ओ3म् दृते दृं ह मा ज्योक् ते सन्दृशि जीव्यासम्।
ज्योक् ते सन्दृशि जीव्यासम्॥ यजुर्वेद 36.19॥
वि-दारक! मुझे तुम दृढ़ करो। तेरी सं-दृष्टि में चिर जीऊँ। तेरी सं-दृष्टि में चिर जीऊँ।
मन्त्र बड़ा मार्मिक है। इसमें भगवान् को ‘दृति’ कहा। ‘दृति’ का अर्थ है, दरार। बड़ा विचित्र सम्बोधन है। दृते=हे वि-दारक ! हिन्दी में ‘वि-दारक’ शब्द प्रचलित है। ‘वि-दारक’ का अर्थ है चीर देने वाला। जैसे दृश्य बड़ा हृदय विदारक था। प्रभो! तुम जो चीर-फाड़ कर रहे हो, नश्तर चला रहे हो उसे सहने की शक्ति दो। नासूर हो जाए, तो शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए चीरा लगा देते हैं। हमारे जीवन में तो अनेक नासूर हैं। मैं कामी हूँ, क्रोधी हूँ, लोभी हूँ, तुमको यह सहन नहीं। मैं जो हूँ वह तुम मुझे नहीं रहने दोगे। इसलिए हे प्रभो! हे वि-दारक तुम जो नश्तर चला रहे हो, चीर-फाड़ कर रहे हो उसे सहने की शक्ति दो।
दो तरह के बच्चे होते हैं। कुछ बच्चे बड़े ढीठ होते हैं। उन्हें माता-पिता कुछ नहीं कहते। कुछ समझदार होते हैं। वे थोड़ी सी भी गलती करते हैं तो उन्हें थप्पड़ पड़ते हैं। उन्हें हम बिगड़ने नहीं देना चाहते। दण्ड देना तो प्यार का प्रबल प्रमाण है। भगवान् भी ऐसा ही करते हैं। ईश्वर को भी आशा है कि आप सुधर जाएंगे। छल-कपट करने से ढीठ को खूब धन प्राप्त होता है। वह अपने आपको शाबासी देता है। पर यह तो अभिशाप है। ऐसे भी होते हैं कि सारे जीवन परोपकार किया, पुण्य किया और सुख कभी नहीं मिला।
भगवान् के खेल बड़े निराले हैं। उनके निराले खेलों को देखने के लिए शक्ति चाहिए। जहाँ कहीं त्रुटि होती है, भगवान् फौरन दण्ड देते हैं। यह उनकी बड़ी दया है। हे प्रभो! आपमें मेरी निष्ठा, मेरी भक्ति समाप्त न हो जाए। मैं यह न सोचने लगूं कि मैं इतना पुण्य करता हूँ और बदले में सारी मुसीबतें मेरे लिए! अनन्य निष्ठा के लिए दृढ़ता चाहिए। संसार के सभी आधारों को छोड़कर परम आधार को पकड़े रहना। दूसरे शब्दों में, अपने सत् से कभी न डिगना। भगवान्, आपके खेल में देख रहा हूँ। जिस भी अवस्था में आप रख रहे हैं उसमें मैं प्रसन्न रह सकूं, सन्तुष्ट रह सकूं, तृप्त रह सकूं, ऐसी शक्ति दीजिए।
मन्त्र में आगे बड़ी सुन्दर बात कही गई है- ज्योक् ते सृं-दृशि जीव्यासम्। तेरी निगाह में बहुत समय तक जीता रहूँ। बस, आप मुझे देखते रहो। ‘कोई देख रहा है’ यह बड़े असमञ्जस की स्थिति होती है। प्रभु देखते रहेंगे तो मैं अच्छा जीवन जी सकूंगा।
‘दृति’ का अर्थ होता है खण्डित करने वाला, चीरने वाला। हमारा वर्तमान जीवन जो भोगों से भरा है उसको खण्डित करना है। रोगी जिस प्रकार अपने किसी सहायक पर आश्रित होता है उसी प्रकार साधक भी शोधक की सहायता चाहता है। रोग दो तरह के होते हैं, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक रोग तो चिकित्सा की सहायता से दूर हो जाते हैं। पर मानसिक रोग प्रभु की सहायता से दूर होंगे। प्रभु की कृपा कैसा व्यक्ति प्राप्त कर सकता है? व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं। एक भोले स्वभाव के, दूसरे उसके विपरीत छल-खद्म से युक्त होते हैं। शिशु भोला होता है। उसमें मेरे-तेरे का भाव नहीं होता। शिशु संसार में आता है, भगवान उसे माता देते हैं, पिता देते हैं। माता-पिता उसका सारा भोलापन समाप्त कर देते हैं। पाप, छल, कपट, झूठ, फरेब बच्चा परिवार से ही सीखता है। अन्यथा यदि बालक में पूर्व जन्म के कुसंस्कार होते तो वे दब सकते थे, नष्ट हो सकते थे, यदि अनुकूल वातावरण मिलता।
