच्चे धर्म के प्रचार द्वारा जो अनेक सुधार अपेक्षित हैं, उन सुधारों का करना ही देश में अच्छे राजनैतिक शासन की नींव हो सकता है।

अब लगभग प्रत्येक व्यस्क नागरिक को मताधिकार प्राप्त है। पर अपने ‘मतदान’ का मूल्य हमारे देशवासी कहाँ जानते हैं? जैसे धन आदि वस्तुओं का दुरुपयोग होता है वैसे ही ‘मत’ भी बेचे या छीने या चोरी किये जाते हैं। हमें ‘मत’ के महत्व को, मतदान की पवित्रता को लोगों को समझाना होगा। देशवासियों को यदि हम यह सिखा सकें कि वे किसी दलबन्दी में न पड़कर अथवा किसी प्रलोभन या भय में न आकर केवल जो श्रेष्ठ, योग्य, सच्चरित्र व्यक्ति हैं उन्हें ही अपना मत प्रदान करें तो यह कितनी बड़ी सेवा है, देश का कितना हित-साधन है! चोर और अघशंस शासन को हटाने का कितना प्रबल उपाय है।

हमें वैयक्तिक रूप में ही चोर और अघशंस के शासन से मुक्त होना है। जब हम देखते हैं कि जगह-जगह अन्याय है, अन्धेर है, सत्य का गला घोटा जा रहा है, रिश्‍वत है, चोरबाजारी है, अन्य भ्रष्टाचार है, सरकारी कर्मचारी ही रक्षक की जगह भक्षक हैं, इस प्रकार स्तेन और पापवर्धकों का राज्य छाया हुआ है, तो निराश नहीं होना चाहिए और यह समझना चाहिए कि इस कुशासन को हटाकर सुशासन स्थापित करने में मैं व्यक्तिशः जो कुछ कर सकता हूँ यदि वह कर रहा हूँ तो शेष सब ठीक हो जाएगा। अपने अन्दर सुशासन हो, यह सबसे मुख्य बात है। जब हम स्वयं चोरी करते हैं, किसी शोषण में भागीदार बनते हैं तो पहले हमारे अन्दर के आत्मा के राज्य को हटाकर वहाँ चोरभाव का राज्य स्थापित हो जाता है, तभी हम वैसा करते हैं। जब हम स्वयं पाप को बढ़ाते हैं, पापवर्धक कार्य में रत होते हैं, तब हमारे अन्दर आत्मा स्वराज्य से पतित होकर पापसिंहासनारूढ़ हो चुका होता है, तभी हम वैसा करते हैं। इसलिए जब हम स्वयं किसी की निर्धनता, अज्ञानता, कष्ट का लाभ उठाना कभी नहीं चाहेंगे, चाहे कितना भी बड़ा प्रलोभन या भय होने पर भी स्वयं ठीक व्यक्ति को ही मतदान करेंगे, कठिनाई होने पर भी स्वयं रिश्‍वत नहीं देंगे या लेंगे, स्वयं चोर-बाजार से वस्तुएँ नहीं खरीदेंगे एवं उस समय के अनुसार किसी चोरी या पाप में स्वयं भागीदार नहीं बनेंगे, तभी हम अपने समाज तथा राष्ट्र में से स्तेन तथा अघशंस शासन हटाने में, बल्कि विश्‍व में से, सब संसार से, इस पृथ्वी पर से, चोर और अघशंस शासन को हटाने में सफल हो सकेंगे और इस वेदाज्ञा को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक अर्थों में पालन करने वाले होंगे- मा वः स्तेन ईशत मा अघशंसः। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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