विशेष :

शत्रु-संहार

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Shatru Sanhar

ओ3म् परा शृणीहि तपसा यातुधानान् पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि।
परार्चिषा मूरदेवान्छृणीहि परासुतृप: शोशुचत: शृणीहि॥ ऋग्वेद 8.3.13॥

शब्दार्थ- (अग्ने) राजन् ! नेत:! अपने (तपसा) पराक्रम से (यातुधानाम्) प्रजापीड़क अत्याचारियों को (परा शृणीहि) विनष्ट कर दे (हरसा) अपनी विनाशक शक्ति से (रक्ष:) राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, आततायियों को (परा शृणीहि) मार भगा, अपने (अर्चिषा) तेज से (मूरदेवान्) मूढ देवों को, पाखण्डियों को (परा शृणीहि) समाप्त कर दे। (असु-तृप:) दूसरों का प्राण लेकर अपना पालन-पोषण करने वाले डाकुओं को (शोशुचत:) धधककर (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार नष्ट कर डाल।

भावार्थ- राजा और नेता को अपने राज्य का निरीक्षण करते हुए ऐसा उपाय करना चाहिए कि प्रजा हर प्रकार से सुखी और आनन्दित रहे। इसके लिए-
1. राजा को प्रजा को पीड़ा देनेवाले अत्याचारियों को कठोर दण्ड देना चाहिये। जो लोग प्रजा को लूटते हैं, वस्तुओं में मिलावट करते हैं, आवश्यक भोग्य पदार्थों को छिपा देते हैं, ऐसे सभी प्रजा-पीड़कों को नष्ट कर देना चाहिए।
2. राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, देश पर आक्रमण करने वाले बाह्य शत्रुओं को भी अपनी विनाशक शक्ति से परास्त कर देना चाहिये।
3. मूढ देवों को, मूर्ख और पाखण्डियों को, पाखण्ड फैलाकर अपना उल्लू सीधा करने वालों को मौत के घाट उतार देना चाहिए।
4. दूसरों का प्राण हरण करके रंगरेलियाँ मनाने वाले डाकुओं का भी सफाया कर देना चाहिये। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- जून 2015)

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