सिद्ध पुरुष भी शिशु के समान होता है। दोनों में एक समानता है- दोनों अहंकार से रहित हैं। सिद्धपुरुष शिशु के समान भोला होता है। शिशु में मेरे-तेरे का भाव नहीं होता। सिद्ध पुरुष के लिए भी अपना-पराया नहीं होता। अयं निजः परो वा, यह मेरा है या पराया है, इति गणना लघुचेतसाम्। ऐसी गणना लघुचित्त वालों की होती है। अर्थात् अपने-पराये का भाव चित्त की लघुता को प्रकट करता है। इसका विपरीत भाव उदार चित्त वाले (सिद्ध) का होता है। उदार-चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। उदार-चरितों के लिए तो सम्पूर्ण पृथिवी ही परिवार है। इस स्थिति को पाने के लिए हमारा भोलापन आवश्यक है। शिशुभाव की हमको सुरक्षा करनी चाहिए। शिशुत्व ही देवत्व का आधार है। वेद में देवों को ‘शिशु’ कहा गया है। भोलापन दिव्यता की प्रथम सीढ़ी है। हमारे हृदय में यदि अहंकार भरा है तो भगवान् कहाँ बेठेंगे? अहंकार रहित होने का अर्थ यह नहीं कि संसार हमें छल ले। छल का जवाब छल से नहीं देना है। हमें कुटिलता से बचना तो है पर अपने अन्दर कुटिलता नहीं लानी है। यह बड़ी कठिन स्थिति है। इसीलिए कहा- दृं ह मा। आपके शोधन की प्रक्रिया को मैं झेल जाऊं।
यदि ऐसा हो गया तो क्या होगा? तब साधक की कामना होगी- ज्योक् ते सन्दृशि जीव्यासम्। ‘हे प्रभो! तेरी सन्दृष्टि में मैं चिर जीऊं।’ ‘ज्योक्’ से अभिप्राय है चिर काल, सनातन काल, सदा-सदा के लिए। दूसरा शब्द है सन्दृशि। ‘दृष्टि’ नहीं, ‘समदृष्टि’ कहा। सम्=अनेकता को हटाकर एक का भाव। हे परमात्मन्! तुम्हारी दृष्टि पुण्यात्मा और पापी का भेद नहीं करती। भगवान् विराट् ब्रह्माण्ड को पाल रहे हैं। करोड़ों लोग ऐसे हैं जो कहते हैं, ‘भगवान् नहीं है।’ उनके लिए भगवान् पानी बन्द नहीं करते, वायु को नहीं रोकते। वे सबको समान दृष्टि से देखते हैं। माता सबको प्यार करती है। पर किस बालक को क्या खिलाना है, क्या किसकी प्रकृति के अनुकूल है, इसका भी ध्यान रखती है। परमात्मा भी ऐसा ही करते हैं। जिसको जितना देना है, देते हैं।
’सन्दृशि’ का एक अभिप्राय यह हुआ कि हम सब आपकी दृष्टि में समान हैं। दूसर अर्थ हुआ, आपकी अपनी दृष्टि से यथायोग्य जो भोग प्रदान करना है वह आप प्रदान कर देते हैं। मेरा हित मैं नहीं, मेरी परमेश्वरी माता जानती है। इसलिए मैंने लाभ-हानि, जीवन-मरण, सब कुछ छोड़ दिया है। जिसने भगवान् पर सब कुछ छोड़ा वह निश्चिन्त हो जाता है। चिन्ता तो अहंकार का ही एक सूक्ष्म रूप है। हम चिन्ता करते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि हम अपने हित-अहित को जानते हैं। जिसने अपनी डोरी भगवान् के हाथों में दे दी, अब उसकी चिन्ता भगवान् करेंगे।
जीवन को प्रभु-अर्पित करके हम निर्भार हो जाएंगे। परिणामस्वरूप हमारा अहंकार नष्ट हो जाएगा। ‘अहं’ भाव के नष्ट होने से नया दृष्टिकोण बनता है, कि ‘मैं जीवन को भगवान् की धरोहर जानकर जीऊँ।’ जिस प्रयोजन के लिए यह जीवन दिया गया है, उसे हम पहचानें। प्रयोजन के सिद्ध होने पर उसे जैसा का तैसा परमात्मा को अर्पित कर देना है।
हम अपने जीवन के या किसी वस्तु के ‘स्वामी’ नहीं हैं। स्वामी तो संन्यासी को कहते हैं। क्योंकि उसने अपने ‘स्व’ पर अपनी मिल्कियत जमा ली है। उसकी वाणी, भाव, विचार, इच्छाएं सब उसके नियन्त्रण में होती हैं। हमारे नियन्त्रण में कुछ नहीं, अतः हम स्वामी नहीं हैं। स्वामी या तो सिद्ध पुरुष होता है या सृष्टिनिर्माता प्रभु। हम क्या हैं? हम कहते हैं, ‘यह मेरा मकान है, यह मेरी कार है, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे’ आदि। जब हम ‘मेरा मकान, मेरी सन्तान’ आदि कहते हैं तब हम उसके स्वामी नहीं हो जाते। यह सब धरोहर है। वेद में कहा- वयं स्याम पतयो रयीणाम्। ‘पति’ शब्द का अर्थ स्वामी नहीं, रखवाला होता है। धरोहर को सुरक्षित रखना आसान काम नहीं है। जिसकी चीज है उसे वह लौटानी है। हमारे जीवन को हम धरोहर मानते हैं तो अहंभाव से मुक्त हो जाते हैं। चिन्ता केवल उसे ज्यों का त्यों लौटाने की होती है। जैसे भोले हम आए थे वैसे ही लौट जाएं। भगवान् को ‘भोलानाथ’ कहा है। वे भोले भक्तों के रखवारे होते हैं। प्रयास यह होना चाहिए कि यह जो जीवन-रूपी चादर मुझे मिली है उसे स्वच्छ, पवित्र उतार सकूँ।
भगवान् को ‘प्रजापति’ कहा है। इस नाते से जो कुछ संसार में है, छोटा-बड़ा सबको उसने अपनी परिधि में लिया हुआ है। भगवान् के लिए सृष्टि हस्तामलकवत् है। ब्रह्माण्ड कितना भी विराट् क्यों न हो, ब्रह्म के लिए तो वह अण्डे के समान ही है। चेतना की तुलना में अचेतन एक अकिंचन पदार्थ होता है। हम तो ‘यत्काम’ हैं, बच्चे की तरह अनेक इच्छाएं करते हैं। हम यह नहीं जानते कि हमारी कौन सी कामना उचित है और कौन सी अनुचित है। हे भगवान्, यह भी आप पर छोड़ा। जो आप उचित समझेंगे वह कामना पूरी होगी। जो उचित न होगी, वह पूरी नहीं होगी। यदि यह जीवन हमने आपकी संदृष्टि में जी लिया तो आगे के लिए चिन्ता नहीं रहेगी।
इस प्रकार यह मन्त्र वेद रूप महासागर का एक परिपूर्ण बिन्दु है। ‘दृते!’ इस सम्बोधन में साधक और भगवान का सम्बन्ध बताया गया है। उनका सम्बन्ध ऐसा ही है जैसा रोगी और चिकित्सक का होता है। चिकित्सक की पहली पहचान है कि वह गम्भीर परिस्थितियों में भी मुस्काता है, रोगी के साहस को बढ़ाता है। चिकित्सक रोगी के सामने बल को बढ़ाएगा तो वह रोगी नश्तर झेल पाएगा।
‘दृं ह मा’- इसमे भक्त ने अपने और भगवान के सम्बन्ध को बनाए रखने के लिए शक्ति की कामना की है। प्रभो! आप जो मेरा शोधन कर रहे हैं उसको मैं पहचानूं। सुख में भगवान को सभी धन्यवाद देते हैं, पर दुःख में धन्यवाद विरले ही देते हैं। यह दुःख जो आया है वह भी मेरे किसी विकार को निकालने के लिए आया है, ऐसे मेरे भाव हों। भगवान् हमारे पिता हैं- त्वं हि नः पिता वसो! त्वं माता शतऋतो! पिता साधन प्रदान करते हैं। माता साधनों का उपयोग कर बच्चे का पालन करती है। भगवान्! मेरे में यह दृढ़ता तुम्हारी सन्दृष्टि में रहने से आई है। अब मैं तुम्हारी सन्दृष्टि में ही रहूं। ज्योक् ते सन्दृशि जीव्यासम्। यह साधक का स्वयं के प्रति आशीर्वचन है। एक बार प्रभु की सन्दृष्टि में रहने से जो अनुभूति हुई उसे भक्त खोना नहीं चाहता। इसीलिए भावातिरेक में भक्त स्वयं को दो बार आशीर्वाद दे देता है- “तेरी सन्दृष्टि में मैं अनन्त समय तक जीऊं। सदा तेरी दृष्टि मुझ पर पड़ती रहे और निगाह तुमसे मिली रहे।’‘
मन्त्र का छन्द गायत्री है। गायत्री ऋक् होती ही गाने के लिए है। इस मन्त्र को हम रोम-रोम से गाएं। भगवान् हंसाए तो हंसिए, रुलाए तो रोइए। सदा ही कहिए- मैं रहूँ वैसे ही जिसमें तेरी रजा हो।
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